प्रधानमंत्री जी को चिट्ठी लिखने की अपरिहार्यता का परिप्रेक्ष्य
सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘द ट्रांस पर्सन्स (सुरक्षा एव अधिकार) बिल ‘2016‘ के विरोध में उठती आवाज़
कुणाल रामटेके (Kunal Ramteke)
समकालीन भारतीय परीपेक्ष्य मे सामाजिक मानसपटल पर गहराते धर्म, वर्ण, जाति, वर्ग, लिंगभेद के संकट के बीच राज्यद्वारा प्रेरित तथा प्रस्थापित हिंसा ने व्यवस्था को पुनः कटघरे मे लाकर खड़ा कर दिया है. भारतीय संविधान ने समाज के सभी घटकों को समानता पूर्वक न्याय के प्रति आश्वासित किया है. संविधान के उद्देशिका मे वर्णित समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए भारतीय गणराज्य प्रतिबद्ध है. यद्यपि भारतीय स्वाधीनता के दशकों बाद भी समाज इस मूल्यों के क्रियान्वयन हेतु तृषित है. समकालीन बढ़ते सर्वांगीण भेदभाव तथा शोषण के बीच ही कई ऐसे हाशिये के तबके व्यवस्था के तथाकथित कल्याणकारी राज्य के दायरे से कोसों दूर रहते है. चुनावकालीन प्रस्थापित नेत्रत्व के उपभोगवादी मानसिकता से अपरिहार्य जुमलेबाजी के सिवा इस उपेक्षित तबके के हाथ शायद ही कुछ आता हो. राज्य कई बार ऐसे उपेक्षित समाज तत्वों के कल्याण के लिए कानून बनाकर परिवर्तन लाने का प्रयास करती है. मात्र, यही कानून जब उस शोषित तबके के गले का फांस बन जाए तो सामाजिक हस्तक्षेप महत्वपूर्ण हो जाता है. खैर, स्रोत बताते हैं कि आने वाले शीतकालीन संसद सत्र में सरकार ‘द ट्रांस पर्सन्स (सुरक्षा एव अधिकार) बिल 2016’ को मान्यता देने वाली है. मात्र, मूलभूत त्रुटियाँ तथा उनके ट्रांस जेंडर समाज पर होने वाले विपरीत परिणामों को हेतुगत ढंग से नजरअंदाज कर सरकार इस बिल को लागु कराने मे आतुर प्रतीत होती है. इस बिल को ट्रांस जेंडर समुदाय के साथ ही समाज के विविध समुदायों द्वारा पुरजोर तरीके से विरोध किया जा रहा है. इन सब विरोध प्रदर्शनों के बीच सरकार इस समुदाय की आवाज सुनने के पक्ष में नजर नहीं आती दिख रही है.
भारत सरकार को इस समुदाय की अत्यावश्यक जरूरतें तथा सम्मान और समतापूर्वक जीवन जीने हेतु संपूर्ण ट्रांस समुदाय के लिए घातक सिद्ध होने वाले इस बिल में शामिल कुछ अप्रासंगिक तत्वों को हटाकर बुनियादी सुधारों की बात करनी चाहिए. सदैव ही स्वाभाविक शोषण का शिकार होता आया यह समुदाय न्याय से और कोसों दूर चला जायेगा. इसी बीच इस विषय पर कार्यरत और परिवर्तन की बात करने वाले मुंबई स्थित ‘टाटा सामाजिक विज्ञान संस्था’ के कुछ छात्रों ने ‘टिस क्युयर कलेक्टिव्ह’ के माध्यम से एक मुहीम छेड़ी है, जो कि देश में वर्षों से शोषित ट्रांस जेन्डर समुदाय के हित में आवाज को बुलंद करने का कार्य कर रहे है. समाज का हर एक तबका हज़ारों की संख्या मे आज इन विद्यार्थियों के जनआंदोलन में उनके पक्ष में खड़े हुए है. इस आंदोलन में किसी भी प्रकार के नारे व रेलियों नहीं निकाली गयी, इसके बजाय ट्रांस जेंडर के इस मसले पर पुनर्विचार कर सरकार से सुधार का आग्रह करने के लिए एक शांतिपूर्ण ‘लेटर कैंपेन’ चलाया गया जिसके तहत सभी से प्रधानमंत्री जी को केवल एक चिट्ठी लिखने की अपील कर ट्रांस समुदाय के समता के पक्ष मे खड़ा रहने की अपील इस आंदोलन के माध्यम से की गई. अर्थात इस आंदोलन का आगाज़ टाटा इंस्टीट्यूट के कैंपस से होकर मुंबई के चौराहों तक पहुंचा. भले ही, आज चिट्ठी पत्री का जमाना कम हो गया हो लेकिन गणतंत्रात्मक व्यवस्था से चलने वाले हमारे देश में लिखी गई ये हज़ारों चिट्ठीयाँ शायद इस समुदाय की आवाज बुलंद कर पाने में सफल साबित हो सके. इस मुहीम में सहभागी छात्रों ने इस ‘लेटर कैंपेन’ को एक प्रकार से सरकार को संकेत देने वाला बता कर ‘ट्रांस जेंडर’ समुदाय के साथ होने का आश्वासन दिया.
