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जय प्रकाश फ़ाकिर (Jay Prakash Faqir)

faqirमै DEMOcracy का एक बार फिर से शुक्रगुजार हूँ कि उन्होंने मुझे मौका दिया इस विषय पे बोलने के लिए.

मै अपनी बात इकबाल के इस शेर से ही शुरू करना चाहता हूँ-

यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो बताओ मुसलमान भी हो?

आप इस शेर को ध्यान से देखें यहाँ इकबाल ये नहीं कह रहे कि यूँ तो तुम जुलाहा भी हो, मंसूरी भी हो, धुनिया भी हो. ऐसा क्यों है कि इकबाल को मुसलमान के Signifier (प्रतीक) के रूप में मुसलमानों की उच्च जातियां ही नज़र आई? क्या इकबाल ने कभी कोई शेर पसमांदा जातियों की गैरत जगाने के लिए कहा है? इकबाल की नज़र में मुसलमनो की एकता का मतलब था अशराफ़ जातियों की एकता. इसका मतलब ये है कि इकबाल अशराफ़ मुसलमानों की पहचान को तो स्वीकार करते हैं पर पसमांदा मुसलमानों की पहचान को स्वीकार नहीं करते जबकि इकबाल बहुत ही प्रगतिशील शायर माने जाते हैं.

यहाँ हम ये पाते हैं कि पसमांदा पहचान और पसमांदा समस्या को उर्दू अदब में एक सिरे से नकारा गया है. जब कार्ल मार्क्स की किताब छपी ‘The Eighteenth Brumaire of Louis Bonaparte’, तो किसी ने उसकी समीक्षा नहीं लिखी. इसपे एंगल्स ने कहाँ कि ये killing by silence है अर्थात आप चुप रह कर किसी की पहचान या उसकी समस्या को नकार दो. इसी प्रकार पसमांदा समाज की दैनिक समस्याओं का उर्दू अदब में कहीं ज़िक्र ही नहीं है.

दिक्कत ये है कि पसमांदा विषय पे लिखने वाले स्थापित पसमांदा लेखक गिने-चुने है. ले दे के एक नाम “इलियास अहमद गद्दी“ का है. इनको जब उर्दू अकादमी का सदर बनाने की बात चली तो उनको ख़ारिज कर दिया गया. अभी “ युद्धरत आम आदमी “मैगज़ीन में एक आदमी” ने पसमांदा की आवाज़ उठा दी , उसे जान से मारने की धमकी दी गई. इसी तरह “हंस” मैगज़ीन में धनबाद के एक लेखक “अनवर सुहैल” ने अपनी एक कहानी ‘कुंजड कसाई’ में मुसलमनों की जाति व्यवस्था का ज़िक्र कर दिया. उसके बाद उनको इतना प्रताड़ित किया गया कि उन्होंने कभी इस विषय पे दुबारा नहीं लिखा. लेकिन ऐसा नहीं है कि पसमांदा विषय पे लिखा ही नहीं जाएगा, जैसे-जैसे पसमांदा आन्दोलन मज़बूत होगा वैसे-वैसे अशराफ़ लेखक इतना लिखेंगे कि आप परेशान हो जाएँगे.

पर लिखना और न लिखना एतिहासिक संदर्भ पर निर्भर करता है कि कब अशराफ़ लेखकों को आपके अस्तित्व को नकारने से लाभ होता था और कब आप के अस्तित्व को मान लेने से लाभ होगा. याद रखें कि एक वक़्त में दलितों को संस्कृत पढ़ने नहीं दिया जाता था और आज ये दबाव है कि दलित संस्कृत पढ़ें क्योंकि आज संस्कृत की वो स्थिति नहीं है जो वैदिक युग में थी. आज संस्कृत पॉवर की जुबान नहीं है बल्कि अंग्रेजी पॉवर की जुबान है. अर्थात हर चीज़ संदर्भ पे निर्भर करती है.

