Vikas Verma
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दलित राष्ट्रपति उम्मीदवार, मेरिट और सवर्ण राजनीति

विकास वर्मा (Vikas Verma)

Vikas Vermaप्रणब मुखर्जी के कार्यकाल के बाद नए राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी के लिए पहला नाम सत्तारूढ़ भाजपा की तरफ से ‘रामनाथ कोविन्द’ आया। ये नाम ज्यादातर लोगों ने पहली बार सुना था। हो भी क्यों न, राज्यों के राज्यपालों के नाम लुसेंट की ‘सामान्य ज्ञान’ की किताब तक ही सीमित होते हैं। जो एस.एस.सी. की तैयारी न कर रहा हो, उसे ये नाम पता नही होते हैं। नाम की घोषणा के वक्त सत्तापक्ष की तरफ से जोर पर जोर देकर बताया गया कि उनका उम्मीदवार दलित समाज से आता है। फिर क्या था, चारों तरफ चलने लगा कि कोविन्द को उम्मीदवार सिर्फ इसलिए बनाया जा रहा है क्योंकि वो अनुसूचित जाति के हैं न कि इसलिए कि उनमें योग्यता है।

विपक्षी दलों ने एक और दलित समाज की नेता मीरा कुमार को अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाकर आग में घी डालने का काम किया। बात उठने लगी कि देश में राष्ट्रपति बनने का क्राइटेरिया अब दलित जाति से होना बन गया है। जो जाति से जितना ज्यादा दलित होगा उसके राष्ट्रपति बनने के चान्स उतने ही ज्यादा होंगे। इस चुनाव को लोगों ने राष्ट्रपति पद की गरिमा पर बदनुमा धब्बा बताया क्योंकि उनके अनुसार इस चुनाव में दलित जाति इस पद का क्राइटेरिया बन गया है, मेरिट नही।

सबसे पहले तो आपको ये बता दूं कि मेरे हिसाब से भी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार का चुनाव उनकी ‘दलित’ जाति देखकर ही हुआ था। बताना जरूरी है ताकि पढ़ते टाइम आर्टिकल को ‘नही, उनका चुनाव जाति देखकर नही हुआ है’ वाला लेख न समझ लिया जाए।

अब आते हैं मुद्दे पर यानी आपके मेरिट वाले मानदंड पर। लोगों ने दोनों उम्मीदवारों को बिना मेरिट का बताया था यानी उनके अनुसार दोनों उम्मीदवार अयोग्य थे। लेकिन कैसे? दोनों ने तो भारत का सबसे प्रतिष्ठित एग्जाम आई.ए.एस. क्वालीफाई किया था यानी मेरिट का सबसे बड़ा महायुद्ध जीत चुके थे दोनों। कोविन्द एक राज्य के राज्यपाल थे और मीरा कुमार भारतीय लोकसभा की स्पीकर रह चुकी हैं। योग्यता के इनसे बड़े प्रमाण क्या हो सकते हैं? विशेषकर राष्ट्रपति जैसे ऑलमोस्ट ‘डमी’ पद के लिए! और क्या बड़ी योग्यता चाहिए इनको योग्य समझने के लिए? आपके हिसाब से राष्ट्रपति के जो सबसे कद्दावर दावेदार थे, वो कौन सी मेरिटोरियस परीक्षा पास किये हुए थे? अगर यहाँ कोई एस.सी. रिजर्वेशन वाला फण्डा लगाने की कोशिश कर रहा है, तो अपने मेरिटोरियस दावेदारों की आई.ए.एस. एग्जाम वाली मार्कशीट ले के आये और दिखाए कि उनके उम्मीदवार को मीरा कुमार और कोविन्द से ज्यादा नंबर मिले लेकिन सेलेक्शन नही हुआ।

शायद आपके अनुसार अब तक सभी सरकारी पदाधिकारियों का सेलेक्शन मेरिट पर होता आया है! अगर ऐसा लगता है, तो क्यों न थोड़ा केंद्रीय मंत्रिमंडल का भ्रमण कर लिया जाए कि कितनी मेरिट है वहां पर! वैसे यहाँ पे तो मेरिट का होना राष्ट्रपति के पद की मेरिट से ज्यादा जरुरी होना चाहिए क्योंकि पूरे देश का वास्तविक शासन तो यहीं से होता है। है न?

मेरिटोरियस होने के सबसे जरुरी मानदंड हैं, अच्छे परसेंटेज से पास होना और प्रवेश परीक्षा में अच्छी रैंक लाना। हालात तो यह है कि बैंक क्लर्क के एग्जाम में भी अंग्रेजी ग्रामर के एग्जाम में अच्छे नंबर लाना जरुरी है, जबकि एक क्लर्क इस टॉप क्लास ग्रामर का प्रयोग कहाँ करता है, ये शोध का विषय है। तो इस क्राइटेरिया के हिसाब से सबसे ज्यादा मेरिट प्रधानमंत्री पद के लिए होनी चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्रीजी की मार्कशीट तो यूनिवर्सिटी के लिए भी शोध का विषय हैं और ऐसे में उन्हें मेरिट की दुनिया के गेट से ही बाहर कर देना चाहिए था। लेकिन वो तो प्रधानमंत्री बने हुए हैं, वो भी सेलेब्रेटी टाइप वाले।

