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लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)

तलाक़, उर्दू, अलीगढ़, मदरसे, बाबरी मस्जिद आदि कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिसपे सारी अशराफिया मुस्लिम सियासत आ के खत्म हो जाती है. न इससे आगे कुछ सोचा जाता है न बात की जाती है. शिक्षा, रोज़गार, पसमांदा जैसे मुद्दे हमेशा ही इनके लिए दुसरे दर्जे के मुद्दे रहें हैं. अशराफिया मुस्लिम सियासत हमेशा ही मुस्लिम आरक्षण पे मुखर रहती है पर क्या इन्होंने जो संस्था बनाई है जैसे मुस्लिम पर्सनल लॉ, जमात ए उल्लेमा ए हिन्द आदि उसमें पसमांदा मुसलमानों को कोई आरक्षण दिया है? इन स्वघोषित मुस्लिम संस्थाओं में पसमांदा समाज का प्रतिनिधित्व कितना है?  

अभी हाल में आए तलाक के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने दुबारा मुस्लिम समाज को उन्ही जज़्बाती मुद्दों में ढकेल दिया है और सारे ज़रूरी सवाल पीछे छुट गए है. जहाँ एक ओर मुस्लिम समाज का एक तबका इस फैसले पर हाय-तौबा मचा रहा है वहीँ कुछ लोग इसे एतिहासिक फैसला मान रहे हैं. अगर हम इस फैसले की ही बात करें तो हम पाते हैं कि इस फैसले में कोई भी नई बात नहीं कही गई है जो पहले 2002 के फैसले में नहीं कही गई थी. तीन तलाक को सुप्रीम कोर्ट ने खत्म नहीं किया बल्कि एक बार में तीन तलाक को खत्म किया है. यानी तलाक वैलिड है. पर्सनल लॉ का अधिकार अभी भी जारी है. मुस्लिम समाज के ही कई ऐसे मसलक हैं जो एक साथ तीन तलाक देना सही नहीं मानते. पर ज़रूरी सवाल ये है कि इससे मुस्लिम लड़कियों को लाभ क्या होगा?  तलाक का चाहे जो भी प्रावधान बना लिया जाए पर तलाक को रोका नहीं जा सकता. अगर दो व्यक्ति एक साथ रहने के लिए तैयार नहीं हैं तो वो तलाक देंगे ही, पर बड़ा सवाल ये है की तलाक के बाद उस औरत के हिस्से में आया क्या? आज भी मुस्लिम समाज में तलाक के बाद गुज़ारा भत्ता देने का कोई प्रावधान नहीं है. मेहर के रूप में जो पैसे तैय किए जाते हैं (जो बहुत ही कम होतें हैं), बस उसे अदा करके पति अपनी सभी जिम्मेदारियों से आज़ाद हो जाता है.

मै आप को अपने शहर मऊ नाथ भंजन का एक उदाहरण देता हूँ बात 14-15 साल पहले की है मेरे ही एक दूर के मामा को जब पता चला की उनकी बीवी को (मेरी मामी को) कैंसर है तो उन्होंने उसे “इस्लामिक तरीके” से तीन अलग-अलग वक़्त में तलाक दे दिया और मेहर दे के अपनी सारी जिम्मेदारियों से आज़ाद भी हो गए, पर मेरी मामी ईलाज के अभाव में तड़प-तड़प के मर गईं. मेरे मामा को सभी ने बुरा-भला कहा पर इससे क्या मेरी मामी के अधिकार सुनिश्चित हुए? 

हमारी अशराफिया मुस्लिम कयादत एड़ी चोटी का जोर लगा कर इस घटिया व्यवस्था को इस्लाम धर्म का “essentiality test” के नाम पे बचा के रखना चाहती है. तो ये सवाल उठता है की वो ऐसा क्यों चाहती है?  दरसल ये अशराफिया मुस्लिम कयादत  हर उस बदलाव के खिलाफ है जिससे इनकी सत्ता कमज़ोर पड़ने का खतरा होता. ये न तो पसमांदा समाज को कोई अधिकार देना चाहती हैं न ही मुस्लिम औरतों को. ये मुस्लिम personal law को एक टूल की तरह इस्तेमाल करती हैं ताकि इनकी रक्त-शुद्धता और जाति-सर्वोच्चता बनी रहे. आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड कफू (बराबरी) के आधार पर मुस्लिम उच्च जाति का विवाह पसमांदा जाति में करना अवैध मानती है और इस प्रकार के विवाह को वर्जित करार देती है. (संदर्भ:पेज नं०-101-105,237-241, मजमूए कानूने इस्लामी, 5 वाँ एडिशन, 2011, प्रकाशक आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, 76A/1, ओखला मेन मार्किट, जामिया नगर, नई दिल्ली-110025, इंडिया). अगर इन फतवों-कानूनों पे आप बात करना चाहेंगे तो कहा जाएगा कि ये हमारा “essentiality test”  है जो सदियों से चला आ रहा है. इसमें किसी तरह की छेड़छाड़ इस्लाम में/से छेड़छाड़ है जिसे हम बर्दाश्त नहीं करेंगे. पर बहस तो यही है कि Personal  को Political  समझा जाए अर्थात अगर किसी समाज की रीति, कानून ऐसे हों जो किसी व्यक्ति के अधिकारों का हनन कर रहे हों तो उस वक़्त राज्य का ये कर्तव्य है की Personal rights को Political  मान कर उसपे खुद कानून बनाए. जैसा की हमने सती प्रथा, दहेज़ प्रथा आदि के खिलाफ देखा था.