आखिरकार सरकार द्वारा प्रस्तावित ‘द ट्रांस पर्सन्स (सुरक्षा एव अधिकार) बिल 2016’ का विरोध करने की ट्रान्स जेंडर समाज को जरुरत क्यों पड़ी? खैर, सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्री थावरचंद गहलोत ने 2 अगस्त 2016 को लोकसभा में ‘ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का सांरक्षण) बिल, 2016’ पेश किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय कैबिनेट ने भी 19 जुलाई 2016 इस विधेयक को मंजूरी दे दी है. वैसे ऊपरी तौर पर देखा जाए तो ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की बात करने वाले इस बिल के तत्व आख़िरकार इस वर्ग के लिए ही घातक और समता सिद्धांत को नकारने वाले साबित होते है. यह बिल ट्रांस जेंडर व्यक्तियों की परिभाषा ऐसे व्यक्ति के रूप में करता है, ‘जो की पूरी तरह ना ही महिला है और ना ही पुरुष, बल्कि दोनो का संयोजन है. ऐसे व्यक्तियों का जन्म के समय का लिंग नियत लिंग से मेल नहीं खाता है’, अगर सरकार की इस व्याख्या को हम प्रमाण मान भी ले तो, भारतीय संविधान द्वारा दिए गए सभी को बराबरी और समानता के अधिकारों का लाभ ट्रांस जेंडर व्यक्तियों को किसी भी रूप में नहीं मिलता है, इस समुदाय को न्याय दिलाने के उद्देश्य से ‘राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (एनएएलएसए)’ के साथ मिलकर कुछ लोगों तथा संघठनो ने देशभर में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ होने वाली बर्बरता, शोषण और असमानता के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल की थी, जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय ने फेसला सुनाया था कि ‘भारत के प्रत्येक नागरिक को अपना लिंग निश्चित करने का अधिकार है’. सही मायने में देखा जाए तो देश के स्वाधीनता के 70 सालो बाद भी समाज में ही नहीं बल्कि अपने घर में भी असमानता और शोषण व हिंसा का सामना करना पड़ता है.
अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटकर देखे तो भारत के प्रगतिशील आंदोलनों में इस विषय पर सार्थक चर्चा होती आयी है. महाराष्ट्र के महान समाजकर्मी महर्षी धोंडो केशव कर्वे जी के सुपुत्र रघुनाथ कर्वे जी ने लैंगिक शिक्षा के प्रसार हेतू ‘समाजस्वास्थ्य’ नामक एक पत्रिका का संपादन किया था, जिसकी वजह से सन 1934 के फरवरी में उनको उनके पाठकों द्वारा पूछे गये प्रश्न क्रमांक 3, 4, और 12 के उत्तर देने के आरोप में गिरफ्तार भी हुए, जो प्रश्न पाठकों द्वारा उनको पूछे गये थे वो सब समलैंगिकता से सम्बंधित थे, जिसको अपीलकर्ता ने विकृत तथा अश्लीलता फैलाने वाला कहा था. कर्वेजी के इस केस को डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने न्यायालय में लड़ने का निश्चय किया. बाबासाहब अनुसार, ‘समलिंगी संबंध पूर्णतः नैसर्गिक है, जिसमें कुछ भी गैर नहीं है और बिना किसी के अधिकारों का हनन किए, जिसको जिस प्रकार से अपना जीवन जीने में आनंद आता हो उसे प्राप्त करना हर एक नागरिक का अधिकार है.’ इस संदर्भ में बाबासाहब हॅवलॉक एलिस जैसे जानकारों का संदर्भ देते है. बाबासाहब के यह विचार सदैव प्रासंगिक रहे है. आज भी ‘ट्रान्स जेंडर’ समुदाय को पारिवारिक और सामाजिक शोषण का सामना करना पड़ता है, यहाँ तक कि आज भी यह समुदाय कानूनी पहचान पाने की जदोजहद में लगा हुआ है. किसी भी तरह की सुरक्षा न होने के कारण सभी प्रकार के नागरीक अधिकारों से वंचित रहने को मजबूर है. इसी कारण, समता के पक्ष में दाखिल इस जनहित याचिका की सुनवाई करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने यह मंजूर किया कि, ‘भारत के हर एक नागरिक को ‘अपना जेंडर’ निर्धारित करनेका हक़ है.’ इसी बीच अदालत ने सदियों से होते आ रहे सामाजिक शोषण को ख़त्म करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुवे ट्रांस जेंडर व्यक्तियों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए शिक्षा तथा रोजगार में आरक्षण का प्रावधान करने के लिए सरकार को निर्देश भी दिया है, जिसमें इस वर्ग के संवेधानिक हितों को मान्यता देते हुए सरकार को अपनी जवबदेही निभाने की सलाह दी है.
सर्वोच्च अदालत ने अप्रैल 2014 में तथाकथित सामान्य पुरुष और नारी से भिन्न लैंगिकता वाले व्यक्तियों को तीसरे लिंग के रूप में पहचान दी थी. ‘राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण’ की ही अर्जी पर यह फैसला सुनाया गया था. न्यायालय के इस फैसले के कारण ही हर तृतीय पंथीय व्यक्ति को जन्म प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, पासपोर्ट तथा ड्राइविंग लाइसेंस में ‘थर्ड जेंडर’ के तौर पर पहचान प्राप्त करनेका अधिकार मिला. इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि, उन्हें एक–दूसरे से शादी करने और विभक्त होने का भी अधिकार मिला. उत्तराधिकार कानून के तहत वारिस होने एवं वारिस लेने के उनके अधिकार के साथ ही अन्य अधिकार भी प्राप्त हुए.
इस विषय में कानून बनाकर सही मायनों में इसे घटनात्म स्वरुप देने की ओर व ट्रांस जेंडर समुदाय के हित की रक्षा की दिशा में दिसंबर 2014 में राज्यसभा सांसद तिरुची शिवा ने एक प्रगतिशील निजी विधेयक प्रस्तावित किया गया जो कि राज्य सभा ने पारित किया. राज्य सभा द्वारा पारित इस विधेयक को दरकिनार कर सरकार द्वारा 2015 में नया मसौदा लाया गया. आगे इन दोनों विधेयकों से भिन्न विधेयक लोकसभा में 2015 में पेश किया गया, जिसमें राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण’ द्वारा दाखिल फैसला और 2014 के उपरोक्त विधेयक के कई महत्वपूर्ण बिंदु सिरे से नकारे गए. इस विधेयक को देशभर में भारी विरोध का सामना करना पड़ा जिसके चलते इस विधेयक पर ‘विचार करने के लिए’ केंद्र सरकारने एक संसदीय स्थाई समिति का गठन किया है. अगर ‘टिस क्युअर कलेक्टिव्ह’ के अधिकृत पर्चे की माने तो, ‘विभिन्न माध्यमों से हाल ही में मिली सूचना से यह पता चलता है कि इस समिति की सारी प्रगतिशील सूचनावों को नजरअंदाज कर सरकार दोबारा अपना वही 2016 का पुराना विधेयक 25 दिसंबर से शुरू होने वाले इस शीतकालीन सत्र में लाना चाहती है’. खैर, सर्वोच्च न्यायालय ने प्रत्येक व्यक्ति को अपना लिंग निर्धारित करने का अधिकार दिया है. इस विधेयक के पारित होते ही ‘जिला स्क्रीनिंग कमिटी’ के पास जाकर शारीरिक जांच करवानी पड़ेगी. इस कमिटी की मान्यता के बाद ही आपको वैधानिक ‘ट्रांस जेंडर’ कहा जाएगा. मूलतः सरकार इस मुद्दे के माध्यम से व्यक्ति के ‘निजता के अधिकार’ को अमान्य कर सर्वोच्य न्यायालय कि भी अवमानना कर रही है. हाल ही में निजता के अधिकार को सर्वोच्च अदालत के एक खण्डपीठ ने इसे ‘जीने के अधिकारो’में समाविष्ट किया है.