पूरे देश का शिक्षा विभाग यानी एच.आर.डी. मंत्रालय, उसकी बागडोर किसी ऐसे को दी गयी थी, जिसने ग्रेजुएशन तक नही किया था और फ़र्ज़ी हलफनामे भी लगाये थे। Rajendra Prasad Washing Feet of Sanskrit Pandits यानी जो खुद पढ़ा लिखा नही था, उसे ये डिसाइड करने की जिम्मेदारी दे दी गयी कि कौन क्या और कैसे पढ़ेगा। ये मेरिट थी या मजाक था? पूरे देश की अर्थ व्यवस्था का कर्ता धर्ता यानी वित्त मंत्री एक अर्थशास्त्री न होकर एक लॉयर है। कहाँ गयी इकोनॉमिक्स वाली मेरिट भाई? और तो और इन दोनों ने तो चुनाव भी नही जीते, मतलब जनता भी इन्हें नही चाहती। कहाँ से आई इनकी मेरिट? कहाँ था इनके मेरिटोरियस न होकर जाति विशेष से होने वाला बवाल? गूगल से ये सवाल पूछने पर तो रिजल्ट में आर्यभट्ट वाला जीरो आता है।

गंगा स्वच्छ करने का मंत्रालय एक आठवीं पास साध्वी को दिया गया जो खुद धार्मिक कर्मकाण्ड में पारंगत हैं। धार्मिक कर्मकाण्ड मतलब नदियों में गंदगी। ये कौन सी मेरिट है जो उस महिला को वो मंत्रालय दिया जा रहा है, जिसका काम खुद उसके मंत्रालय के विपरीत है?

यूपी के विधानसभा चुनाव में बड़ी भारी जीत हुई, विपक्ष का सूपड़ा साफ़ हो गया। पार्टी में MLAs की भरमार लग गयी लेकिन जब मुख्यमंत्री की बात आई तो एक महंत बना जिसकी डिग्री किसी मेरिट के कांसेप्ट को सूट नही करती। उसके सिलेक्शन में कौन सी मेरिट पूँछी गयी थी? एक कम्पनी में मैनेजर बनने के लिए तो पहले बड़े बड़े कंप्रेहेंन्सन्स में ऑथर ‘बिटवीन द लाइन्स क्या कह रहा है’, वो एक मिनट में बताना होता है। दुनियाभर में हिसाब किताब के लिए साइंटिफिक कैल्क्युलेटर और MS एक्सेल आदि का यूज किया जाता है फिर भी मेनेजर बनने के लिए सरपट वाली कैलकुलेशन वाली मेरिट मांगी जाती है। लेकिन इस चीफ मिनिस्टर के पास तो कोई मेरिट नही थी किसी राज्य का मुख्यमंत्री किसी कंपनी के मेनेजर से कम योग्य होना चाहिए क्या? आपने क्यों बवाल नही मचाया कि मेरिट पर सिलेक्शन क्यों नही हुआ? क्यों इन्ही लोगों ने जाति पर प्रश्न उठाकर हो हल्ला नही किया?

अब मेरिट पे सिलेक्शन नही हुआ तो किस चीज पर हुआ? कैबिनेट मिनिस्टर्स में मेजोरिटी सवर्णों की है, जबकि MPs में देखें तो मेजोरिटी में बहुजन हैं। संविधान में प्रतिनिधित्व का कानून किसलिए है, ये समझने और उसका पालन करने की नैतिक जिम्मेदारी कैबिनेट की है। जिन क्षेत्रों में संविधान बहुजन प्रतिनिधित्व की बात कहने से रह जाता है, उन क्षेत्रों में भी बहुजन प्रतिनिधित्व बना रहे, ये इंश्योर करना कैबिनेट का काम है। फिर भी कैबिनेट में सवर्णों की मेजोरिटी है। जिसका सीधा मतलब ये है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में ही जातिवाद का खुला खेल चल रहा है। 

लोग ऊँची जाति देखकर मिनिस्टर बना दिए जाते हैं, लेकिन आप चुप रहते हैं, चाहे वो चुनाव भी न जीते हों, आपको उनकी जाति याद नही आती। आपकी नींद केवल तब खुलती है जब किसी दलित का नामांकन बड़े पदों पर होता है। क्योंकि आपके मुताबिक़ दलित योग्य नही होते हैं, भले ही वो कोविन्द और मीरा कुमार जैसे सिविल सर्विसेज क्वालीफाइड पॉलिटिशियंस ही क्यों न हों। आपके लिए सवर्ण योग्य होते हैं, चाहे वो स्मृति ईरानी की तरह अनपढ़ ही क्यों न हों।

पूरा खेल जाति का है लेकिन आपके हिसाब से जातिवाद तब होता है, जब कोई बहुजन प्रतिनिधित्व की बात करता है, कितना भी अयोग्य सवर्ण कितने भी महत्वपूर्ण पद पर बैठा रहे वो जातिवाद नही होता। ये पूर्वाग्रह होना भी जातिवाद है साहब! आँखे खोलिए और महसूस करिये जातिवाद सवर्णों की जागीर है, बहुजनों की नही। बहुजन की जाति दिखाकर भी, सवर्ण ही अपनी राजनीति चमका रहे हैं। राष्ट्रपति कोविन्द बने हैं और राजनीति सवर्णों की पार्टी भाजपा की चमकी है। राष्ट्रपति मीरा कुमार बनती, तो राजनीति सवर्णों की पार्टी कांग्रेस की चमकती।

Disclaimer: आर्टिकल का उद्देश्य मीरा कुमार या रामनाथ कोविन्द के सेलेक्शन को डिफेंड करना नही है। फिर से लिख दिया ताकि कोई कन्फ्यूजन न रहे। और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह कि आर्टिकल को मीरा कुमार और रमानाथ कोविन्द को बहुजन प्रतिनिधि दर्शाता हुआ भी न समझ जाये।

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 विकास वर्मा पेशे से एक इंजिनियर हैं एवं सामाजिक न्याय के पक्ष में लिखते हैं.

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