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ऋषिकेश देवेंद्र खाकसे (Hrishikesh Devendra Khakse)

khakseजीवन के लगभग हरेक क्षेत्र मे प्रतिगामी विचारधारा का नायकत्व विद्यमान है. टेलीव्हिजन, फिल्म तथा माध्यम जगत का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है. इस मूलतत्ववादी विचारधारा को संचालित करने वाला प्रस्थापित वर्ग, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से तय विचारधारा को टेलीव्हिजन तथा फिल्म माध्यम के फॉर्म से भूमिका, विशेषणों, प्रतीक, स्थल आदी द्वारा प्रस्तुत करता है. फिल्म मे किरदारों के नाम, उपनाम, उनकी जाती, धर्म, जीवनशैली, घर, बस्ती, प्रतीक, परंपरा, रीति-रिवाज़, संस्कृति आदी जैसे कई उदाहरण हम ले सकते है जिसमे आम तौर पर हमे यह देखने को मिलेगा कि, यह सब सोचे-समझे वैशिष्ट्यपूर्ण तरीके से निर्धारित फॉर्म मे दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया जाता है. चूंकि अनुकरण एक स्वाभाविक मानवी गुणधर्म है इसीलिए टीव्ही या फ़िल्मों मे दिखाया जाने वाला यह मूलतत्ववादी विचार-दर्शन, मनोरंजन से बढ़कर एक आम दर्शक के मस्तिष्क कि सचेतन एवं अवचेतन अवस्था मे चिंतन कि प्रक्रिया को भी प्रभावित करता है, जिससे उसके समूचे व्यक्तित्व तथा व्यवहार पर भी काफ़ी हद तक परिणामकारक बदलाव भी होते है. इन माध्यमों मे दिखाई जाने वाले अलग-अलग घटकों कि समीक्षा वह अपनी निजी या सामाजिक जीवन के धरातल पर स्वयं कि चिंतन प्रक्रिया मे करता है. दरअसल वह इस मनोरंजन से स्वयं के मन-मस्तिष्क मे काल्पनिक तथा भौतिक धरातल पर अपनी बुद्धिमत्ता की मर्यादाओं मे आकलन कर एक विशिष्ट अवधारणा को जन्म ही नहीं देता बल्कि उसे वृद्धिंगत करने कि भी कोशिश करता है. कुल मिलाकर टेलीव्हिजन, फ़िल्म और माध्यमों का यह संसार भारत में एक खास सांस्कृतिक राजनीति को विकसित करने मे मददगार साबित होता है. 

भारतीय फ़िल्मों मे उपेक्षित घटकों के सामाजिक जीवन एवं अनुभवविश्व का वास्तववादी चित्रण आम तौर पर पर्याप्त मात्रा मे सही तरीक़े से देखने को नहीं मिलता. फ़िल्म इंडस्ट्री मे ब्राह्मणवादी विचारों का नायकत्व, मुनाफ़ा कमानेवाला उद्यम का स्वरूप, उपेक्षित घटकों का फ़िल्म कि दुनिया मे कम या न के बराबर प्रतिनिधित्व, उपेक्षित घटकों के पास साधन-संसाधन कि अनुपलब्धता कि वजह से उपेक्षित समाज कि सही तस्वीर भारतीय सिनेमा मे उभरते हुए नहीं दिखती. आम तौर पर फ़िल्मों मे दलित अस्मितावाद का चित्रण एवं चिंतन महज़ एक उदारवादी दृष्टिकोण से किया हुआ नज़र आता है. बॉलीवुड में दलित कार्ड खेल रही कई ऐसी भी फिल्में हैं, भले ही उसका मतलब अच्छा हो, लेकिन अंत में फ़िल्मों का अर्थ-औचित्य स्पष्ट रूप से दर्शकों के सामने नहीं आता. फ़िल्मों मे दिखाए जाने वाले दलितों के सामाजिक उत्पीड़नों के पीछे का कारण, इसमे ऊंची जतियों कि छुपी बुनियादी महत्वाकांक्षा, सांस्कृतिक राजनीति आदी फ़िल्मों के जरिए दर्शकों के सामने कारगर रूप से प्रस्तुत करने मे भी फ़िल्मे असमर्थ रही है. लेकिन कुछ फ़िल्मे अपवाद भी रही है. भारतीय फ़िल्मों के विकास की प्रक्रिया मे सर्वहारा शोषित समाज के समग्र शोषण को समयोपरि एक मर्यादित दायरें मे कुछ फ़िल्म मेकर ने तवज्जू देने की कोशिश तो की है. लेकिन वैचारिक परिपेक्ष्य में प्रायोगिक तथा यथार्थवादी धरातल पर दलित, आदिवासियों के शोषण के पीछे का कारण और उपायों पर पटकथा बनाकर दर्शकों का प्रबोधन करने पर अब फ़िल्म मेकर्स को ध्यान देना होगा, अपितु मार्केट कल्चर से आगे बढ़कर, जनतंत्र को मजबूत करने हेतु यह उनका नैतिक उत्तरदायित्व भी है. बहरहाल इस सारे परिपेक्ष्य में बेहतर होगा कि भारतीय फ़िल्मों में आंबेडकरी वैचारिक संवेदना रखने वाले किरदार की सैंद्धांतिक समीक्षा ‘आंबेडकरी दर्शन-दिग्दर्शन’ के परिपेक्ष्य में करनी जरूरी होगी. 

