शफ़ीउल्लाह अनीस (Shafiullah Anis)
आम बातचीत में अगर आप किसी को बताएं कि आप जुलाहा या रंगरेज़ हैं, या पठान या सय्यद हैं तो इस बातचीत को रोज़मर्रा की बातों में ही शुमार किया जाता है. वहीँ दूसरी तरफ जैसे ही आप खुद को पसमांदा या सामने वाले को अशराफ कह कर मुखातिब होते हैं, आप पर एक इल्ज़ाम लगा दिया जाता है कि आप मुस्लिम एकता के खिलाफ खड़े हैं. अब यह बात समझ में नहीं आती कि बिरादरी का नाम बताने तक आप अच्छे मुसलमान रहते हैं और खुद को पसमांदा कहते ही ‘कौम के गद्दार’ बन जाते है. यानि कि जो भी दिक्कत है वह जाति के होने या न होने से नहीं है, वर्ना जाति बताते ही आप को एक लम्बा लेक्चर मिलना चाहिए था. कभी किसी ने आप का surname देख कर आप से कहा की आप मुस्लिम एकता को तोड़ रहे हैं? नहीं न? तो बात यहाँ जाति की नहीं, किसी और चीज़ की है. आखिर क्या बात है इस पसमांदा शब्द में जो आप को ‘कौम का गद्दार’ तक बना देती है?
पसमांदा शब्द के लग्वी माने जो भी हो, इस शब्द का एक पोलिटिकल meaning है. पसमांदा शब्द हमसे यह कहता है कि ‘सभी पिछड़ी जातियों एक हो जाओ और अपने मनुवादी शोषक के खिलाफ मोर्चा ले लो!’. पसमांदा शब्द अपने आप में एक revolution है, जब कि किसी जाति का नाम एक ग़ुलामी का प्रतीक, और गुलाम सभी शोषकों को पसंद हैं. पसमांदा शब्द उस आज़ादी का प्रतीक है जो जाति की बेड़ियों से मुक्त होने पर मिलती है. और हर बेड़ी तोड़ने वाला शोषक की नज़र में गद्दार ही होता है. किसी ने ठीक ही कहा है कि जैसे ही किसी victim को पता चल जाता है की वह victim है, तो वह victim नहीं रह जाता, बल्कि एक दुश्मन बन जाता है. पसमांदा भी दुश्मन है, उनका जो गुलामी को जारी रखना चाहते हैं.
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इन बातों से यह साफ़ ज़ाहिर है कि अशराफ तबका, जिसे आप के पसमांदा होने से इतनी दिक्क़त है, उसे जाति या जातिवाद से कोई परहेज़ नहीं है. फिर भी जब भी आप जातिगत उत्पीड़न का मुद्दा उठाते हैं वो आप को यह कह कर चुप करा देता है कि ‘इस्लाम में तो जाति है ही नहीं’. हंसी तो तब आती है जब खुद के नाम में ‘खान’ ‘सय्यद’ लगाए हुए लोग ऐसा कहते हैं. तो मालूम यह हुआ कि मामला यहाँ इस्लाम का है ही नहीं. कोई भी यहाँ इस्लाम की बात नहीं कर रहा. न ही किसी को इस्लाम में जाति होने से दिक्क़त है. अगर दिक्क़त होती तो हज़ार साल में शायद एक भी ऐसा अशराफ़ आलिम-फ़ाज़िल तो होता जो कि जाति के खिलाफ मोर्चा निकालता! भारत में मुसलमानों के इतिहास में आज तक कोई भी ऐसा आलिम क्यों नहीं गुज़रा. तो अगर मामला इस्लाम का नहीं है तो आखिर मामला है क्या? आखिर क्यों और किस लिए इस्लाम की इतनी दुहाई दी जाती है?
असल में मामला पूरा का पूरा political पॉवर का है. पोलिटिकल पॉवर का इस लिए क्यों कि इस्लाम के नाम पर एक कम्युनिटी के तौर पर राजनीतिक प्रतिभागी बनने के चलते हासिल हुई पॉवर में, और मुद्दों पर एक हो कर राजनीतिक प्रतिभागी बनने से मिली पॉवर में काफी भिन्नताएँ हैं. कम्युनिटी की पॉलिटिक्स में पॉवर और दबदबा उसका रहता है जो कम्युनिटी का इलीट वर्ग है, और मुस्लिम कम्युनिटी में इलीट हमेशा से अशराफ वर्ग ही रहा है. वही लीडर बनता है, वही मुद्दे बनाता है, वही फ़ैसले लेता है और वही राजनीतिक मलाई भी खाता है. आज के वक़्त में हर पोलिटिकल पार्टी में जो भी मुसलमान लीडर हैं, वह अशराफ हैं. चाहे वह BJP हो या Congress, SP हो या BSP. एक दो अपवाद को छोड़ दें तो सारी पोलिटिकल पॉवर अशराफ़ के हाथों में हैं. और उनका साथ देते हैं धर्म के ठेकेदार, अशराफ उलेमा. धर्म और पॉलिटिक्स की इस खिचड़ी में अशराफ वर्ग की चांदी हो जाती है और जिनका वोट लिया जाता है उनके मुद्दे हमेशा के लिए धरे के धरे रह जाते हैं. और धरे भी क्यों न रह जाएं, जब वोटर इस लिए वोट दे रहा है कि धर्म खतरे में है और धर्म को बचाना है. तो अहम मुद्दों का हल निकला या नहीं निकला, इससे क्या ही फर्क पड़ता है.
