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आशा सिंह (Asha Singh) 

यह पर्चा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में 8-9 दिसंबर 2017 को CWDS  द्वारा आयोजित एक वर्कशॉप में पढ़ा गया था. 

asha singh 1मेरे वक्तव्य का विषय है, ‘भोजपुरी भाषासमाज और महिलाएं: लोकगीतों के अजायबघर के बाहर’. सबसे पहले ये चर्चा करने की ज़रुरत है कि क्या ज़रुरत पड़ी कि आज हम हिंदी में स्त्रीचिन्तन करने के लिए इक्कठा हुए हैं? वीमेन स्टडीज में हिंदी में अकादमिक कांफ्रेंस आमतौर पर आयोजित नहीं होते, तो अब हिंदी क्यों? ये सवाल इस तथ्य की तरफ इशारा है  कि आज हायर एजुकेशन का सोशल कम्पोजीशन बदल गया है. उत्तर भारत के पहली पीढ़ी के साक्षर/शिक्षित, तमाम दलितआदिवासी, मंडल कमीशन लागू होने के बाद हायर एजुकेशन में पहुंची उत्तर भारतीय राज्यों की पिछड़ी जातियों के लोग हिंदी माधयमों से पढ़ के निकले हैं. या तो सरकारी स्कूलों से पढ़े हैं या सस्ते प्राइवेट स्कूलों से पढ़े हैं जहाँ बढ़िया से अंग्रेजी का इस्तेमाल करना नहीं सिखाया जाता. अग्रेज़ी पढ़ाने की ज़िम्मेदारीहिंदी पट्टीके राज्य नहीं लेते बल्कि अंग्रेजी निजी, सवर्ण, अमीर और ताक़तवर मर्दों के हाथों में है

मैं मंडल आन्दोलन की प्रोडक्ट हूँ और हाल ही में कलकत्ता स्थित एक ICSSR संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर जेंडर स्टडीज का पद हासिल किया है. मेरी अकादमिक दिन चर्या कुछ इस प्रकार है, मैं अंग्रेजी में पढ़ती हूँ क्योंकि women’s studies/gender studies पर तमाम स्कालरशिप अंग्रेज़ी में उपलब्ध है. छहसात साल पहले ही अकादमिक अंग्रेजी पढ़नालिखना शुरू किया है, यह मेरे वर्तमान रोज़गार की ज़रुरत है, लेकिन अंग्रेजी लिखनेबोलने में आज भी पसीने छूटते हैं क्योंकि बचपन से इस भाषा में ट्रेनिंग नहीं मिली. हिंदी में लिखती हूँ क्योंकि यही भाषा मुझे तमीज़ से आती है, हिंदी पत्रकारिता करके लेखन का कौशल विकसित किया है. सोचती भोजपुरी में हूँ क्योंकि भोजपुरी मेरी मातृभाषा है और मेरे परिजन इसी भाषा में व्यवहार करते हैं. क्लास में मैं अंग्रेज़ीहिंदी और टूटीफूटी बांग्ला में पढ़ाती हूँ क्योंकि मेरा संस्थान पश्चिम बंगाल में स्थित है और आधे से ज्यादा विद्यार्थी बंगाली माध्यम के हैं

यानि हम पहली पीढ़ी के साक्षर लोग हिंदी स्कॉलर्स नहीं हैं. हम कई भाषाओँ में व्यवहार करते हैं. लेकिन ये मामला इतना आरामदायक नहीं है. गौर करने लायक बात ये है कि हमारी इन भाषाओँ का पदक्रम (hierarchy) है. ये सूचित सूचित (scheduled-unscheduled), शुद्धअशुद्ध, सभ्यगंवार, scholarly-unscholarly की बाइनरी में विभाजीत की गयी हैं

उत्तर भारत के हिंदी आंदोलन के शुरूआती दिनों में एक स्पेक्ट्रम तैयार किया गया था, जिसके औपचारिकआधुनिक छोर पर हिंदी और दूसरे छोर पर देहातीघरेलुलोक भाषाएँ स्थापित करने की कल्पना की गई थी. तथाकथित हिंदी पट्टी में हिंदी मॉडर्न स्पेसेस (बैंक, दफ्तर, विश्वविद्यालय), साहित्य और नगरों की भाषा मानी गई और भोजपुरी जैसी भाषाएँ लोकगीतों, निरक्षर महिलाओं, गाँवदेहात और महानगरों के झोपड़पट्टी, सब्जीमंडी, छोटेमोटे बाज़ारों की भाषा मानी गयी.