 ‘दृश्यम फ़िल्म्स’ प्रॉडक्शन कि अमित मासुरकर द्वारा लिखित एवं दिग्दर्शित ड्रामा तथा ब्लैक कॉमेडी फ़िल्म ‘न्यूटन’ भारतीय सिनेमा इतिहास के विकास प्रक्रिया मे कई मायनों मे प्रबोधन कि दृष्टिसे महत्वपूर्ण है. इस फ़िल्म मे फ़िल्माया गया पहला महत्वपूर्ण किरदार ‘न्यूटन’ (राजकुमार राव) जो सरकारी राजस्व विभाग में क्लर्क है तथा छत्तीसगढ़ में नक्सली प्रभावित जंगल से घिरे एक गांव में लोकसभा का चुनाव कराने चुनाव अधिकारी के रूप में अपने सहयोगी कर्मचारी लोकनाथ (रघुवीर यादव) के साथ ड्यूटी पर भेजें जाते है, दूसरा महत्वपूर्ण किरदार स्थानीय आदिवासी लड़की और पेशे से शिक्षिका ‘माल्को’ (अंजली पाटिल) का है जो बूथ लेवल ऑफिसर के रूप में चुनावी प्रक्रिया दौरान नियुक्त कि जाती है. फ़िल्म मे दिखाए अनुसार ‘न्यूटन’ के लिव्हिंग रूम में दीवार पर अटकी आधुनिक भारत के निर्माता डॉ. बाबासाहब आंबेडकर कि तस्वीर से दर्शकों के लिए यह समझ लेना आसान होगा कि, नूतन कुमार अर्थात ‘न्यूटन’ दलित है. लेकिन ‘न्यूटन’ पर डॉ. आंबेडकर का वैचारिक प्रभाव, जिसके फलस्वरूप ‘न्यूटन’ कि परिपक्व हुई चिंतन प्रक्रिया, डेमॉक्रेटिक एटिट्यूड और समग्र व्यवस्था कि तरफ के उसके नज़रिये को समझने के लिए आंबेडकरी विचारधारा को समझना अनिवार्य है.  साथ ही ‘मालको’ कि चिंतन प्रक्रिया, पूरे फ़िल्म का केंद्रीय विषय ‘राजनीतिक जनतंत्र’, इसके अलावा बाकी किरदारों के विरोधाभासी विचार यह सारा समझने के बावजूद ही दर्शक फ़िल्म के बारे मे सटीक आंकलन कर सकते है. newton movie

