सुरेश आर वी (Suresh RV)
‘यह आलेख उन दलित-बहुजन युवाओं के लिए लिखा गया है जिनके मन में इस बात को लेकर confusion रहता है कि आरक्षण लेना चाहिए अथवा नही. या कि वे आरक्षण के वास्तविक पात्र हैं भी कि नही? क्योंकि एक समय अपने जीवन में मैं भी इसी शंका, अपराधबोध और असुरक्षा से ग्रसित था. इसलिए इस शंका को दूर करने के प्रयास में मैं अपने विचार साझा कर रहा हूँ ताकि युवा दलित-बहुजन इस अनावश्यक शंका और अपराध-बोध के बोझ से मुक्त हो सकें.
पहले मैंने इसे एक फेसबुक पोस्ट के रूप में लिखा था किन्तु अब मैंने इसमें कुछ और बिन्दुओं को जोड़कर संशोधित रूप में लिखा है ताकि यह RTI में एक लेख के रूप में प्रकाशित होकर एक बृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँच सके.’ – लेखक
जाति आधारित समाज हमारे युवा दलित-बहुजन विद्यार्थियों के मन में ऐसी अपराध-बोध की भावना पैदा करता है जैसेकि आरक्षण का लाभ उठाकर वे कोई जघन्य अपराध कर रहे हों. जैसेकि आर्थिक तौर पर मजबूत होने की वजह से उन्हें आरक्षण का उपयोग नही करना चाहिए और इसलिए आरक्षित पद को उन ‘वास्तविक’ दलित-बहुजनों के लिए छोड़ देना चाहिए जो इसके ‘वास्तविक’ पात्र हैं.
एकेडेमिया से लेकर मीडिया तक सवर्ण वर्चस्व के सभी संस्थानों के माध्यम से ब्राह्मणों द्वारा व्यवस्थित रूप से यह विमर्श गढ़ा जाता है. मैंने स्वयं व्यक्तिगत रूप से अपने कुछ बहुजन मित्रों को इस द्वेषपूर्ण दुष्प्रचार का शिकार होते देखा है, जो इसके प्रभाव में आकर कहने लगते हैं, “भाई, मुझे नही लगता कि हम आरक्षण के सही पात्र हैं, बजाय इसके हमें इसको ‘जरूरतमंद’ लोगों के लिए छोड़ देना चाहिए”. और उनमें से कुछ ने तो नौकरियों और उच्च शिक्षा के लिए आवेदन करते वक्त वास्तव में इसे छोड़ भी दिया. देखिये, मुझे इससे कोई फर्क नही पड़ता कि सवर्ण आरक्षण के पीछे उद्देश्य को समझें. आप चाहे जितने कारण बताईए लेकिन वे उन कारणों को तवज्जो नहीं देंगे क्योंकि उन्होंने पहले से ही इसके खिलाफ मानसिकता बना रखी है. केवल एक बात है जिसके लिए मैं चिंतित हूँ और वो है हमारे स्टूडेंट्स. आरक्षण के औचित्य को न समझ पाने के लिए मैं हमारे विद्यार्थियों को दोष नही दूंगा क्योंकि जिम्मेदारी उनकी नहीं है बल्कि सवर्णों द्वारा गढ़े गए विमर्श की है.