इस स्पेक्ट्रम का आविष्कार 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ था और २०वीं शताब्दी के  हिंदी और नागरी आन्दोलन के दौरान निष्पादित किया गया था. इसके खिलाड़ी ज़्यादातर अभिजात्य वर्ग के सवर्ण मर्द रहे हैं जो शुरूआती दौर में हिंदी पब्लिक स्फीयर खड़ा करने में जुटे थे. कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज के हिंदीसंस्कृत पंडितों से लेकरमहावीर प्रसाद द्विवेदी (जिनके नाम से हिन्दी पाठ्यक्रमों में द्विवेदी युग पढ़ाया जाता है),  इलाहाबाद में इंडियन प्रेस की स्थापना कर हिंदी में हजारों पुस्तकों को छापने वाले चिंतामणि घोष आदि, सूची बहुत लम्बी है

हिंदी पब्लिक स्फीयर खड़ा करने के लिए कई रणनीतियां  बनायीं गयींकेवल हिंदी के ऊपर सार्वजनिक निवेश किया गया;हिंदी के इतिहास लेखन की कवायद की गई,  उत्तर भारत की लगभग  40 भाषाओँ पर कब्ज़ा करके नई आविष्कृत हिंदी के तले उपभाषा के रूप में स्थापित किया गया; मातृभाषा में शिक्षा देने पर रोक[i] लगाया गया,स्कूलों में मात्र हिंदी में पढाई,भोजपुरी को शासकीयराजकीय विनिमय के लिए नाक़ाबिल/अवैध घोषित किया गया जिससे भोजपुरीजन ख़ासतौर से दलितपिछड़ों  को प्रशासन में घुसने का कोई अवसर ना मिले.

जिन्होंने भोजपुरी भाषा में करियर की संभावनाएं सूंघ ली थी उन्होंने भोजपुरी को संरक्षणवादी तरीके से डील किया, museumize किया ताकि उसे एक अजायबघर की तरह प्रस्तुत किया जा सके.भोजपुरी को हिंदी शोध संस्थानों के तहतफोकलोर स्टडीज़जैसे specialized फील्ड में कैद किया गया और एक गँवई अवशेष की तरह प्रस्तुत किया गया जिसमे केवल नाचनागाना, रीतिरिवाज आदि ही संभव है. भोजपुरी अकादमियां, भोजपुरी अध्ययन केंद्र, बिहारउत्तर प्रदेश से पलायन की संस्कृति’ का अध्ययन करने वाले केंद्र भी एक प्रकार से museumization में लगे हैं. इसमें मैं भी अनजाने में शामिल हो गयी थी, कुछ साल पहले ही आँखें खुली हैं.

मुझे लगता है कि ये अनुभव भोजपुरी ही नहीं तथाकथित हिंदी बेल्ट की अन्य अहिन्दी भाषाओँ का भी अनुभव है. उन्होंने ने भी exclusion और subordination झेला है. अतः हम कल्पना कर सकते हैं कि आज इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हिंदी में अकादमिक कांफ्रेंस तो आयोजित होते हैं लेकिन भोजपुरी, मगही, बुन्देली या गोंडी में नहीं.

भाषाओँ की हायररकी को लिंग्विस्ट हनीबाबू भाषाओँ का चातुर्वर्ण कहते हैं.[ii] इस भाषाई चातुर्वर्ण का ऐसे भाषा समुदायों या समाजों पर क्या प्रभाव पड़ता है जो जातिजेंडरवर्ग के आधार पर गैरबराबर हैं? मैं इस सवाल को भोजपुरी भाषासमाज की महिलाओं के सन्दर्भ में समझने की कोशिश कर रही हूँ.

