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गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad)

खबर पंजाब से है और अच्छी है. बठिंडा-फरीदकोट हाईवे पर हिंदी और अंग्रेजी में लिखे राह-ईशारा तख्तियों पर रंग पोत दिया गया है. इन तख्तियों पर या तो पंजाबी भाषा में लिखे शहर के नाम अंग्रेजी और हिंदी में लिखे नाम के नीचे थे या फिर पंजाबी में लिखे ही नहीं गए. हिंदी-अंग्रेजी में लिखे नामों को पुताई से ढक के उसपर परचा चस्पा कर दिया गया है जिसपर पंजाबी भाषा में लिखा है ‘पंजाबी को पहले नंबर पर लिखो’. मेरे लिए यह सुखद घटना है. ये ज़रूरी और क्रन्तिकारी काम करने वाले कौन हैं, मेरे पास खबर नहीं है. लेकिन यह जिन्होंने भी किया है उनके दिमाग ज़रूर चेतनशील होंगे. ऐसा क्यूँ? इस पर बात करते हैं, थोड़ा इतिहास में जाते हैं.

भारत का संविधान अपने आर्टिकल 343 के ज़रिये हिंदी भाषा को भारत सरकार की दफ्तरी भाषा के तौर पर नियत करता है. हमें याद रखना चाहिए कि संविधान के अनुसार भारत की कोई भी राष्ट्रीय भाषा नहीं है. यानि कि हिंदी इंडियन यूनियन की दफ्तरी भाषा है. राज्यों को यह अधिकार है कि वह अपने वहां बोली-समझे जाने वाली भाषा को दफ्तरी भाषा बनायें.

पिछले सत्तर साल पर अगर निगाह मारें तो पता चलता है कि भारतीय केंद्र सरकारें हिंदी भाषा को राज्यों पर थोपने को अमादा रही हैं. हालांकि हिंदी को पूरे भारत में सभी राज्यों पर थोपने की साजिश बहुत पुरानी है. एक सुनियोजित तरीके से कई ऑपरेशन किये गए हैं जिसके तले हिंदी, हिन्दू, हिंदुस्तान को उभारने का मामला है. हिन्दू, हिंदी, हिंदुस्तान एक दूजे के पूरक है. एक शब्द के अर्थ दुसरे शब्द के अर्थ का सहारा है. इसका ब्राह्मण दृष्टिकोण से वाक्य में प्रयोग कुछ यूँ होगा- हिंदुस्तान में हिन्दू रहते हैं जो हिंदी भाषा बोलते हैं. इसका दूसरा मतलब यह है जो कि कभी कहा नहीं जाएगा कि- दूसरी भाषाएँ गोण हैं, दुसरे तीसरे दर्जे की हैं. यानि श्रेणी में नीचे आती हैं. बोलने वाले लोग माइनॉरिटी में हैं. सो, हिंदी सुप्रीम है. ब्राह्मणवादी तंत्र हर चीज़ में श्रेणी घुसेड़ कर मायनों को बिगाड़ने करने में उस्ताद है. यहाँ, हिन्दू मतलब धर्म! जिसमें वर्णव्यवस्था है. उस वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊँचे है ब्राह्मण. यानि हिंदी भाषा के ज़रिये पूरे भारत पर ब्राह्मण की मोनोपोली, यानि इजारेदारी, एकाधिकार. यह भी काबिले-गौर बात है कि हिन्दू केटेगरी कैसे बनी और किस तरह से अलग अलग मान्यताओं को मानने वाले समूहों को हिन्दू धारा/धर्म में खींच लिया गया. खैर!