DMK नेता कनिमोझी ने संसद में प्रस्ताव रखा था कि ‘आरक्षण और सामाजिक न्याय’ को स्कूलों में एक पृथक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि जाति और सामाजिक न्याय को समझने के क्रम में आरक्षण की जरुरत को समझ सकें. अपने एक भाषण में निर्देशक पी.ए रंजीत ने भी इस पर सवाल उठाया कि ऐसा क्यों है कि स्कूलों में इस बात का कारण नही पढ़ाया जाता है कि क्यों वजीफ़ा सिर्फ दलित छात्रों को ही मिलता है और अन्य को नही. अध्यापक एवं प्रशासन सीधे-सीधे छात्रवृत्ति दलित छात्रों में वितरित कर देते हैं किन्तु बाकी विद्यार्थियों को यह नही समझाते कि दलित छात्रों को इसकी जरूरत क्यों है और यह सिर्फ बाकी के छात्रों में आक्रोश, ईर्ष्या, घृणा और पूर्वाग्रह को बढ़ाने में ही सहायक सिद्ध होता है. यहाँ, कनिमोझी और निर्देशक रंजीत दोनों ही लोग पूरी तरह से सही हैं क्योंकि यदि ऐसा हो पाता है तो इससे दलित-बहुजन और सवर्ण दोनों समुदायों के विद्यार्थियों में आरक्षण के उद्देश्य के प्रति जागरूकता पैदा होगी और छोटी सी उम्र में बच्चों में नफरत और पूर्वाग्रह पैदा होने से रोकने में भी मदद मिलेगी. लेकिन ब्राह्मण सवर्ण समाज ऐसा कभी नहीं होने देगा क्योंकि वे भली-भांति जानते हैं कि इस कदम से उनके निहित स्वार्थ प्रभावित होंगे. वे नही चाहते उनके स्थापित एवं प्रभावशाली विमर्श में सेंध लगे.
ब्राह्मण सहपाठी छात्र, जोकि इस आरक्षण विरोधी विमर्श के शिशु सैनिक हैं, बहुजन छात्रों में यह अपराध-बोध पैदा करेंगे कि ‘वे’ आरक्षण की वजह से पीड़ित हैं और आपको ऐसा महसूस कराएँगे मानो आप कोई अपराधी हों और आप ही उनकी पीड़ा की वजह हों. उनकी बातों पर कभी विश्वास न करना. यह बहुत बड़ा झूठ है. ये लोग तो ‘पीड़ा’ का अर्थ भी ठीक से नही जानते. मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है जो पहले कहते थे कि वे आरक्षण की वजह से पीड़ित हुए हैं और अब वे बिना किसी दिक्कत के विदेश में अध्यन अथवा नौकरी कर रहे हैं. सवर्ण अध्यापक और प्रोफेसर इस शिशु स्तर से थोड़े से ऊपर हैं. लेक्चर के दौरान ही वे जब-तब दलित-बहुजन स्टूडेंट्स का उपहास करते हुए एक-दो चोट कर ही देते हैं और कुछ तो अप्रत्यक्ष रूप से यही चर्चा शुरू कर देते हैं कि कैसे दलित-बहुजन इस देश की व्यवस्था से सपोर्ट पाते हैं और किस तरह ‘उन्हें’ (सवर्णों को) बेसहारा ‘कठिन परिश्रम’ करने के लिए छोड़ दिया गया है और यह कि ‘उन्हें’, अर्थात् सवर्ण छात्रों को सीटें पाने के लिए अतिरिक्त परिश्रम करना चाहिए क्योंकि उनका सम्पूर्ण अस्तित्व ही अभिशप्त है जबकि ‘दूसरों’ को अर्थात् हमें इस व्यवस्था का वरदहस्त मिला हुआ है. ये सब बातें हमारे स्टूडेंट्स में अपराध-बोध पैदा करती हैं.
आपने कभी उनकी (सवर्णों की) तरफ देखा है? अपनी जातीय परम्पराओं का पालन करने में उन्हें अपराध-बोध महसूस नही होगा, न ही तब जब वे अपने जातीय अभिमान पर लहालोट होते हैं. इसी तरह बिना किसी अपराध-बोध के वे अपनी भोजन वरीयताओं (पसंदों) की गर्वोक्ति करेंगे, अपनी ही जाति में शादी करेंगे, अपने सरनेम पर इठलायेंगे और जाने-अनजाने अपने जाति समूह, कहिये तमिल ब्राह्मण समुदाय, से अपनी सम्बद्धता पर जोर देंगे और जातीय विशेषाधिकारों और संपर्कों का उपयोग करके बेहतर पदों तक भी पहुँच जायेंगे. इसके बावजूद, वे दिखावे के लिए भी रंचमात्र शर्म अथवा अपराध-बोध का प्रदर्शन न करेंगे. पश्चिम में कम से कम कुछ हद तक ही सही ‘श्वेतों का अपराध-बोध’ जैसा कुछ तो है लेकिन ‘सवर्णों का अपराधबोध’ जैसा तो कुछ भी नही है. मेरे बहुजन दोस्तों को इस बात का अहसास करना चाहिए और अपराध-बोध महसूस नही करना चाहिए. आरक्षण आपका अधिकार है; यह आपको आपकी ‘जाति’ के लिए दिया गया है और वर्ग से इसका कोई सम्बन्ध नही है. आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन नीति नही है. यह तो प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की एक नीति है ताकि प्रत्येक जाति-समुदाय सभी संस्थाओं में पर्याप्त प्रतिनधित्व पा सके, क्योंकि आधारभूत स्तर पर हमारा समाज सिर्फ जाति के आधार पर बंटा हुआ है.