 

भोजपुरी बनाम हिन्दी

लिंग्विस्ट जेन क्रिश्चन ने बनारस में हिंदी और भोजपुरी सीखने प्रक्रियाओं पर महत्वपूर्ण काम किया है, जिसका उल्लेख मैं यहाँ करना चाहूंगी.[iii] हिंदी और भोजपुरी के सम्बन्ध की व्याख्याभाषाबोली’ (language-dialect) के रूप में की जाती है, मतलब कि हिंदीभाषा और भोजपुरीबोली. हालाँकि ये व्याख्या नाकाफ़ी है, दो कारण:

एक, भाषा और बोली को कैसे परिभाषित किया जाए इस पर निर्णयात्मक सहमति नहीं बन पायी है. जो भी परिभाषाएं बनायीं जाती हैं, वे किसी निश्चित वैज्ञानिक अनुसन्धान के ज़रिये नहीं बनायीं जाती. परिभाषाएँ राष्ट्र, धर्म, क्षेत्र और जातीय मंसूबों को ध्यान में रखते हुए बनायीं जाती हैं. दो, भाषाबोली फ्रेमवर्क भाषाई वर्णक्रम (linguistic hierarchy)के सामाजिक पहलुओं को कैप्चर करने में या समझने में समर्थ नहीं है. जेन ने 1971 में बनारस में अपने फील्डवर्क में पाया कि व्यस्क (हिन्दू) मर्द और आठ साल से अधिक उम्र वाले बालक हिंदी कोलिखित भाषासमझते हैं जो स्कूलों, दफ्तरों और आल इंडिया रेडियो में औपचारिक सम्प्रेषण के लिए इस्तेमाल होती है. वहीँ respondents ने दूसरी ओर भोजपुरी को घर, रसोई, नातेदारी और महिलाओं की भाषा माना. शुद्ध हिंदी हिन्दू धर्म ग्रंथों और कर्मकाण्ड की भाषा, अतः शुद्ध हिंदी ब्राह्मण-सवर्ण जातियों और शिक्षित मर्दों की भाषा मानी गयी.

गौरतलब है कि जेन क्रिश्चन का रिसर्च एक ऐसे समय में चल रहा था जब बनारस की साक्षर जनता में मर्दों का प्रतिशत महिलाओं से कई गुना अधिक था. 1971 की जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 24 फ़ीसदी और बनारस में 27 फ़ीसदी लोग साक्षर थे. बनारस में साक्षरों में महिलाओं का प्रतिशत मात्र 13 फ़ीसदी था और पुरुषों में 40 फ़ीसदी. ये शिक्षितसाक्षर मर्द ज़्यादातर समाज के उपरी सतह से आते थे. हिंदी में साक्षरता और शिक्षा का लोकतांत्रिकरण बेहद धीमी गति से चल रहा थाजातिजेंडर आधारित संरचनाओं में से रिसरिस कर. एक तरफ महिलाओं और मर्दों के साक्षरता दर में खाई और दूसरी तरफ सवर्ण मर्द और बाकी आबादी के साक्षरता दर में अन्तर, हिंदी और भोजपुरी की खाई को और भी गहरा कर रहा था.

दूसरे शब्दों में उन दिनों हिंदी विशिष्टता और स्टेटस का सूचक बन गयी थी; एक ऐसी भाषा जो आनुष्ठानिक और सौदेबाज़ी की ताक़त हासिल कर रही थी. दूसरी ओर भोजपुरी रसोई और हाटबाज़ार की बोली का सूचक बनी जिसके बोलने वाले ज़्यादातर महिलाएं और दलितपिछड़े लोग थे. स्थापित सामाजिक वर्णक्रम आधारित विभेदन ने भोजपुरी को अयोग्य, कमतर मान कर आधुनिक स्पेसेस में घुसने से रोका.

 

