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विकास वर्मा (Vikas Verma)

कुछ दिनों पहले मुम्बई में भारी बारिश हुई थी. जन जीवन दो-तीन दिन तक पूरी तरह अस्त व्यस्त रहा था. मुम्बई की ये समस्या मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पे छाई हुई थी कि- लोग किस तरह हताहत हुए? मुम्बई की गलियों में कितनी ऊंचाई तक पानी भर गया? लोग कहाँ कहाँ फंसे हुए हैं? कौन सी लाइन की लोकल गाड़ी चल रही है और कौन सी ठप है? लोगों ने एक दूसरे की मदद कैसे की? प्रशासन क्या कर रहा था? ये सब मुम्बई से दो हजार किलोमीटर दूर बैठे लोगों को चाहे न चाहे पता चल रहा था. और लोग अपने अपने तरीके से संवेदना भी व्यक्त कर रहे थे.

मुम्बई बारिश के कुछ ही दिनों पहले नार्थ ईस्ट और बिहार में भीषण बाढ़ आई थी. रिपोर्ट के अनुसार बिहार में बाढ़ से 250 लोगों की मृत्यु हुई थी और लगभग 1 करोड़ लोग प्रभावित हुए थे. असम की बात करें तो वहाँ के लोगों ने पिछले 29 सालों की सबसे भयानक बाढ़ का सामना किया. लेकिन बिहार-नार्थ ईस्ट की इन आपदाओं के बारे में बहुत कम लोगों को पता है. न्यूज़रूम्स में महज एक रोजमर्रा की समस्या की तरह इन ख़बरों की मुंह दिखाई की गयी और फिर इन्हें चलता कर दिया गया. सोशल मीडिया पे ये बस व्यंग्यात्मक कार्टूनों में दिखाई पड़े जिनमें जब मीडिया ध्यान नहीं देता है, तो गले तक पानी में डूबा हुआ आदमी मीडिया वालों की तरफ देखकर चिल्लाता है, “देखो गाय डूब गयी है यहाँ” और ये सुनकर सारे मीडिया वाले उधर पहुँचने लगते हैं. 

मसला ये है कि जहाँ मुम्बई वाली बारिश में पूरा राष्ट्रीय मीडिया भीग गया था वहीँ बिहार और असम की भीषण बाढ़ में फंसे करोड़ों लोगों की सुध तक न ली किसी ने. बहुत से लोगों ने इस तरह के ऐटिट्यूड पर प्रश्न भी उठाये. अधिकतर लोगों ने इसे हिपॉक्रिसी कहा कि बात बड़े शहरों की हो तो लोग बहुत जल्दी आंसू बहाते हैं, लेकिन जगह छोटी हो तो किसी के कान पर जूँ तक नही रेंगती.

ऐसा अंतर आता क्यों है? हिपॉक्रिसी की वजह से या कुछ और ही कारण है?

ढूंढेंगे तो पाएंगे कि उत्तर बहुत सिम्पल सा है, “प्रतिनिधित्व या रिप्रजेंटेशन में अंतर के कारण”.

इस जवाब पर हैरान होने की जरूरत नहीं है. थोड़ा सोचेंगे तो खुद ब खुद समझ आ जायेगा.

दरअसल मीडिया, सोशल मीडिया पर कब्जा बड़े शहरों का है. इस आभासी दुनिया में ज्यादातर लोग यहीं के हैं, या कह लें कि ज्यादातर प्रभावशाली लोग बड़े शहरों से आते हैं. जैसे ही यहाँ कोई समस्या आती है. सारे न्यूज़ रूम्स, फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर फ़ैल जाती है. न्यूज़ चैनलों पर वही चलने लगता है क्योंकि चैनल वाला ऑफिस पहुँचने में उस समस्या से जूझकर आया है. उद्योगपति लोग ऑफिस में फंस जाते हैं और उनके बच्चे कॉलेज में. IT कम्पनी दो दिन सही से नही चली, बिजनेस का नुकसान हो गया तो उनके मालिक मीडिया से लेकर मंत्रालय तक हिला डालते हैं. मंत्रीजी के घर वाले भी शहर में ही रहते हैं, उनको नाश्ते में केवल ब्रेड से गुजारा करना पड़ा, तो समस्या संसद तक पहुँच जाती है. इस तरह बड़े शहरों के लोगों की समस्या सड़कों से निकलकर, लोगों के घरों, बड़े बड़े दफ्तरों, मीडिया के गलियारों से होते हुए संसद तक पहुँचकर देश की समस्या बन जाती है.