जाति इस देश में सबसे बड़ा कारक है जो जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित करता है. यदि मैं कह सकूँ, जैसा कि रोहित वेमुला ने कहा था तो आप सिर्फ आपकी जाति हो और आपको आपकी तत्काल (संयोगिक) पहचान तक सीमित कर दिया जाएगा. और आप चाहे जिस वर्ग से सम्बन्ध रखते हों, आपको आपकी जाति के आधार पर हमेशा ही लांछित किया जाएगा, आपके साथ और भेद-भाव किया जाएगा. और आप इसे बहुत अच्छे से जानते हैं और आपने इसका अनुभव भी किया है. आपका वर्ग कभी भी आपके ‘जाति-दोष’ को नही मिटा पायेगा क्योंकि आप ‘उनकी’ आँखों में हमेशा ही अपवित्र बने रहेंगे. जाति से बच निकलने का कोई तरीका है ही नही, और आप इसे बहुत अच्छे से जानते भी हैं अन्यथा अपने दोस्तों अथवा सहकर्मियों द्वारा पूछे जाने पर क्यों आप छुपाते हो या सार्वजनिक रूप से प्रकट करने में असहज क्यों महसूस करते हो? आखिर आपकी मजबूत आर्थिक स्थिति के बावजूद खुलकर न बता पाने का ये संकोच आपके अन्दर अभी तक क्यों है? क्योंकि आपको डर है कि जाति के कारण आपको लांछित किया जाएगा, आपके साथ भेद-भाव किया जायेगा और हेय दृष्टि से देखा जायेगा. आप जानते हैं कि ‘जाति’ एक सच्चाई है और यह आपके आर्थिक स्तर को भी अध्यारोहित कर देती है. जाति की जड़ें बहुत गहरी हैं क्योंकि यह हमारे भीतर भय और शर्म का भाव पैदा करती है, और उस पर ये सवर्ण हमारे अन्दर अलग से अपराधबोध पैदा करते रहते हैं जैसे कि इस सब लांछना और भेद-भाव का अस्तित्व ही न हो, जैसेकि जाति अब बची ही न हो, और ‘वे’ आरक्षण की किसी दुर्भाग्यपूर्ण व्यवस्था के निर्दोष शिकार हों. और जैसेकि उनकी ‘दयनीय’ दशा के लिए आपको अपराधबोध होना चाहिए. आप देखिये कि ये कितने क्रूर हैं! पहले तो वे आपके भीतर भय और शर्म का भाव पैदा करते हैं और फिर अपराधबोध, और तब ये आपको मनोवैज्ञानिक रूप से कमज़ोर बनाते हैं और इस तरह वे आपके उसी हक़ को, जिसके कि आप हकदार हैं, आपसे ही इनकार करवा कर आपसे छीन लेते हैं. यह बिलकुल ऐसे है जैसे उनके बहकावे में आकर आप खुद ही अपने पेट में छुरा घोंप लें.