कायस्थों का कैथीभोजपुरी से नागरीहिंदी की ओर प्रस्थान

हिंदी के आविष्कार से पहले जो थोड़ीबहुत लिखित भोजपुरी थी, वह व्यापारियों और मुंशियों के बहीखातों में कैद थी. 1867 में चम्पारण मजिस्ट्रेट जॉन बीम्स ने रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में लिखा है कि लिखित भोजपुरी व्यापार की भाषा थी और ग्रामीण विनिमय इस भाषा रिकॉर्ड किये जाते थे: ग्राम लेखा (village account), अभलेख (record),पट्टा लिखाई (lease) आदि. इसकेराइटिंग  सिस्टम कैथी पर भी कायस्थों और व्यापारियों का एकछत्र अधिकार था. भोजपुरी  भाषा में किसी भी तरह की सार्वजनिक  शिक्षा  व्यवस्था या जनशिक्षा (mass literacy) की अवधारणा पैदा नहीं हुई थी. लिखित भाषा जातीय संपत्ति थी. ये आनुष्ठानिक, वाणिज्ययिक और व्यावसायिक दूरी का द्योतक/परिचायक थी. लिखित भोजपुरी की तकनीकी शब्दावली, संकेतावली और शैली ख़ास जातिवर्ग का exclusive डोमेन था. बहुसंख्यक भोजपुरीजन को भोजपुरीभाषी होने के बावजूद दस्तावेजों और रिकॉर्डस तक सीधी पहुँच नहीं थी. ज़मीन और खेत के दस्तावेज़ उन्हें बिचौलियों (कायस्थोंमुंशियों) के ज़रिये पढ़वाना और समझना पड़ता था. बिचौलियों का धंधा था, ज़ाहिर है लिखनेपढ़ने की तकनीक के इसका लोकतांत्रिकरण से धंधे नुक्सान पहुंचता. जनशिक्षा की अवधारणा भोजपुरीभाषी इलाकों में भोजपुरी के ज़रिए लाने की कभी कोशिश नहीं हुयी. भोजपुरी में पाठ्य पुस्तक नहीं रचे गए, हिंदी में रचे गए जो कुछ जातियों की निजी संपत्ति बनके रह गए.

अगर यह समझा जा रहा है कि भोजपुरी में पुस्तकों की संभावना नहीं हो सकती थी तो यह गलत है क्योंकि 1911 और 1913 में कैथीभोजपुरी में बाइबिल (सेंट जॉन गोस्पेल) की एक हज़ार प्रतियाँ कलकत्ता से छपवा कर बिहार के सारण ज़िले में वितरित की गयीं थी. बाद में चल कर नागरीहिन्दी आन्दोलन के प्रभाव में आकर मिशनरियों ने 1935 में नागरी लिपि में भोजपुरी बाइबिल छापी[iv]. आज जब भोजपुरी में थोड़े-बहुत पाठ्य पुस्तक रचे जा रहे हैं, वे हिंदीविन्यास और संस्कृतबिम्बों के संक्रमण से बच नहीं पा रहे हैं.

आगे चल कर मुंशीकायस्थों ने खुद को हिंदी निर्माण और उत्थान के आन्दोलन के साथ जोड़ लिया[v] और थोड़ीबहुत लिखित भोजपुरी उनके बहीखातों में खो गई. यह एक तरह से खुद को बेहतर हिन्दू साबित करने की कवायद भी थी क्योंकि कायस्थ अरबीफ़ारसी के जानकार रहे हैं और मुग़ल काल में भी प्रशासनिक पदों पर काबिज़ रहे हैं. मुगलों से नजदीकी और तथाकथित मुसलमानीभाषा के व्यापारव्यवहार से बनी कमतर हिन्दू छवि को (ब्राह्मणों और ब्रिटिश अधिकारियों के समक्ष) बदलने की कोशिश में लगे थे. ज्ञात हो कि ब्रिटिश काल में खुद को क्षत्रिय घोषित करने के लिए कायस्थों ने कलकत्ता, इलाहबाद और पटना हाई कोर्ट में केस दर्ज कराये थे.[vi] बाद में चल कर हिंदीनागरी आन्दोलन खुद को बेहतर हिन्दू साबित करने की रणनीति साबित हुई. 19-20वीं सदी में हिंदी के ढेरों कायस्थ लेखक हुए हैं.