अगर यही या इससे भी बड़ी समस्या बिहार, यूपी और असम के गाँव और कस्बों में आन पड़े तो क्या होता है? किसी का घर बह गया, वो रो रहा है, लेकिन सुनने वाला कोई नही. कोई सुनने वाला है, तो वो खुद भी रो रहा है क्योंकि उसका बच्चा नहीं मिल रहा. उन दोनों का रोना तीसरा सुन रहा है, तो वो खुद परेशान है, उसके जानवर खो गए हैं. पूरा गाँव रो रहा है क्योंकि खेतों का अनाज नष्ट हो गया. उनकी बात आगे पहुँचाने वाला कोई नहीं. सोशल मीडिया पर वहाँ दो चार लोग हैं भी तो उन्हें फॉलो करने वाला कोई नही. फॉलो करने वाले हैं भी तो मोबाइल बन्द पड़े हैं. कुल मिलाकर उनका लगभग सारा दर्द वहीँ रह जाता है. मीडिया वाले और नेताजी हेलीकॉप्टर से आते हैं और फ़ोटो लेकर चले जाते हैं, हेलीकॉप्टर की घड़ घड़ में वैसे भी किसी के रोने की आवाज सुनाई नही देती, बाढ़ के पानी में सबके शरीर गीले रहते हैं तो बहने वाले आंसू भी समझ न आएंगे. किसी को रोना समझ भी आ जाए, तो वो दृश्य देखकर उमड़ी दया की भावनाएं ऑफिस तक पहुंचकर एडिटिंग करते समय तक नार्मल लेवल पर आ जाएँगी.

कहने का मतलब इतना है कि यह सब नैचुरल है. लेकिन इस नेचुरल के पीछे अननेचुरल खेल है. इसमें नेचुरल अननेचुरल के बीच की खाई यहाँ की जाति वयवस्था है और यहीं से हाशिया और केंद्र पैदा होते हैं. यहाँ केंद्र पूरे मुल्क की नुमाईंदगी करता है. सिस्टम का रोबोट उसके इशारे पर गतिशील होता है. सो, जिसका प्रतिनिधित्व सामाजिक, राजनीतिक, व्यापारिक व्यवस्था में ज्यादा है, उसके आंसू का एक कतरा भी देश का शोक बन जायेगा और जिसका प्रतिनिधित्व कम है उसकी ज़िन्दगी भर की प्रताड़नाओं को भी कोई न पूछेगा. ऐसा इसलिए क्योंकि एक तरफ के कष्टों को दुनिया भर में सुनाने के लिए सैकड़ों लोग होंगे वहीँ सैंकडों के पास अपनी समस्या आगे सुनाने के लिए एक इंसान भी मिलना मुश्किल होगा. छोटी कही जाने वाली जातियों जीवन समस्याओं से अभिशप्त कर दिए गए हैं. शोषण होना रोज़मर्रा की बात है. उनका दुःख दर्द ऊंची कही जाने वाली जातियों का सिस्टम क्यूँ सुनेगा? मीडिया, न्याय व्यवस्था और व्यापर में बड़ी कही जाने वाली जातियों का वर्चस्व है. वहां छोटी जातियाँ नाममात्र को. श्रेणीबद्द वयवस्था में राज्य भी उसी आँख से देखे जाते हैं. ऐसे में बिहार की बाढ़ और मुंबई की बाढ़ में फर्क होगा. ऊंची जाति की समस्या ही दरअसल समस्या बताई जाएगी. उनपर व्यापक बहस होगी लेकिन परोसी वो सभी जातियों को जाएगी. वहीँ शोषितों की समस्याएं केवल वोट पाने के लिए उठाई जाती हैं और वोट मिलते ही ठन्डे बस्ते में डाल दी जाती हैं, समस्या के हल से किसी को ख़ास मतलब नही बचता.

इसलिए प्रतिनिधित्व के महत्त्व को समझना होगा. सामाजिक न्याय के लिए यह सबसे ज्यादा जरुरी है. आपकी समस्या और दृष्टिकोण सबके ध्यान में तब ही आयेंगे जब आप खुद बताने के लिए खड़े हों और आपके साथ आप जैसे दूसरे उस आवाज में कोरस डाल रहे हों. आपके समाज की समस्या दूसरा आदमी नही समझ पायेगा. समझ भी जायेगा तो लड़ नही पायेगा. लड़ना शुरू भी कर देगा तो जारी नही रख पायेगा. उसकी अपनी प्राथमिकताएं होंगी, जो आपसे अलग होंगी, अपवादों की बात अलग है. इंसान की प्रवृत्ति यही है, दूर रहने वालों की समस्याओं से फर्क बहुत कम या फिर नही पड़ता है. और मुद्दे की बात तो यह है कि हमारी जुबान होते हुए, दूसरा हमारे बारे में क्यूँ बोले? उसका दायित्व बनता है व्यवस्था के विभागों को लोकतान्त्रिक बनाने की. संविधान की नज़र में सब बराबर हैं. ऐसे में मीडिया किसी की निजी जागीर कहाँ से हो गया? बहुजन राजनीति के आन्दोलन के अर्थ हाशिया पर धकेली जातियों और जानबूझकर नज़रंदाज़ कर दिए गए राज्यों से ही निकलेंगे.

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विकास वर्मा पेशे से एक इंजिनियर हैं एवं सामाजिक न्याय के पक्ष में लिखते हैं.

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