sign board punjab painted

भारत दरअसल बहुजनों की ज़मीन है. यहाँ विविधता भरी पड़ी है और यह खांटी प्राकृतिक है. ये भाषाएँ किसी भी तरह की एकता में बाधा नहीं. ब्राह्मणवादी भारत में एकता/अखंडता के मायने बेहद राजनीतिक हैं जिससे कुदरत का लेना देना नहीं है. एकता अगर चाहिए भी तो वह एक ख़ास भाषाई क्षेत्र में अपनी जड़ों व् उन्हें महफूज़ रखने और जीवन से जुड़े कार्यों को आसान बनाने के लिए की गई मेहनत और जद्दोजेहद की कवायद से आती है. ये राष्ट्रवाद का झुनझुना बजाने से नहीं आती. अपने इर्द-गिर्द के समाज को अपनी कुदरती जड़ की चिंता होगी तो दुसरे की जड़ों का आदर भी होगा ही. दूसरी बात, अगर यह विविधता अपनी भाषा, लोकगीत, नाच, संस्कृति और काम करने के तरीकों के साथ जिंदा रहे तो किसी मुल्क के भूगोलिक नक़्शे की बनावटी सरहद पर कोई कहर टूटने वाला नहीं है. इस विविधता की रीढ़ की हड्डी होती है भाषा. दो भाषाओँ का जबरदस्ती मेल-के-खेल का मतलब है उसमें से एक भाषा घोड़ा बनेगी और दूसरी उसपर सवार होगी. इस खेल में तय होता है कि सवार किसे होना है. भारत के सन्दर्भ में यह भाषा हिंदी है. यानि जिस भाषा पर हिंदी भाषा सवार होगी वह उसे अपने कल्चर, लोकगीत, रोज़मर्रा के रिवाजों तक अनजाने ही घुसपैठ करवा देगी. फिर हिंदी भाषा को अनेकों तरीकों से वहां फिट कर दिया जायेगा. वहाँ का असली और ज़मीनी कल्चर या तो हिंदी की भेंट चढ़ेगा या हिंदी उसे अपने भीतर जज़ब करके अपने मुताबिक ढाल लेगी. इस हिंदी के पीछे ब्राह्मणवादी इजारेदारी है. हिंदी सिने जगत में ऐसे बेशुमार गाने हैं जो मूलतः किसी क्षेत्र की लोकल भाषा से उठाए गए हैं लेकिन उनका इस्तेमाल बिना कोई क्रेडिट दिए हो रहा है. कथित गीतकार अपना नाम चमका रहे हैं. बहुत से बहुजन नृत्य हिंदी कल्चर ने उगाह लिए हैं. कथित मेनस्ट्रीम में वह अब कथित ऊँची जाति वालों की ‘मेरिट’ बन चुके हैं.

कोई भी भाषा के खराब होने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. लेकिन जब यह भाषा एक औज़ार की तरह दूसरी सभ्यताओं को बर्बाद करने के लिए या हड़प लेने के इरादे से बनाई या इस्तेमाल की जाती है, तब वह तोप-तलवार से भी खतरनाक साबित होती है.

पंजाबी भाषा में किसी ने कहा है जिसका हिंदी अनुवाद कुछ यूं है ‘माँ बोली अगर भूल जाओगे, तो तिनकों की तरह बिखर जाओगे.’ इसका विशेष महत्त्व इसलिए भी है क्यूंकि यहाँ जन्मे सिख पंथ का पूरा इतिहास पंजाबी भाषा की ज़मीन पर खड़ा है. सिख पंथ का ब्राह्मण से विरोध संत रविदास, संत कबीर और गुरु नानक साहेब से परंपरागत तरीके से चला आ रहा है. यह चलन ज़मीनी तौर पर ब्राह्मणवादी-केंद्र यानि ब्राह्मणवादी-राष्ट्रवाद के कतई अनुरूप नहीं है.

सो, पंजाब को हिंदी के ज़रिये हिन्दुआइज़ करने यानि अपनी मिटटी से उखाड़ने की लम्बी कवायद चली है. इतिहास में बहुत सी गड़बड़ियाँ हुईं जिसकी जानकारी सबको होनी चाहिए और सभी बहुजनों को इसका नोटिस लेना चाहिए.

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हिंदी भाषा को एक औज़ार की तरह इस्तेमाल करने की योजना अंग्रेजों के जाने से बहुत पहले से है. बंकिम चैटर्जी ने एक वक़्त में खुल कर कहा कि- अब हमें हिंदी सीखना शुरू कर देना चाहिए. आखिर उन्हें अचानक से ऐसा क्यूँ कहना पड़ा? 

भारतीय नेशनलिज्म जो कि ब्राह्मण/सवर्णों का राष्ट्रवाद है, को निर्मित करने के लिए भारत की विविधता को हिन्दू चोखटे में लाना उनके लिए ज़रूरी था. आर्य समाजी लाला लाजपत राय जो पंजाबी और फारसी के ज्ञाता थे, ने अपने भाषण हिंदी में देना शुरू कर दिया जब कि वह हिंदी लिखना पढना नहीं जानते थे. यह सब अपवादस्वरूप नहीं हो रहा था.

लेकिन, धीरे धीरे, पंजाब में हिंदी के समर्थन में लेफ्ट वाले भी आ गए थे, क्यूंकि उनकी विचारधारा भी नेशनलिज्म से जुड़ी थी. वे भी भारतीय विविधता को एक सूत्र में बाँधने के पक्षधर थे. ऐसे में सरदार भगत सिंह भी हिंदी के पक्ष में खड़े हो गए.