यही वो समय था जबहिन्दूधर्म की अवधारणा को मजबूती मिल रही थी. हिन्दू धर्म निर्माणकी प्रक्रियाओं ने शिक्षित संभ्रांत वर्ग को गहन आदानप्रदान, सम्प्रेषणसंवाद, विमर्श के लिए सन्दर्भ मुहैया कराया. शुद्ध हिंदी वाली आनुष्ठानिक भाषा की मोटे तौर पर दो भूमिका रही: एक, इस भाषा के ज़रिये अभिजात्य वर्गों  ने मिलीभगत से साझा नॉलेज बॉडी तैयार करके आपसी संबंधों को मजबूत किया. दो, किलिष्ट भाषा वाली इस नॉलेज बॉडी और संचार तकनीक के ज़रिये आम जन समुदाय से ख़ासी दूरी बना ली. इस प्रकार उन्होंने ने खुद को रणनीतिक संभ्रांत (strategic elite) के रूप में ढाल लिया जो ऐसी शब्दावली से लैस था जो बहुसंख्यक जन समुदाय और महिलाओं के लिए अभेद्य था यानि उनके पल्ले नहीं पड़ने वाला था. गौर करने लायक बात ये है कि हिंदी का रणनीतिक संभ्रांत, इलाके के पारंपरिक संभ्रांत जातिवर्ग से ही तैयार हुआ था.[vii] 

भाषाई दूरी या खाई का आज भी लगातार उत्पादन हो रहा है, यह एक निरंतर प्रक्रिया है जो राज्य और संभ्रांत समाज मिलकर अंजाम दे रहे हैं. भाषाई दूरी/खाई आर्थिकसामाजिक खाई पैदा करने वाली प्रक्रियाओं का मिलाजुला परिणाम है. भोजपुरी चूँकि लिखित भाषा व्यवस्था के बाहर है इसलिए मौखिक और feminine डोमेन तक ही सीमित हैं. मौखिक सांस्कृतिक उत्पादन के केंद्र में भोजपुरी महिलाएं बहुसंख्या में हैं. निरक्षर या अर्धसाक्षर जन और स्थितियां भोजपुरी सांस्कृतिक धरोहरछवियों के संरक्षण की अनिवार्य शर्त के रूप में स्थापित की गयीं हैं. जैसे भोजपुरी folklorists या सुनहरे पारंपरिक इतिहास की अवधारणा पर भाषाई आंदोलन करने वाले विलाप करते नज़र आते हैं कि कैसे अहीर बिरहा भूलते जा रहे हैं, धोबी नाचना अपनी हतक समझते हैं, कैसे महिलाएं पारंपरिक गीतों को भूलती जा रही हैं, उन्हें छठ करना अच्छा नहीं लगता वगैरहवगैरह.[viii]

तनी नाचीगाई सबके मन बहलाव रे भईया[ix]

बहरहाल मैं अपने शोध पर आती हूँ. अगर आप भोजपुरी साहित्यिकसांस्कृतिक उत्पादों (literary-cultural productions) पर हो रहे काम (scholarly material) से वास्ता रखते हैं तो आप दो तरह के creative subjects से ज़रूर वाकिफ होंगे पलायन करने वाला परदेसी पति और दूसरा गाँव में छूट गयी उसकी स्त्री (left-behind wife) जो कि पति की याद में तड़पती है. यह तड़प लोकगीतों में प्रचुर मात्रा में मिलता है. चूँकि मैंने भी भोजपुरी लोकगीतों का विश्लेषण मर्दों के पलायन के सन्दर्भ में किया है और भोजपुरी इलाके की हूँ, इन creative subjects से भलीभांति परिचित हूँ.[x]

परदेसी पति की पत्नी, छूट गई महिला (बिरही) मौखिकसाहित्यिक उत्पादों में दैनिक स्तर पर बारबार पैदा की जाती हैइस भोजपुरी महिला के इस नितबिरही gendered रूपक का प्रभुत्व इसके प्रासंगिक होने के साथ  ही थका और बासी  भी है.प्रासंगिकता समझना आसान है क्योंकि भोजपुरी इलाकों से पलायन आज भी वास्तविकता है. लोकगीत सीमित संभावनाओं के साथ ही सही इस ऐतिहासिक और वर्तमान वास्तविकता को सन्दर्भ प्रदान करते हैं. पर मैं इस रूपक को  थका और बासी क्यों कह रही हूँ? क्योंकि इस पीछे छूट जाने की प्रक्रिया को महिलाओं के लिए अनिवार्य, एक्सक्लूसिव और ठहरी हुयी वास्तविकता के रूप में देखासमझा जाता है. कई बार मौखिकता पर आधारित अकादमिक साहित्य जातिजेंडर के थमे हुए  सांचों में ढल जाते हैं और इमोशनल सूचकों को बारबार दुहराते हैं