दरअसल डॉ. आंबेडकर का नाम लिए बगैर या तस्वीर दिखाए बिना इस देश के अंदर ‘जनतंत्र’ कि बात केवल फ़िल्मों मे ही नहीं, जमीन पर भी हो ही नहीं सकती. इसका कारण जानने के लिए भारत में संवैधानिक विकास प्रक्रिया के दौरान डॉ. आंबेडकर ने समयोपरि रखें  कुछ मौलिक विचारों को हमे समझना अनिवार्य होगा. संवैधानिक सभा में अपने अंतिम भाषण के दौरान डॉ. आंबेडकर, भारतीय जनतंत्र के भविष्य को क्षति पहुँचाने वाले तीसरे खतरे के बारे स्पष्ट रूप से कहते है कि, “हमारे सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हम कितने समय तक समानता नकारने वाले है? यदि हम और समय तक समानता नकारते रहे, तो हमारे राजनीतिक जनतंत्र को हम खतरें में ला सकतें हैं. इस विसंगति को जितना हो सके उतने जल्दी हमे दूर करना होगा. अन्यथा वे, जो विषमता के दुष्परिणामों को सहतें आ रहे है, वे इस सभा ने अथक प्रयासों से निर्माण किए हुए राजनीतिक जनतंत्र के ढांचे को नेस्तानाभूत कर देंगे.” इस देश मे आज़ादी के बाद वह कौनसा तबका है जो राजनीतिक जनतंत्र (One Man One Vote) से सामाजिक तनतंत्र (One Man One Value) कि स्थापना के लिए हमेशा आग्रही रहा हो? जाहिर है, Depressed/Marginalized/Subaltern/Backward दलित आदिवासी शोषित तबक़ा. दरअसल इस दलित, आदिवासी शोषित सर्वहारा समाज के तबके को जनतंत्र से ज्यादा उम्मीदें इसलिए है क्योंकि, वह उनके मुक्ति का एक कारगर साधन तो है ही, दूसरा सामाजिक जनतंत्र के स्थापित होने के फलस्वरूप उनमें राष्ट्र होने की भावना ज्यादा वृद्धिंगत होगी. यदि ऐसा नही होता तो उनके मन मे पृथक अस्तित्व की भावना सदा बनी रह सकती है. मुद्दा यह है कि, राजनीतिक जनतंत्र से सामाजिक और आर्थिक दूरियां मिटाकर सामाजिक जनतंत्र को स्थापित करने कि जिम्मेदारी आखिर है किसकी? इसके लिए डॉ. आंबेडकर सत्ताधारी वर्ग, संवैधानिक संस्थाएँ तथा राजनीतिक दलों को जिम्मेदार मानते है. इसका मतलब यह है कि, केवल हर पाँच साल बैलेट से लेकर बटन दबाने तक कि प्रक्रिया लोगोको सिखाने से बढ़कर, जनतांत्रिक लोकशिक्षा से जनतंत्र के प्रति जनता का प्रबोधन करने का भी कर्तव्य सत्ताधारी वर्ग, संवैधानिक संस्था तथा राजनीतिक दलों के जिम्मे है. अब सवाल यह है कि सत्ताधारी, संस्थाएँ और दल, राजनीतिक जनतंत्र को सामाजिक जनतंत्र में परिवर्तित करने का प्रयोजन क्यों नही करेंगे? इस बात का उत्तर डॉ. आंबेडकर देते है, “गलत विचारधारा और गलत संघठन या फिर दोनों”. संवैधानिक सभा के बनने से पहले ही इस देश मे कुछ ऐसी विचारधाराएं विद्यमान थी, जो इस देश में जनतांत्रिक व्यवस्था कि पक्षधर नही थी, इसीलिए तत्कालीन समय में उन्होंने जनतंत्र का पुरज़ोर विरोध भी किया था. लेकिन दूरदर्शी डॉ. आंबेडकर ने इस देश को राष्ट्र बनाने के लिए अपना व्यक्तित्व, पूरी विद्वत्ता, संवैधानिक नीति एवं कार्यप्रणाली का कौशल सारा दांव पर लगा दिया. दरअसल संविधान का एक अपना नायाब संवैधानिक दर्शन-दिग्दर्शन है जो लोककल्याणकारी जन नीतियां बनाते समय एक Check and Balance रखने हेतु पैमानें के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. कुल मिलाकर कहा जाए तो डॉ. आंबेडकर भारत में जनतांत्रिक व्यवस्था को जीवन प्रणाली के रूप में स्थापित कर सर्वहारा समाज को मुख्यधारा में लाने आग्रही तो थे ही, साथ ही उनका राजनीतिक दर्शन का उद्देश्य मुख्यतः देश के जनगणमन को (अरीस्टॉटल का मत “Man is a political animal” को क्रिटिसाइज़ कर ) “Man is a politically conscious being” बनाना था. ‘न्यूटन’ में फ़िल्माए गए सारे घटनाक्रम और किरदारों के डायलॉग्स आपको इसी सैद्धांतिक क्रम के इर्द गिर्द घुमतें, आगे बढ़ते नज़र आएंगे.  