बहुत से सवर्ण-अशराफ़ लेखक-लेखिकाओं ने दलित पात्र खड़े किए पर ये दलित पात्र अपने दलित किरदार को रिप्रेजेंट नहीं करते थे बल्कि ये सवर्ण ही थे. सवर्ण जिन्हें दलित का जामा पहना दिया गया हो. Saussure ने ये समझाने की कोशिश की कि भाषा signifier (प्रतीक) और signified (भावार्थ) का एक UNITY (मेल) है जहाँ शब्द signifier (प्रतीक) है और उसका अर्थ signified (भावार्थ). जैसे प्रेमचंद कि कफ़न कहानी में जो दलित पात्र हैं वो बस signifier (प्रतीक) के रूप में दलित हैं जबकि असल में उनका चरित्र सवर्ण का ही है. इसी तरह महाश्वेता देवी ने एक जनजातीय चरित्र ‘अल्मा कबूतरी’ के नाम से खड़ा किया जो कहीं से भी जनजाति नहीं है. इस तरह सवर्ण लेखक अपनी बात इन पात्रो के माध्यम से कहलवाते हैं. गुलज़ार की कविता ‘यार जुलाहे’ भी अपने स्वभाव में पूरी तरह से अशराफ़ चरित्र को दिखाती है जो जुलाहे शब्द का तो प्रयोग करती है पर जुलाहों की समस्या को नकार देती है और उसके पेशे को रोमांटिसाइज़ कर देती है. इस बात को आप ऐसे समझें कि ‘पंचतंत्र’ की कहानियों के पात्र जानवर ज़रूर हैं पर वो कहानियां जानवरों के बारे में नहीं है बल्कि इंसानों के बारे में है. जानवर सिर्फ signifier (प्रतीक) हैं उसके signified (भावार्थ) में जानवर नही इंसान हैं.

अशराफ़ लेखकों ने भी यही काम किया उन्होंने मुसलमान के signifier (प्रतीक) के रूप में सिर्फ अशराफ़ जातियों को रखा पर जहाँ पर ऐसा चरित्र प्रस्तुत करना है जिसे अशराफ़ लेखक खुद से नही जोड़ सकते वहां पसमांदा चरित्र ही signifier (प्रतीक) के रूप में पेश किया जाएगा. जैसे किसी ऐसी औरत का किरदार लेखन हो जो शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए बहुत ही खुली हो तो ऐसी औरत अशराफ़ जाति की नहीं होगी बल्कि वो पसमांदा जाति की होगी जैसे इस्मत चुगताई की कहानी उतरन और घरवाली में आप देख सकते हैं. इन अशराफ़ लेखकों की कहनियों में जो दाई या नौकरानी-नौकर हैं वो पसमांदा समाज से ही आते हैं. यहाँ ये बात स्पष्ट हो जाती है कि हिन्दू समाज का सवर्ण हो या मुस्लिम समाज का अशराफ दोनों ही छोटी जातियों को हीन दृष्टि से ही देखते हैं.

अजमल कमाल साहब कहते हैं कि अशराफ़ शायरों और लेखकों के ज़ेहन में ‘कौम’ का मतलब सिर्फ अशराफ़ जातियाँ ही थीं. पसमांदा समाज को वे ‘कौम’ का हिस्सा नहीं मानते थे. आज भी देहातों में जा के अगर आप पूछेंगे कि मियाँ (मुसलमान) का घर कौन सा है तो वह कुछ अशराफ़ जातियों का घर दिखा देंगे. ऐसा न सिर्फ हिन्दू करेंगे बल्कि मुस्लिम पसमांदा जातियाँ भी करती हैं. इससे ये समझ में आता है कि कुछ खास शब्दों का प्रयोग कुछ ख़ास जातियों के लिए होता था जैसे ‘बीबी’ शब्द का प्रयोग सिर्फ अशराफ़ जातियों की औरतों के लिए किया जाता था और जो ये पर्दा को ले के अकबर इलाहाबादी या उनके जैसे लेखकों शायरों की फ़िक्र थी, वह सिर्फ अशराफ़ औरतों के लिए थी. अकबर इलाहाबादी का पर्दे के ऊपर एक कता है कि

बे-पर्दा नज़र आईं जो कल चंद बीबियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गढ़ गया
पूछा जो मैं ने आप का पर्दा वो क्या हुआ
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया

पर ये क़ता सिर्फ अशराफ़ औरतों के लिए था छोटी जातियों के बारे में उनका ख्याल बिलकुल दूसरा था. अशराफ़ लेखकों शायरों को ये पता था कि अगर पसमांदा औरतें पर्दा करने लगेंगी तो उनके घर का, उनके खेतों का काम कौन करेगा? उनके घर में पानी भर के कौन लाएगा? साथ ही पसमांदा औरतें अशराफ़ मर्दों की आँख सेंकने के काम में भी आती थी. अकबर इलाहाबादी ने पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक लोकगीत पे एक शेर कहा था कि

अब न हिलमिल है न पनियां का वो मामूल है
एक नादनियां थी जो दाखिले स्कूल है

(अर्थात अब तो पनिहारन लड़कियां स्कूल चली गई हैं अब पहले की तरह अब वह माहौल नहीं है जब पनिहारन पनघट पर पानी भरने जाती थी और हम उनकी कमर को हिलते डुलते हुए देखा करते थे) 

अशराफ़ लेखन में इस तरह की बात देखने को मिलती है जब वह पुराने दिनों को याद करते हुए अपनी सामन्ती और जातिवादी सोच का परिचय देते हैं पर वो ऐसा दलित-स्त्री पात्र के द्वारा करता है ताकि आप उसका विरोध न कर सकें. मै ये मानता हूँ कि साहित्य समाज का आईना मात्र नहीं है. ये इतना passive (सहज) नहीं है जैसा मंटो बार-बार बोलते हैं. ये साहित्यकार के अनुभव का उसकी जातिगत और वर्गीय चेतना का पर्दा ज़रूर हो सकता है. जैसे मंटो की ही बात करें तो उनकी कहानियों में उनका मर्द होना साफ़-साफ़ दीखता है जैसे मंटो लिखते हैं कि ‘आंसू औरत की आँख का पसीना है’ अर्थात आंसू उनके दर्द को व्यक्त नहीं करता बल्कि उनके कर्म को व्यक्त करता है. आसान भाषा में कहें तो रोना-धोना औरत का काम ही है. इसी तरह मंटो एक बार इस्मत चुगताई से उनकी कहानी ‘लिहाफ’ के बारे में पूछते हैं कि ‘तुम उस कहानी से क्या बताना चाह रही थी मुझे तो बता दो’ इसपे इस्मत चुगताई शर्मा जाती हैं तो मंटो कहता है ‘कमबख्त’ ये भी औरत निकली. कहने का मतलब ये है कि आप के शब्दों का चयन आपकी सोच को दर्शाता है कि आप किसी जाति या वर्ग के बारे में क्या सोचते हैं?

अशराफ़ अपने हित को पसमांदा के हित के रूप में प्रस्तुत करते हैं और पसमांदा समाज उनके इस सिद्धांत को स्वीकार भी कर लेता है. मै इस प्रक्रिया को “ideologising” कहता हूँ. जैसे अशरफिया इस्लाम खतरे में है का नारा दे के अपने स्वार्थ को ही इस्लाम के नाम पे पसमांदा समाज पे थोप देता है और पसमांदा समाज ये समझता है कि वह इस्लाम को बचा रहा है जबकि वह अशराफ़ के हितों की ही रक्षा कर रहा होता है. पर हमें अशराफ लेखन को Condemn (रद्द) करने की जगह explain (व्याख्या) करने की ज़रूरत है. यह वाजे (स्पष्ट होने) करने की जरूरत कि कैसे वह फन के जरिये आपने स्वार्थ को इस्लाम का स्वार्थ बना देता है. कैसे वह पूरे मुस्लिम मुआशरे (समाज) के तरफ से बोलने का अख्तियार (हक़) हासिल कर लेता है और ऐसा करता हुआ कैसे पासमांदा के पूरे वजूद को invisibilise (गायब) कर देता है.

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जय प्रकाश फ़ाकिर केंद्रीय सरकार में कार्यरत हैं. बहुजन दृष्टिकोण से उनके बहुत से आलेख, कहानियां, कवितायेँ, साहित्यक आलोचना (उर्दू, हिंदी, अग्रेज़ी)छप चुके हैं. 
अनुवाद: लेनिन मौदूदी; आप लेखक हैं एवं  DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.

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