यह पूछे जाने की ज़रुरत है कि भोजपुरी भाषा में भोजपुरी  महिलाओं  के बारे में क्याक्या जानने को मिलता है? भोजपुरी का सबसे व्यापक और सहज उपलब्ध लिंगविस्टिक रेपेटुआ’ लोकगीत हैं, जिनमें से बार बारबिरहीमहिला खोजखोज कर निकाली जाती है.[xi] मेरे कहने  का ये अर्थ नहीं है की गीतों में महिलाओं के लिए अन्य विषय नहीं हैं, लेकिन  अनुमानित ढांचे यानि तीजत्यौहार, जनमविवाहमृत्यु संस्कार और पति का परदेस जाना. नए सन्दर्भ कहाँ  हैं? यह  तर्क दिया जाने लगा है कि भोजपुरी में आधुनिक मूल्य और प्रतिरोध के स्वर हैं, महिलाएं अपनी यौनिकता (sexuality) के बारे में गाती हैं; पितृसत्ता को चुनौती वैगरह देते हैं आदि[xii]. लोकगीतों की सीमाओं को स्वीकार करना ज़रूरी है. यह मानना और प्रचारित करना अतिश्योक्ति होगा की गीत या मौखिक साहित्य भोजपुरी के और भोजपुरी में हर प्रकार की epistemic ज़रुरत या ज्ञान की आवश्यकता को पूरा कर सकता है

छूट गयी महिला या left-behind woman/वाइफ  के उदाहऱण पर वापस लौटते  हैं. मेरी माँ ने अपने वैवाहिक जीवन के लगभग 17 साल लेफ्टबिहाइंड वाइफके रूप में काटे हैं क्योंकि उनके पति प्रवासी थे. मगर क्या वो सिर्फ एक बिरही थी? नहीं, गाँव की अन्य महिलाओं की भांति एक पिछड़ी जाति की महिला थी, दूसरों के खेतों में रोपनीकटनी करने वाली किसान थी, गायभैंस की देखभाल करने वाली औरत थी, एक कुपोषित स्त्री थी, निरक्षर महिला  थी. उसे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, दवाइयां, यौन जच्चा स्वास्थ्य, साफ़सुथरे शौचालय, बिजली, नल, परिवहन आदि  सेवाएं/सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थे. उसे बैंक, स्कूलकॉलेजयूनिवर्सिटी उपलब्ध नहीं थे. क्या भोजपुरी लोकगीत महिलाओं की इन वास्तविकताओं को सम्प्रेषित और प्रभावित करने में सक्षम हैं? ठीक है, लोकगीतों के कन्धों पर इतना बोझ डालना उचित नहीं है. दूसरे स्रोत खोजने की कोशिश करते हैं, क्या हमें  भोजपुरी भाषा में रिपोतार्ज, जर्नल, अखबार, पत्रिकाएं, आत्मकथाएं उपलब्ध हैं जिनमें बड़ी संख्या में महिलाएं लिख रही हों, जो हमें इन वास्तविकताओं को बारीकी और विस्तार से समझा सकें? उत्तर साफ़ है.

दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी भाषा में अपने समाज की आलोचना, निरीक्षणपरीक्षण, नागरिकता का दावा मौलिक अधिकार होना चाहिए जो कि भाषाई नागरिक होने की वजह से भोजपुरी इलाके की एक बड़ी आबादी वंचित है. भोजपुरी को आधुनिक विषयों और ज्ञान शाखाओं में घुसने से रोका  गया, यही कारण है कि जब भद्रलोक बंगाली महिलाएं 20 वीं सदी की शुरुवात में आत्मकथाएं लिखने लगी थीं, भोजपुरी महिलाएं (तमाम जातियों की) गीत गा रही थीं और आज भी गीत ही गा रही हैं.

ये विषमता भोजपुरी की नस्लीय खामी नहीं है जैसा कि  पॉपुलर स्टीरियोटाइप बनाया जाता है. यह भोजपुरी भाषी इलाकों के सवर्ण संभ्रांत मर्दों की एक्सक्लूसिव बनने की लालसाओं का परिणाम है जिन्होंने शुद्ध हिंदी के आंदोलन खड़े किये, उनमें  भाग लिया और बाकी जनता से खुद को अलग किया.

