
गणपत राय भील (Ganpat Rai Bheel)
बदीन ज़िले में एक भील जाति के नौजवान की लाश को उसके क़ब्र से खोद कर बाहर निकाल कर फेंक दिया गया. यह अमानवीय कृत्य उच्चवतम पवित्रता के धार्मिक जोश में साहिबे ईमान(इस्लाम के सच्चे मानने वाले) वालों ने किया. दैनिक सिंध एक्सप्रेस में इसकी फ़ोटो और रिपोर्ट कुछ विस्तार के साथ छपी. यह कहा जा सकता है कि यह फोटो सिंध की मौजूदा धर्मनिरपेक्ष और सूफी स्थिति का सही चित्रण करती है, और एक दलित के मृत्यु प्रमाण पत्र का वारंट भी है.
यह स्थिति सिंध के उन आदिवासी लोगों की है जो न सिर्फ सदियों से एक असहाय घुमन्तु जीवन जी रहे हैं बल्कि क़ब्र में भी उनका यही हाल है. सिंध की यह भूमि अब उन द्रविणों, दलितों की नहीं रह गई है जिनकी लाशों को यह अपने आलिंगन से दूर फेंक देती है. विदेशी आक्रांता आध्यात्मिक रूप से सिंध पर शासन कर रहें हैं जिनके सम्मान में भव्य मक़बरे निर्मित किये गए हैं, जबकि इस भूमि के मूल-स्वामी जीवनपर्यंत अपमानित किये गए हैं, और मरने के बाद भी उनको अपनी ही ज़मीन में जगह तक नहीं मिलती है. यह घटना पागलपन की कोई एक अकेली घटना नहीं थी बल्कि यह पूरे समाज का, दलितों के प्रति मनोभाव का प्रतिबिंब है. यह एक कड़वा सच है कि एक द्रविण मूल के दलित को ना सिर्फ पूरे जीवन बहिष्कृत और अपमानित किया जाता है बल्कि मरने के बाद भी उसको शांति नसीब नहीं होती है.
यह कहना बिल्कुल निरर्थक है कि सगे-सम्बन्धी की वैमनस्यता लंबे समय तक नहीं टिकती है. बल्कि यह पश्चाताप करती है, वापस होती है और फिर चुकाती भी है. इस उपमहाद्वीप के आदिवासी किसी भी प्रकार से अन्य लोगों के प्रिय नहीं माने जाते हैं. ये सिंधी लोग कुर्द के वंशज है, जो दजला और फरात नदियों के किनारे से आये हैं. ये द्रविड़ों के सिंधु नदी की सभ्यता का गुणगान करते हैं. लेकिन उन लोगों के अस्तित्व को सहन नहीं करते हैं जो सच में इस तरह के अतिक्रमण और आक्रमण के असली पीड़ित हैं.
यह उदासीनता और घृणा असामान्य नहीं है और ना ही कोई नई प्रक्रिया है. आदिवासी जीवन की प्रत्येक घटना मौत से कम यातनापूर्ण नहीं है. यह ऐसी है जैसे जीवन के अस्तित्व के लिए एक ज़रूरी परिस्थिति हो. और जब सच में इनकी शारीरिक मृत्यु हो जाती है तो इस लायक भी नहीं समझे जाते कि इनकी मिट्टी, मिट्टी से मिल जाये.
यह घटना 7 अक्टुबर 2013 ई० को सिंध प्रांत के बदीन ज़िले के क़स्बा पंगरियो की है. दलित भुरो भील की लाश को क़ब्र से खोद कर यह कहते हुए बाहर फेंक दिया गया कि यह एक अपवित्र हिन्दू अछूत की लाश है और इसे मुस्लिम क़ब्रिस्तान में दफन नहीं किया जा सकता है.(1) क़ब्र की जगह को लेकर विवाद में भीड़ ने अल्लाह हु अकबर(ईश्वर महान है) का नारा लगाते हुए लाश को क़ब्र से खोद कर बाहर निकाला और पंगरियो कस्बे की गलियों में घसीटा.(2)
किसी भी आदिवासी समाज की अपेक्षा जोगी समाज आम तौर पर इस तरह की परिस्तिथियों का प्रायः सामना करता है. जब कभी भी जोगी जाति के किसी परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उस व्यक्ति के लाश को रिल्ली (एक प्रकार का पारंपरिक सिंधी कम्बल) से ढक देते हैं, जोगी औरतें बजाय रोने या विलाप करने के, एक दर्दभरी खामोशी का पालन करती हैं. छोटे बच्चे भी अस्वाभाविक एवं रहस्यमय भय से चुप्पी साध लेतें हैं. अगर कोई बच्चा अपने दुःख को सहन नहीं कर पाता और रो पड़ता है तो माता-पिता उस रोते हुए बच्चे को अपनी बाहों में समेट लेते हैं ताकि बच्चे की आवाज़ जोगी बस्ती के बाहर ना जा सके. इस एक विशेष क्षण पर संसार उस जगह को तंग कर देता है जहाँ मनुष्य जीवन यापन कर सकता हो. यह कुछ और नहीं बल्कि बर्बर, वहशी, भेड़ियों और क्रूर जानवरों का जंगल राज है. मर्द रात होने का इंतज़ार करतें हैं. लाश को भोर होने से पहले ही चुपके से दफ़न कर दिया जाता है. क़ब्र के ऊपर चढ़ी हुई मिट्टी, जिसे उधारी मिट्टी कहते हैं, कंपकंपाते हाथों से मुठ्ठी भर-भर के बराबर कर दिया जाता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यहाँ किसी भी प्रकार की कोई क़ब्र या दफनाने का निशान नहीं था. कुछ आखिरी प्रार्थना अपने ढंग से करते हैं. दफनाने के तुरंत बाद ही जोगी लोग किसी अन्य नये स्थान के लिए प्रस्थान कर जातें हैं. घरेलू कुत्ते और गधे जो उनके साथी हैं, और इस पूरे मातमी और दुखित प्रकरण के प्रत्यक्ष साक्षी हैं, अवश्य ही इस बात पर गर्व और सुखद अनुभूति करते होंगे कि वे मनुष्यों के किसी जाति से नहीं हैं. उनका गर्व करना किसी भी तरह से अनुचित नहीं है. जानवरों से बदतर दलित जीवन का अर्थ अपनी ज़िंदा और मुर्दा लाशों के एक ना खत्म होने वाली शव यात्रा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है.