तो इस तरह वे बड़ी धूर्तता और व्यवस्थित तरीके से आपके अन्दर यह अपराधबोध पैदा करते हैं. इसलिए उनके द्वारा आप पर लादे गए इस कृत्रिम अपराधबोध को उतार फेंक दीजिये. आरक्षण सिर्फ आपको ही दिया गया है. यह कोई सोचने की बात नही है. आप शिक्षा पाने में सफल हो गए क्योंकि आप एक आर्थिक रूप से स्थापित परिवार से थे. जबकि आपके ही समुदाय के गरीब लोगों को अभी भी उतने संसाधन और मूलभूत सुविधाएँ नही दी जा रही हैं जिससे कि आप उनके जितने भी शिक्षित हो सकें. आरक्षण के फायदे समुदाय के सभी सदस्यों को मिल सकें, यह जिम्मेदारी सरकार और सम्बंधित संस्थाओं की है. इस जिम्मेदारी को पहली-दूसरी पीढ़ी के स्टूडेंट्स पर अपराधबोध की तरह नही लादा जा सकता है. इसलिए, आरक्षण आपका अधिकार है. क्या यह स्पष्ट नही है? और आपके बच्चे भी इसके हकदार हैं. आपने उन्हें इस घिसे-पिटे (कु)तर्क का भी कभी-कभार प्रयोग करते हुए देखा होगा कि एक आईएएस के बेटे को आरक्षण की क्या जरुरत है. आप उनसे पूछिए क्या आईएएस का पुत्र होने मात्र से उसकी जाति निष्प्रभावी हो जाएगी, क्या उसे लांछित नही किया जाएगा, क्या उसके साथ भेद-भाव नही होगा? नौकरशाही से लेकर न्यायपालिका और साधारण सरकारी कार्यालय तक इस देश में प्रत्येक संस्था से जाति-गत द्वेष की बू आती है. क्या यह वही देश नही है जहाँ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी तक के साथ भेद-भाव हुआ था, जब उनके द्वारा एक मंदिर भ्रमण के बाद उस मंदिर का धुलकर शुद्धिकरण किया गया, क्योंकि ब्राह्मणों के अनुसार उन्होंने इसे अपवित्र कर दिया था. क्या यह वही देश नही है जहाँ मायावती जी को सब तरह के उपहास, गुस्से और बदनामी का आज तक सामना करना पड़ता है और इस सड़े हुए जाति आधारित समाज द्वारा सुव्यवस्थित तरीके से उन्हें चुनावों में हराया जाता है. इसके अलावा, अपने कार्यालयों में भेदभाव से लेकर उच्च पदों पर प्रोन्नति न मिलना, दूरवर्ती क्षेत्रों में स्थानांतरण तक, और ऐसी और बहुत सारी बातों को लेकर अनगिनत कहानियाँ हैं. क्या हम ये नही देख पा रहे हैं कि टीना डाबी के साथ क्या हो रहा है? इस जातिवादी समाज द्वारा उन्हें एक आईएएस टोपर के रूप में देखने के बजाय एक ऐसी दलित महिला के रूप में देखा जा रहा है जो आरक्षण का सहारा लेकर ऊपर आ गई है. उन्हें उनकी तात्कालिक (सांयोगिक) पहचान तक सीमित करके देखा जा रहा है. दलित-बहुजन अधिकारियों के लिए इस देश में आगे का रास्ता बहुत ही कठिन है. जब सत्ता के उच्च पदों पर बैठे मुख्यमंत्री और आईएएस अधिकारियों के साथ ऐसा हो सकता है तो कल्पना कीजिये कि हम कहाँ खड़े हैं!? यदि केवल आरक्षण न हो तो यह पूरा देश, प्रत्येक शैक्षणिक संस्थान और कार्यस्थल भारतीय क्रिकेट टीम के समान होगा जोकि केवल ब्राह्मण और सवर्णों द्वारा भरा हुआ है जिन्हें BCCI (इसे ‘ब्राह्मणवादी क्रिकेट कंट्रोल ऑफ़ इंडिया’ कहना ज्यादा उचित होगा) नियुक्त करता है और पुनः जो ब्राह्मण सवर्णों से भरा हुआ है. आरक्षण के बिना हम इन संस्थाओं के आस-पास भी दिखाई न देंगे. यहाँ तक कि वह तथाकथित ‘अमीर’ दलित जिसके साथ, उनके अनुसार, कोई भेदभाव नही होता है और जो आरक्षण का ‘सही’ पात्र नहीं है, वो तथाकथित ‘अमीर’ दलित भी भारतीय क्रिकेट टीम में जगह नही पाता है. यहाँ तक कि इतने बड़े पूरे देश में एक आदमी भी क्रिकेट टीम में नही है. क्योंकि, जैसा कि मैंने ऊपर कहा, आप उनकी आँखों में हमेशा एक दलित ही रहोगे, और आपका ‘वर्ग’ आपकी जाति (के कलंक) को कभी ख़त्म नहीं कर पायेगा.