डॉ. आंबेडकर के समग्र जीवन दर्शन के प्रभाव से ‘न्यूटन’ कि चिंतन प्रक्रिया, व्यक्तित्व में  डेमॉक्रेटिक एटिट्यूड कि निर्मिति हुई है जिसके फलस्वरूप वह ‘politically conscious being’ बना. इसीलिए वह नाबालिक से विवाह करने में असहमति दर्शाता है. इसीलिए शुरुवात से हि कि रिजर्व्ह टिम में होने के बावजूद अवसर मिलने पर वह चुनावी ड्यूटी करने को उत्सुक है, जिसे उसके पूर्व के एक अधिकारी ने टाला था. इसीलिए शांतिपूर्ण परिस्थिति मे चुनाव सफ़ल हो यह चिंता सदा उसके माथे पर दिखती है. इसीलिए ‘असिस्टंट कमान्डेंट आत्मा सिंह’ (पंकज त्रिपाठी) के विरोध के बावजूद वह जान हथेली पर रख, जंगल का सफ़र पैदल अख़्तियार कर चुनावी बूथ तक पहुचता है. इसीलिए वह रास्ते से मज़दूरी करने जा रहे ग्रामीण आदिवासीयों से दोपहर तक कार्ड के साथ वोटिंग करने के लिए बूथ पर आने कि वह अपील करता है. इसीलिए लंबे समय तक बूथ के इर्द गिर्द वोटिंग करने किसी भी आदिवासी के न भटकने से भी वह चिंतित होता है. यह जानकर कि अशिक्षित आदिवासी वोटरों को चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के नामों तक का तक़ाज़ा नहीं और वे मशीनी चुनावी प्रक्रिया से अनभिज्ञ है, तो वह लोगो को तुरंत डेमॉक्रेटिक एज्यूकेशन देना शुरू करता है. वक़्त से पहले चुनाव ख़त्म कर निकलने कि मनीषा से अर्ध सैनिक बलों द्वारा कि गई फ़र्जी फ़ाइरिंग के साज़िश का जब ‘न्यूटन’ को पता लगता है तब वह सैनिकों को फ़िर से बूथ कि ओर चलने का आग्रह करता है, न मानने पर वोटिंग मशीन लिए बूथ कि तरफ़ भागता है. वोटिंग के लिए रास्ते में खड़े आदिवासियों को देख सैनिकों को उनको वोट डालने का आग्रह करता है, न मानने पर सैनिकों कि बंदूक हथियाकर ज़बरदस्ती वोटिंग कि कार्यवाई बंदूक कि नोक पर करवाता है जिसके लिए उसे पीटा भी जाता. इसीलिए कर्तव्यनिष्ठा एवं ईमानदारी से रोजाना कार्यालयिन समय पर उपस्थित रहने के फलस्वरूप सरकार से ईनाम प्राप्त करता है. क्या ‘न्यूटन’ में यह चिंतन कि परिपक्वता या डेमॉक्रेटिक एटिट्यूड कि निर्मिति उसके लिव्हिंग रूम के दीवार पर महज़ आंबेडकर कि प्रतिमा होने से या उसके दलित होने से आएगी?, मुझे यह प्रतीत होता है, इसका दूसरा पहलू वह सारा किताबों से भरा बुककेस भी है जिसमे जरूर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर राइटिंग अँड स्पीचेस और कॉन्स्टीट्युशनल असेंबली डिबटेस के विभिन्न व्होलुम्स रखे होंगे, जो कैमेरे के एंगल से बाहर है. 

दरअसल भारत में आज़ादी के बाद आज भी सत्ताधारी वर्ग, संवैधानिक संस्थाएँ तथा राजनीतिक दलों ने राजनीतिक जनतंत्र का प्रयोग सामाजिक और आर्थिक विषमताओं को मिटाकर समताधिष्ठित समाजव्यवस्था कि निर्मिति हेतु किया नहीं. इसीलिए आज आदिवासीयों कि जनतंत्र के माध्यम से मुख्य सामाजिक धारा में आने कि उम्मीदें निराशा में तब्दील हो गई, लिहाज़ा इस तबक़े मे आज भी पृथक अस्तित्व कि भावना आज भी क़ायम है. इसीलिए फ़िल्म मे ‘न्यूटन’ के यह पुछने पर “क्या तुम भी निराशावादी हो” ‘मालको’ जवाब देती है “मै आदिवासी हूँ”. इसीलिए ‘असिस्टंट कमान्डेंट आत्मा सिंह’ के आग्रह के बावजूद ‘मालको’ बुलेटप्रूफ़ जैकेट पहनने से इंकार करती है. दरअसल औरों कि तरह ‘माल्को’ कि पूरी जिंदगी जंगलों के बीच एक आदिवासी के रूप में गुजरती है जो साधन, संसाधन, सरकारी योजनाए और इस आधुनिक सभ्यता ने दिए तमाम लाभ, सुख-सुविधाओं से और मुख्य धारा से इतनी दूर है कि उसे स्वयं कि आदिवासी सभ्यता ही उसके लिए जिंदगी का एकमात्र अस्तित्व लगता है और एक अटूट हिस्सा भी. ‘माल्को’ ‘न्यूटन’ से कहती है “जंगल से थोड़ी ही दूर तुम शहर में रहते हो पर तुम्हे जंगल के बारे में कुछ नहीं पता”. जब स्कूल के पीछे भारत और सैनिकों के खिलाफ कुछ लिखा ‘न्यूटन’ पढ़कर माल्को से पूछता है “ये नक्सलियों ने किया है न?”, ‘माल्को’ जवाब देती है “जब तुम किसी का गाँव जलाओगे तो गुस्सा तो आएगा ही!” लेकिन ‘माल्को’ आदिवासियों में परिवर्तन को लेकर आग्रही है, वह भी एक डेमोक्रेटिक खयालात कि है, इसीलिए ‘न्यूटन’ मनोबल बढ़ाकर यह कहते हुए समझाती है कि, “कोई भी बड़ा कम एक दिन मे नहीं होता, सालों लग जाते है जंगल बनने में” ‘माल्को’ पूरी चुनाव प्रक्रिया के दौरान ‘न्यूटन’ कि हर रूप में सक्रियता से मदद करती है, और कही न कही ‘न्यूटन’ कि बेचैनी और कश्मकश को समझती भी है. दरअसल ‘न्यूटन’ और ‘माल्को’ इन दोनों किरदारों के उपेक्षित समुदायों का घटक होने के नाते एक वैचारिक तथा संवेदनशील रिश्ता स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. 