लेकिन जब आप खुद को पसमांदा कहते हैं, आप politically यह भी कहने लगते हैं कि हमारा लीडर भी पसमांदा ही होगा. यानी की कम्युनिटी की पॉवर पसमांदा के हाथों में ही रहेगी और यह बात अशराफ तबके के लिए क़यामत है. आप ने तो उनकी राजनीतिक इमारत की बुनियाद ही हिला दी. बस यहीं से कौम के गद्दार होने का कलंक आप पर थोप दिया जाता है. और कहा जाता है कि आपने एकता को ख़तम करने का काम किया है.
लेकिन यह एकता का विलाप क्यों आता है और आखिर क्यों हम लोग इस एकता के विलाप को जायज़ मान लेते हैं. वैसे देखा जाए तो एकता बहोत अच्छी चीज़ है लेकिन एकता हमेशा ही अच्छी चीज़ हो, ऐसा भी नहीं है. यही बात समझने की है. क्या भेड़ और भेड़िये में एकता होनी चाहिए? दुसरे लफ्जों में क्या शोषक और शोषित में एकता होनी चाहिए? एकता तो बराबरी वालों में होती है न. गैर-बराबरी वालों के बीच हमेशा social justice का सिद्धांत होता है. जब अशराफ और पसमांदा में शोषक और शोषित का एतिहासिक सम्बन्ध है तो उन में एकता का सवाल ही नहीं पैदा होता. वरना वही होगा जो भेड़िये और भेड़ की एकता का परिणाम होगा. वैसे आज तक हुआ भी यही है.
अशरफिया पॉलिटिक्स तो धर्म के जज्बाती मुद्दों के इर्द गिर्द घूमती रहती है, और धर्म के इन जज्बाती मुद्दों से निकले दंगो में मरता वही है जो सबसे कमज़ोर होता है, यानि कि पसमांदा. मेरी खुद की research में अभी तक यह सामने आया है कि जितनी भी cow-lynching हुई हैं, उन में एक भी नाम अशराफ वर्ग से नहीं है. पहलू हो या जुनैद, अखलाक हो या मज़लूम, सब के सब पसमांदा ही हैं. cow-lynching की वजह से तबाह होने वाले कुरैशी, मेओ और दलित जाति के लोग हैं, और बीफ एक्सपोर्ट कर के पैसा कमाने वाले अशराफ और सवर्ण. अब सोचने वाली बात यह है कि यहाँ धार्मिक एकता का क्या फल मिला. फल मिला, लेकिन सिर्फ अशराफ वर्ग को. पसमांदा के जान माल की रक्षा तो हुई नहीं, तो फिर इस अशराफिया जज्बाती पॉलिटिक्स का क्या सरोकार. जो अशराफ वर्ग हमारे वोट लेकर हमारी जान माल इज्ज़त कारोबार की रक्षा नहीं कर सकता वो आखिर किस काम का है. इसी लिए यहाँ ‘एकता’ अच्छी चीज़ नहीं है. दरअसल यह एकता है ही नहीं. शोषक और शोषित के बीच की एकता जो कि धर्म की चाशनी में डूबी हुई हो, वह तो बिलकुल भी नहीं. एकता सिद्धांत अच्छा है और एकता में शक्ति भी होती है, लेकिन गौर करने वाली बात यह है की एकता की शक्ति का इस्तेमाल कौन कर रहा है और किस के फायदे के लिए. यह देखने की ज़रूरत है कि कहीं यह एकता भेड़ और भेड़िये की एकता तो नहीं? जिसमें छल के सिवा कुछ भी नहीं!
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शफ़ीउल्लाह अनीस ने आई.आई.ऍम, लखनऊ से ऍम.बी.ए है और सम्प्रति ग्लोकल यूनिवर्सिटी, सहारनपुर में मार्केटिंग के प्रोफेसर हैं. उनसे shafiullahanis@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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