बम्बई, 1926 में, लज्जा राम मेहता नाम के लेखक ने बीसवीं सदी में हिंदी के भविष्य को लेकर टिपण्णी की. शब्द हाज़िर हैं-

‘अब वह दिन दूर नहीं जब हिंदी भारत के एक कोने से दुसरे कोने तक सफ़र करेगी. भारतीय जो विभिन्न विभिन्न भाषाएँ बोलते हैं वह अपनी भाषाओँ में सुधार करेंगे तो वह झुके सिरों और जुड़े हुए हाथों से हिंदी के लिए आरती करेंगे. और उर्दू अपने आपको हिंदी की छोटी बहन और यदि किसी को एतराज़ हो तो हिंदी की बड़ी बहन बनकर हिंदी के पक्ष में खड़े होकर खुद को कुर्बान करेगी. और राज्य की भाषा अंग्रेजी अपने ठाठ बाठ और सम्मान के साथ हिंदी को फूलों के हार पहनाएगी.’ अंग्रेजों के भारत छोड़ने से इक्कीस बरस पहले हिंदी भाषा के लिए पूरी फील्डिंग सेट कर दी गई दिखाई पड़ती है.

स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा चलाये आर्य समाज ने हिंदी को आगे बढ़ाने में पूरी भ्रष्टाचारी से काम लिया. इसका जीता जागता उदाहरण वह इश्तिहार है जो 1931 की जनगणना से पहले लाहोर के करीब आर्य समाज की वच्छोवाल यूनिट ने बड़े स्तर पर छाप कर बाँटा. नीचे उस इश्तिहार की हुबहू नक़ल है.

याद रखो !

जनगणना का काम आरंभ हो चुका है 

सवाल: आपका जवाब यह होना चाहिए 

धर्म: वैदिक धर्म 

संप्रदाय: आर्य समाज 

जाति: कोई नहीं 

नस्ल: आर्य

भाषा: आर्य भाषा (हिंदी)

- मर्दमशुमारी कमेटी, आर्य समाज, वच्छोवाल, लाहोर 

जनगणना के आंकड़ों पर इस तरह के प्रोपेगंडे का जो पभाव पड़ा उस के बारे में जनगणना स्टाफ के सुप्रिनटेनडेंट अहमद हसन खान ने अपनी रिपोर्ट में यह बात खुल कर क़ुबूल की कि, “इस में कोई शक नहीं कि इस तरह की प्रचार्बाज़ी का कुछ असर ज़रूर हुआ, ख़ास तौर पर शहरी क्षेत्र के आंकड़ों पर. कई जिलों के जिला अफसरों ने अपनी रिपोर्ट में यह ज़िक्र किया है कि कुछ अच्छे भले पंजाबी बोलते क्षेत्रों में काफी सारे हिन्दू और मुसलामानों ने हिंदी या उर्दू को अपनी मातृभाषा के तौर पर दर्ज करवाने की ज़िद की. गुजरांवाला जिले के एक कसबे में मुझे खुद कुछ ऐसे लोगों से उलझना पड़ा जिनके पास ऊपर दर्ज (आर्य समाजी) इश्तिहार था और जो पंजाबी की जगह हिंदी को अपनी मातृभाषा लिखवाना चाहते थे. मेरे मन में इस को लेकर कोई संदेह नहीं कि बहुत से लोगों ने पंजाबी को छोड़कर उर्दू या हिंदी को अपनी मातृभाषा के तौर पर दर्ज करवाया है.”1 1941 की जनगणना के दौरान भी यही सब दोहराया गया जिस वजह से अधिकारीयों को भाषा से संबंधित आंकड़ों की तालिका तैयार करने का काम ही त्याग देना पड़ा. भारत की जनगणना के कमिश्नर (W.M.Yeats) ने अपनी रिपोर्ट में खुलकर यह माना कि, “जहाँ कहीं भी उर्दू हिंदी की दिक्कत आई है, वहाँ जनगणना के आंकड़े बेमतलब बन के रह गए हैं.”2 इसका सीधा सा मतलब यह था कि पंजाब को उसकी भाषा पंजाबी से मुक्त करना है. यदि यह हो गया तो पंजाब भी एक हिन्दू राष्ट्र का महज़ हिस्सा बनके रह जायेगा जिसके अर्थ होंगे कि वहाँ सिख पंथ का ब्राह्मणवाद के खिलाफ जो इतिहास है वह नष्ट करके ब्राह्मण सत्ता के पक्षधर नेरेटिव अलग अलग माध्यमों से आने वाली पीढ़ियों के सामने परोस दिए जायेंगे.