यह फ़िल्म भले ही उपभोगवादी तथा स्वछंदतावादीयों के लिए मनोरंजन कि अपेक्षाओं पर पूरी ना उतरे. लेकिन इस देश में जनतंत्र के हितैषी, सरकारी कर्मचारी, परिवर्तनवादी आंदोलन कि जिंदगी जीने वाले, चिंतन करने वाले, उपेक्षित समाज के लोग, विद्यार्थी-शोधार्थी, बुद्धिजीवी घटक, कार्यकर्ता ‘न्यूटन’ और ‘माल्को’ मे कही ना कही खुद को खोजे बिना नहीं रहेंगे. जिस सत्ताधारी वर्ग, संवैधानिक संस्थाएं तथा राजनीतिक दलों और मीडिया के जिम्मे जनतांत्रिक लोकशिक्षा का प्रचार प्रसार का भार है उनको भी यह फ़िल्म निश्चित रूप से अंतर्मुख कराएगी. हाल फ़िलहाल आम तौर पर उपभोगवाद, स्वछंदतावाद को बढ़ावा देने वाली तथा भारतीय समाज को आधुनिकता कि नंगी दौड़ मे दर्शकों का मनोरंजन करने कि आड़ मे समाज पर नकारात्मक प्रभाव डालकर मार्केट कल्चर को मजबूत करनेवाले फ़िल्म मेकर्स को भी ‘न्यूटन’ से सीख लेनी होगी. साथ ही इस देश में जनतांत्रिक सोच को मजबूत करने हेतु डॉ. बाबासाहब आंबेडकर के दिशा दर्शक, दर्शन-दिग्दर्शन को सोच समझकर वर्तमान तथा आने वाली पीढ़ियों में डेमॉक्रेटिक एटिट्यूड कि निर्मिति करने हेतु और देश कि समूची जनता को जनतांत्रिक लोकशिक्षा देने के लिहाज़ से विषयों का चयन कर फ़िल्मे बनाने होगी. दरअसल ‘न्यूटन’ के जरिए विभिन्न पुरस्कार के रूप मे फ़िल्म को आए दिनों लगातार मिल रही सफ़लता, साथ ही अकैडमी अवार्ड (ऑस्कर) मे नामांकन के माध्यम से अब यह बात पूरी दुनियाँ में गूँज उठेगी कि, भारत में जनतांत्रिक सोच के बुनियादी रहनुमा के रूप में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर बेहद महत्वपूर्ण है. दिग्दर्शक अमित मासुरकर, कलाकार राजकुमार राव, अंजली पाटिल, पंकज त्रिपाठी, रघुवीर यादव, मुकेश प्रजापति, संजय मिश्रा और पूरी ‘न्यूटन’ कि टिम को जनतांत्रिक प्रबोधन की दृष्टिसे बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म को सफ़ल बनाने के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ.

जय भारत, जय भीम! 

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ऋषिकेश देवेंद्र खाकसे भारतीय खाद्य निगम में कार्यरत हैं. वह एक लेखक एवं स्वतंत्र शोधार्थी हैं. उनसे hrishikhakse@gmail.com, 9860237253 पर संपर्क किया जा सकता है.

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