सभी भारतीय नागरिकों को रोजगार का अधिकार प्राप्त है. लेकिन दूसरी और आज भी समाज का एक ऐसा तबका रोजगार से वंचित होकर हाशिये का जीवन जीने के लिए विवश है. इस तबके में सदियों से सामाजिक असमानता का शिकार झेलते आये दलितों से लेकर घुमंतू तथा अर्ध घुमंतू समाज और ‘ट्रांस जेंडर’ समुदाय के लोग शामिल है. जैसे-तैसे अपनी आजीविका कमाने वाले ये लोग मानवाधिकारों से सदैव ही वंचित रहे है. ‘ट्रांस जेंडर’ की बात करें तो सातत्यपूर्ण सामाजिक बहिष्कार के चलते यह लोग भीख मांगने पर मजबूर है. यह विधेयक ‘भीख मांगने’ को अपराध घोषित करता है और इस तरह की कार्यविधि लिप्त पाए गये व्यक्ति में 6 महीने से लेकर 2 साल तक कारावास तथा जुर्माने का प्रावधान भी यह विधेयक करता है जिसके कारण पुलिस और राज्य द्वारा ट्रांस समुदाय के प्रति की जाने वाली हिंसा और भी बढ़ जायेगी. सर्वोच्य न्यायालय तथा 2014 के विधेयक द्वारा दिए गये आरक्षण के अधिकार को भी यह विधेयक खारिज करता है. इसके अलावा इसमें सामाजिक असमानता के आधार पर रोजगार एवं शिक्षा के माध्यम से मिलने वाले सुरक्षा के अधिकार के अधिकार की भी अनदेखी की गयी है.
ट्रान्स जेंडर समुदाय के सर्वांगीण विकास के लिए मिलने वाली स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं की दिशा में इस बिल में केवल कुछ मुद्दों पर ही बात की गयी है, जो की अपर्याप्त है. 2015 की भांति इस समुदाय ने अभी निशुल्क लिंग परिवर्तन करने का प्रावधान करने व अस्पताल में इनके लिए अलग कक्ष और ट्रांस जेंडर समुदाय पर उपचार करते समय चिकित्सकों द्वारा बरती जाने वाली लापरवाही को मानवाधिकार का हनन मानते हुए चिकित्सकों पर सख्त कारवाही करने की मांग इस समुदाय ने की है. ट्रांस जेंडर समुदाय निरंतर ही शारीरिक लैंगिक हिंसा का शिकार होता आया है, लैंगिक शोषण के संदर्भ में पारित तमाम कानूनों मे इस वर्ग से जुड़े गंभीर मुद्दों के निराकरण के लिए किसी भी प्रकार की बात नहीं की गयी है. इसलिए उन सभी क़ानूनों में सुधार या नए कानून का निर्माण इस समुदाय के पक्ष में किया जाना चाहिए.
मूलतः भारतीय संविधान सामजिक समानता तथा न्याय के किर्यान्वयन का आग्रह करता है. सरकार भी ऐसे अल्पसंख्यक तबकों के हितों तथा नागरीक अधिकारों की रक्षा के दावे करती रहती है. समकालीन परिप्रेक्ष्य में सरकार द्वारा सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े समुदायों के लिए उठाये जाने वाले कदम सर्वत्र शोषण की खाई में फिर से धकेलने वाले मालूम पड़ते है. आज सही मायनों में मानवीय मूल्यों को समाज में स्थापित करने के लिए लड़ते हुए अपनी जान न्योछावर कर देने वाले संघर्षकर्तओं के सपनों के संवेधानिक समाज की स्थापना के लिए एक बार फिर से समाज के वंचित तबके को साथ लेकर समता के पक्ष में खड़े होने की जरुरत है.
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कुणाल रामटेके, दलित और आदिवास अध्ययन एवं कृति विभाग, टाटा सामजिक विज्ञानं संस्थान (मुंबई) में विद्द्यार्थी हैं. उनसे ramtekekunal91@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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