कमोबेश यही हाल भारत के अन्य राज्यों का भी हुआ. क्यूंकि हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं थी (है) इसलिए इसे ज्यादा से ज्यादा वहीँ लागू करवाया जा सकता था जहाँ यह भाषा बोली जाए. अलग अलग राज्यों में हिंदी की घुसपेठ के प्रति नाराज़गी और गुस्सा सामने आने लगा. 1950 ही में अकाली दल के नेतृतव में पंजाबी सूबा मूवमेंट चली जिसका मकसद भाषा के मुद्दे को हल करके पंजाबी भाषा को पंजाब की दफ्तरी भाषा का दर्जा दिलवाना था. भारत सरकार ने इसे 1955 में प्रतिबंध लगा दिया. शांतिपूर्वक पर्दर्शन करते लोगों पर लाठियां भांजी गईं. निर्दोष लोगों को पुलिस ने उठा लिया और थानों में ज़लील किया गया और बुरी तरह से मारापीटा गया. पंजाब में इमरजेंसी लगाई गई. ऐसे में स्टेट रीऑर्गनाईज़ेशन कमीशन दिसम्बर 1953 में गठित हुआ. अच्छे खासे पंजाबी बोलते हिन्दू आर्य समाज के बहकावे में हिंदीभाषी हो गए. वे आज भी बहकावे में ही हैं. ऐसे में पंजाब रीऑर्गनाईज़ेशन एक्ट के चलते 1966 में पंजाब से भाषा के आधार पर ज़मीन लेकर हिमाचल प्रदेश और हरियाणा बना दिए गए. यह मुकाम भी यूं ही हासिल नहीं हो गया था. इस कंटे-छंटे पंजाब के लिए भी, पंजाबी भाषा के लिए बेशुमार कुर्बानियाँ दी गईं हैं.

1978 में भारत सरकार ने एक हिंदी की सरकारी त्रैमासिक पत्रिका ‘राजभाषा भारती’ नाम से निकाली. मैगज़ीन अपने अंकों में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बड़े योजनाबद्ध तरीके से बताती रही है. आर्य समाजी लाला जगत नारायण जो पंजाब केसरी के संपादक थे, अखबार में खुले तौर पर अपनी संपादकी में लिखते रहे कि सभी हिन्दुओं को अपनी भाषा हिंदी लिखवानी चाहिए. पंजाब केसरी ने पंजाब को हिन्दूरंग में रंगने में कोई कसर नहीं छोड़ी. उन्हें सरकार का पूरा समर्थन था. 1981 में उनका क़त्ल कर दिया गया. खालिस्तान आन्दोलन पर उनकी हत्या का इलज़ाम आया. जरनैल सिंह भिंडरावाले इसी लिए गिरफ्तार किये गए थे.

1982 में धर्म युद्ध मोर्चा का एलान हुआ. अभी तक की केंद्र सरकार के रुख को देखकर भिंडरावाले समझ गए थे कि जब तक केंद्र है पंजाब महफूज़ नहीं. इसीलिए उन्होंने अलग राज्य की मांग की. यह मांग पहले से ही चल रही थी जिसकी वकालत बाबा साहेब आंबेडकर ने भी की थी. लेकिन अब यह खालिस्तान की तर्ज़ पर आई. यानि कि मुकम्मल आज़ादी. 1984 में हुआ ऑपरेशन ब्लू स्टार, इंदिरा गाँधी का क़त्ल, सिखों की दिल्ली और अन्य राज्यों में नस्लकुशी की भयावह वारदातें, ऑपरेशन ब्लैक थंडर एक और दो; और 1995 में खालिस्तानियों द्वारा उस वक़्त पंजाब के मुख्यमंत्री का क़त्ल, और इसी दौर हज़ारों लाखों सिखों की सरकारी मशीनरी द्वारा हत्याएँ, सब आपस में गहरे से जुड़े हुए किस्से हैं, जिनका ज़िक्र कभी विस्तार से करूंगा. लेकिन सजीशें अभी भी जारी हैं. ऐसे में हिंदी-अंग्रेजी में लिखी तख्तियों पर एक गहरे-से एहसास से कोई कालिख पोत दे तो उन्हें सलाम करना तो बनता है.

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सन्दर्भ -
1. Kulwant Singh Virk. M.A., Harbans Singh M.A., Greater East Punjab: A Plea for Linguistic Regrouping, p.43
2. Ditto 

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गुरिंदर आज़ाद राउंड टेबल इंडिया, हिंदी के संपादक हैं.

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