तो, आरक्षण इसलिए दिया जाता है. आरक्षण हमारे प्रतिनिधित्व को सुरक्षित करने के लिए प्रदान की गई ‘सामाजिक सुरक्षा’ है और इसके हम हक़दार हैं. इसलिए इस अनावश्यक अपराध-बोध को छोड़िये, और यदि संभव हो सके तो अनारक्षित श्रेणी में प्रवेश करने की कोशिश कीजिये, और यदि नही, तो आरक्षण का उपयोग कीजिये, जीवन में ऊपर बढ़िए और अपने समाज (समुदाय) के लिए कुछ कीजिये. पुनश्च, यह जरुरी नहीं है कि आप अपने समुदाय की मदद करें ही, लेकिन यदि आप ऐसा करते हैं तो ये अच्छा होगा. यदि आप यह समझ सको कि ब्राह्मणों का जाति-नेटवर्क किस तरह काम करता है, किस तरह एक-दूसरे की मदद करता है तो आपके मन में इस बात के प्रति जरा सा संदेह भी नही बचेगा कि हमें अपने समुदाय की यथासंभव मदद करनी चाहिए.
आरक्षण से उन स्थानों पर हमारा नेटवर्क तैयार होता है जहाँ हम पूरी तरह से अनुपस्थित हैं. आरक्षण की सहायता से सभी स्तरों पर हमारे प्रतिनिधित्व को सर्वाधिक प्रभावी ढंग से सुनिश्चित किया जा सकता है. आरक्षण से निर्णायक स्तर के पदों पर हमारे प्रतिनिधि पहुँच सकते हैं और इसकी सहायता से हम कुशल संसाधन-सृजन और संसाधन वितरण के लिए नीतियों के कार्यान्वयन में सकारात्मक हस्तक्षेप कर सकते हैं जिससे कि हमारे समाज के सबसे कमज़ोर सदस्यों का उत्थान हो सके. इसके अलावा, जब आप आरक्षण से मिलने वाली एक सीट को खारिज कर देते हैं तो इससे होता ये है कि एक ‘रिक्ति’ का सृजन होता है और उन संस्थाओं के धूर्त सवर्ण प्रबंधन के कारण अधिकाँशतः इन रिक्तियों का उपयोग सवर्ण कैंडिडेट्स को भर्ती करके कर लेते हैं. छोटे-छोटे कदम बड़ा प्रभाव पैदा करते हैं. आरक्षण का उपयोग करना एक ऐसा ही कदम है. इसलिए अगली बार जब कोई सवर्ण दोस्त अथवा अध्यापक अपनी बातों से आपके अन्दर कृत्रिम अपराधबोध जगाने की कोशिश करे तो उनका सामना कीजिये और अपना बचाव कीजिये और उनके मुंह पर ही उनको स्पष्ट जबाब दीजिये कि आरक्षण प्रतिनिधित्व और संरक्षण के लिए है और अपराधबोध ‘उन्हें’ महसूस होना चाहिए, न कि आपको.
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सुरेश आर वी चेन्नई से हैं एवं अन्ना विश्वविद्यालय से इन्जिनीरिंग के ग्रेजुएट हैं.
प्रस्तुत आर्टिकल मूलतः अंग्रेजी में है जो आरटीआई-अंग्रेजी वेबपोर्टल पर फरवरी 2017 में छपा था. इसका हिंदी में अनुवाद सुधीर अंबेडकर ने किया है. वह आगरा के एक सीनियर सेकेंडरी स्कूल में लेक्चरर हैं एवं स्वयम भी एक लेखक हैं.
इस आर्टिकल को अंग्रेजी में पढने के लिए यहाँ क्लिक करें.
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