और आज के नए दौर में जब प्रतिरोध के स्वर खोजने की प्रतिस्पर्धा चल निकली है तो फैंसी अकादमिक तबके भोजपुरी लोकगीतों को स्त्रीविमर्श साबित करने में लग गए. हमें  समझना होगा की लोकगीत स्त्री विमर्श नहीं है. जब भोजपुरी भाषा में संस्कार, त्यौहार, गांव आदि का क्रिटीक, महिलाएं लिख कर छपवा सकेंगी तब स्त्रीविमर्श खड़ा होगा. चंद मर्दों के  भोजपुरी संस्कृति बचाओ आंदोलनो से नहीं आएगा, नाहीं अंग्रेजी स्कॉलर्स द्वारा लोकगीतों मेंप्रतिरोध के स्वर खोजने से आएगा.

मुझे उम्मीद है कि वीमेन स्टडीज़ को समर्पित संस्थाएं आने वाले समय में उन महिलाओं को अपने अकादमिक मंचों पर जगह देंगी जिनके लिए हिंदी मजबूरी है, शौक नहीं. ख़ासतौर पर तब जब शुरुआती दशकों में खड़े हुए हिंदी-इलीट की अगली पीढियां अंग्रेजी में शिफ्ट हो चुकी हैं और हिंदी का बोझा ढोने का काम दलित-पिछड़ों और महिलाओं के हिस्से में आ गया है.  ये हिंदी-पट्टी के भाषाई अ-नागरिक हैं, इन्हें  हिंदी के अलावा कोई और भाषा उपलब्ध नहीं है और बड़ी मेहनत करके उन्होंने हिंदी सीखी है, वो भी ऐसे वक़्त में जब अवसर सिकुड़ते जा रहे हैं. 

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संदर्भ 

[i] Asha Singh. ‘Differentiating the Hindi Subject: Bhojpuri Experience’ [https://roundtableindia.co.in/index.php?option=com_content&view=article&id=9197:differentiating-the-hindi-subject-bhojpuri-experience&catid=119&Itemid=132]
[ii] Hany Babu, MT. ‘Breaking the Chaturvarna System of Languages’ in EPW Vol. 52 (23), 10 June 2017.
[iii] Christian, Jane M. ‘Style and Dialect Selection in Hindi-Bhojpuri Learning Children’ in Conference on Child Language’ preprints papers presented at the Conference, Chicago, Illinois, November 22-24, 1971, p65-78.
[iv] Hooper, JSM. 1938. The Bible in India. Oxford University Press, pp: 116.
[v]Sinha, BP. 2003. Kaysthas in Making of Modern Bihar.Patna: Impression Publication.
[vi] प्रसन्न कुमार चौधरी. बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम. वाणी प्रकाशन. 2001
[vii] J Dasgupta  and J J Gumprez. ‘Language, Communication and Control in North India. California University Berkeley Language Behaviour resource lab. Working Paper no. 7, Jan 1968.
[viii] कृष्णदेव उपाध्याय. भोजपुरी लोक-संस्कृति. हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग. 1991.
[ix]  मनोज तिवारी द्वारा गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’ फ़िल्म में गाया हुआ एक गीत.
[x] भोजपुरी इलाके से बड़ी संख्या में मर्द मजदूरी करने के लिए बिहार से बाहर (दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, मद्रास, केरल)आदि जाया करते हैं. या फिर उत्तर भारत के समृद्ध गाँव (पंजाब) आदि जाते हैं जहाँ मजदूरी अच्छी मिलती है. मजदूरी के लिए पलायन करनेवाले लोग ज़्यादातर दलितपिछड़ी जातियों से आते हैं.
[xi] भोजपुरी पर होने वाले तमाम शोध इन्हीं विषयों के इर्दगिर्द है. शोधगंगा जिसमें देशभर के संस्थानों की थीसिस अपलोड किए जाते हैं में भोजपुरी’ सर्च करके देख लीजिए.
[xii] महिलाओं के लोकगीतों पर हुए अंग्रेजी में शोध उठा कर देख लीजिए. उदहारण: Smita Tiwari Jassal’s Unearthing Gender: Folksongs of North India’ .  Duke University Press. 2012.

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आशा सिंह, सेंटर फॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज, कलकत्ता में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं.

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