यह सही है कि आज़ादी के बाद ये खतरा था कि कहीं बहुसंख्यक संस्कृति, अल्पसंख्यक संस्कृति के लिए घातक न हो जाए. इस खतरे को देखते हुए तथा मुस्लिम समाज के अन्दर विश्वास पैदा करने के लिए भारत को बहुसंस्कृतिवाद (multiculturalism) के सिद्धांत की ज़रूरत पड़ी. ये माना गया की सांस्कृतिक मामलों (तलाक, विवाह, सम्पत्ति का वितरण आदि) में अल्पसंख्यक समाज के पास पूर्ण स्वतंत्रता हो अर्थात राज्य विभेदीकृत कानून बनाए, एक ही देश में एक मुद्दे पे दो कानून हो. यही कारण है की भारत में पर्सनल लॉ का सिद्धान्त है जो अल्पसंख्यको को उनके सांस्कृतिक मसले पे कुछ विशेष सुविधा देता है. पर ये बहुसंस्कृतिवादी (multiculturalism)  सिद्धांत व्यक्तिगत अधिकार के लिए नहीं बल्कि समुदाय के अधिकार की रक्षा के लिए अस्तित्व में आया था. यहीं से ये सवाल पैदा होता है कि एक औरत और बच्चे को पहले इन्सान समझा जाए या फिर किसी समाज संस्कृति के हिस्से रूप में देखा जाए.

हमारी अशराफिया मुस्लिम कयादत नहीं चाहती की पर्सनल लॉ में कोई बदलाव हो क्योंकि पर्सनल लॉ को बनाने का काम समुदाय ही करता है और समुदाय के नाम पे समुदाय के धर्म के पंडित /ज्ञाता ही ये कानून बनाते हैं.

हमारी अशराफिया मुस्लिम कयादत नहीं चाहती की पर्सनल लॉ में कोई बदलाव हो क्योंकि पर्सनल लॉ को बनाने का काम समुदाय ही करता है और समुदाय के नाम पे समुदाय के धर्म के पंडित /ज्ञाता ही ये कानून बनाते हैं. अब अगर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बात करें (जो भारत में शरीयत की व्याख्या कर रही है) तो इसमें 90% से अधिक लोग मुस्लिम सवर्ण जातियों से आते हैं, और तो और 51 में से 46 executive member पुरुष ही हैं. इस शरिया की व्याख्या में महिलाओं का प्रतिनिधित्व तो न के बराबर ही है. इससे ये बात ज़ाहिर होती है कि पुरे मुस्लिम समाज के कानून बनाने की ज़िम्मेदारी अशराफ जातियों के उलेमा (पुरुष) के हाथों में है और बहुसंख्यक जनता जो की पसमांदा है उस को इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया है. इस अशराफिया वर्ग की पूरी कोशिश रहती है कि मुस्लिम समाज को जज़्बाती मुद्दों से जोड़े रहे क्योंकि ये जानते हैं कि जब समाज जज़्बाती होता है तो वो तार्किक नही हो पाता और हमेशा ही अपनी पहचान को लेके आशंकित और protective ही रहता है. ऐसा समाज हर सुधारवादी आन्दोलन को अपने धर्म-संस्कृति पे खतरे की तरह देखता है. अत: हम कह सकते हैं कि पर्सनल लॉ के ज़रिए अल्पसंख्यक आबादी के बहुसंख्यक हिस्से को अशराफिया मुस्लिम मर्दों की कयादत और सियासत के रहमो करम पे छोड़ दिया गया है जो इस्लाम की अपने अनुसार से व्याख्या करते आ रहे हैं. ‘इस्लाम खतरे में है’ के नारे के पीछे का सच यही है कि ये नही चाहते कि इनके हाथों से सत्ता निकल जाए. 

‘इस्लाम खतरे में है’ के नारे के पीछे का सच यही है कि ये नही चाहते कि इनके हाथों से सत्ता निकल जाए. 

यहाँ ये बात समझना ज़रूरी है कि कुरान के बरअक्स शरीयत क़ानून ईश्वरीय वाणी नहीं है. शरियत के मुख्यतः चार स्रोत हैं- 1 कुरान 2 सुन्नः , 3 इज्मा व 4 क़यास, जिन के आधार पे उलेमाओं की व्याख्या ही शरियत है. यही कारण है कि हमें विभिन्न मुस्लिम देशो में अलग-अलग शरियत देखने को मिल जाती है जबकि कुरान एक ही है जो कि संशोधन से परे है. यहाँ हमें एक बात और समझनी होगी कि समुदाय की आज़ादी व्यक्तिगत आज़ादी से बड़ी नहीं हो सकती. आकड़ें दिखा कर ये नहीं कहा जा सकता कि हमारे यहाँ शोषण बहुत कम है इसलिए जो मान्यता, परम्परा या कानून चले आ रहे हैं वह वैध और सही हैं. अगर किसी समुदाय की संस्कृति या कानून के कारण किसी एक व्यक्ति के अधिकार का भी हनन होता है तो उस कानून के खिलाफ खड़ा होना हमारा नैतिक कर्तव्य है.

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लेनिन मौदूदी लेखक हैं. पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं और अपने लेखन में दर्ज करते हैं.

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