दलितों के इन हालात के लिए पूरा समाज, राज्य, जातिवाद, नस्लवाद, चरमपंथी प्रवृत्तियाँ और अमानवीय मूल्य जिसे हमनें प्रश्रय दे रखा है, जिम्मेदार हैं. दलित भी अपने तिरस्कार के लिए उतने ही जिम्मेदार हैं क्योंकि वो इस तरह के अमानवीय रवैये और अत्याचार के खिलाफ प्रतिक्रिया करने के बजाय उसे एक प्राप्त अंतर्निहित प्रवृति के रूप में स्वीकार करते हुए सहन करते रहते हैं. दलितों को अपने मानवीय अधिकारों, सामाजिक न्याय और समानता के लिए एकजुट होना होगा. दलितों ने अपने खुद के प्रयासों से इस उपमहाद्वीप पर जहाँ कहीं भी सामाजिक और राजनैतिक आंदोलन खड़े किये हैं, उसमें सफल रहें हैं. उनके संघर्ष में उनका अपना चरित्र, एकता और दावों ने एक बुनियादी और निर्णायक भूमिका अदा की है. इसलिए कि कोई अन्य महात्मा या उद्धारक उनके भाग्य को बदलने के लिए अवतरित नहीं होगा. ऐसा ना तो कोई कभी आया है और ना ही आगे आएगा. गैर-सरकारी संगठन, तथाकथित सिविल सोसाइटियाँ, कागज़ी शेर मानव अधिकार आयोग, राष्ट्रीय या सरकारी मानव अधिकार संगठन तो खुद ही शायद दलितों से भी ज़्यादा दबे हुए हैं. महान और बड़े क्रांतिकारियों ने, प्रसिद्ध नेतओं और राष्ट्रवादीयों ने दलितों के मामले में ज़बानी जमाखर्च के अलावा कुछ नहीं किया है. ऐसे परिदृश्य में दलितों और आदिवासियों के सामने इसके अतिरिक्त कोई अन्य उपाय नहीं है कि वो स्वयं की ओर लौटे और महाराष्ट्र के इंक़लाबी कवि नामदेव ढसाल ने जो कहा है उसका शंखनाद करें….
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गणपत राय भील, अम्बेडकरवादी दलित लेखक हैं जो मिथि, सिंध,पाकिस्तान में रहते हैं. दोलत थारी की तरह आप पाकिस्तान के दलित समाज से आने वाले एक सशक्त लेखक हैं. आप दोनों ने दलितों से सम्बंधित बहुत सी किताबें और लेख प्रकाशित किये हैं. वैसे तो दलित को सिंध के साहित्य और पत्रकारिता में राजनैतिक वर्ग के तौर पर पहचान दिलवाने को श्रेय दोलत थारी को जाता है जिन्होंने 2000 के शुरुवाती वर्षो में मासिक पत्रिका “दलित आवाज़” का प्रकाशन किया, लेकिन ये गणपत राय भील थे, जो पाकिस्तान दलित अदब और शेड्यूल कास्ट फेडरेशन ऑफ पाकिस्तान से जुड़े हैं, जिन्होंने वास्तव में दलित विमर्श को साहित्यिक क्षेत्र एवं स्थानीय दलित समाजसेवियों में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया और प्रसिद्धि दिलाई. गणपत साहब ने दलितों के लिए लगातार लिखा है, और सिंधी भाषा के मासिक संकलन “दलित अदब” के प्रकाशन और सम्पादन का का कार्य जारी रखा हैं.
अनुवाद: फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी द्वारा. आप लेखक हैं एवं AYUSH मंत्रालय में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं.
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