Ayaz Abhijit
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अयाज़ अहमद (Ayaz Ahmad)
अभिजीत आनंद (Abhijit Anand)

Ayaz Abhijitकुछ माह पहले ही तीन तलाक़ को अवैध घोषित कर के माननीय उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधारों की आवश्यकता पर एक सार्थक बहस की शुरुआत की थी। लेकिन पितृसत्तावादी कट्टरपंथी शुरू से ही इस फ़ैसले को सामाजिक स्तर पर नाक़ाम करने पर तुले हुए हैं। जमीयत उलमा-ई-हिंद के जनरल सेक्रेटरी मौलाना महमूद मदनी ने तो सीधे तौर पर उच्चतम न्यायालय के फ़ैसले को मानने से इनकार कर दिया था। इतना ही नहीं महमूद मदनी ने तो सरकार को ललकार भी दिया था कि जो सज़ा देनी हो दे दी जाय लेकिन तीन तलाक़ की मान्यता जारी रहेगा। 2002 में इसी मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गये ऐसे ही एक निर्णय को कट्टरपंथी ताकतें पहले भी बेअसर कर चुकी हैं. शायद इसीलिए केन्द्र सरकार तीन तलाक़ को एक अपराध घोषित करने की कवायद कर रही है। प्रस्तावित क़ानून में तीन साल तक की सज़ा का प्रावधान किया गया है। अब ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा की तीन तलाक़ देने पर तीन साल तक की सज़ा इस कुप्रथा को रोकने में कितनी कारगर साबित होगी। 

लेकिन सवाल ये है कि आख़िर महिलाओं के इतने बुनियादी अधिकारों को बचाने के लिए भी ऐसे सख़्त क़ानून की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? इस तरह के सुधार तो सामाजिक आंदोलन के ज़रिए भी किए जा सकते थे। आज के दौर में करीब- करीब सभी समुदाय महिलाओं को बराबरी के अधिकार कम से कम क़ानूनी स्तर पर तो दे ही चुके हैं। ऐसी क्या वजह है कि मुस्लिम समाज महिला अधिकारों को लेकर इतना उदासीन है? सवाल ये भी है कि वो कौन सी शक्तियाँ हैं जो महमूद मदनी जैसे लोगों को सामाजिक सुधारों को रोकने और भारत सरकार तक को ललकारने का दुस्साहस देती हैं?

वास्तव में मुस्लिम पर्सनल लॉ में कई सारे गंभीर पहलू हैं जिन्हें सुधारने की आवश्यकता है जिनमें संरक्षण के बिना तलाक़, हलाला, बहुविवाह और उत्तराधिकार कानून में लिंग के आधार पर भेदभाव आदि मुख्य हैं। कोई भी महिला अपने या किसी अन्य महिला साथ इस तरह का भेध-भाव और दुर्व्यवहार बर्दाश्त नहीं कर सकती। वे क्या कारण हैं कि देश में समतावादी संविधान लागू होने के दशकों बाद भी समाज के एक हिस्से में महिला विरोधी क़ानून इतनी मज़बूती से अपनी जकड़ बनाए हुए हैं?

मुस्लिमों का एक बुद्धिजीवी वर्ग, जो ज्यादातर सवर्ण (अश्राफ) मुसलमान है, का मानना है कि महिला विरोधी कानून में सुधार आना चाहिए लेकिन मौजूदा सरकार के कार्यकाल में नहीं। ऐसा इसलिए क्योंकि मौजूदा सरकार को मुसलमानों का विश्वास प्राप्त नहीं है। इन बुद्धजीवियों का मौजूदा सरकार से पहले चुनी गई सरकारों के बारे क्या विचार है? अगर सुधारों की आवश्यकता थी तो पिछली सरकारों के कार्यकाल के दौरान सुधार से संबंधित एक भी कदम  क्यों नही उठाया गया जबकि पिछली सरकारों को तो कथित रूप से मुसलमानों का विश्वास प्राप्त था?  

यह सारे प्रश्न हमें हम इस मुद्दे को नये सिरे से समझने पर मजबूर करते हैं। ऐतिहासिक रूप से, पर्सनल लॉ की राजनीति ने समाज को हिन्दू-मुस्लिम के दो परस्पर विरोधी गुटों में बांटने का काम किया है और परिणाम स्वरूप दोनों गुटों की एकांगी तस्वीर बना दी गयी है। साम्प्रदायिक पहचान की यह राजनीति दोनों समुदायों में महिला अधिकारों और सामाजिक न्याय के मुद्दों को बेदख़ल कर देती है।

हालांकि, सभी धर्मों के अभिजात वर्ग के द्वारा साम्प्रदायिक ताक़तों को बल प्रदान करने में पर्सनल लॉ की राजनीति के अतिरिक्त और भी कई रणनीतिक प्रतीक चिन्हों का प्रयोग किया जाता रहा है। इन सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों के परस्पर टकराव से जाति विघटित जनसँख्या, धर्म के आधार पर दो विरोधी खेमों में बँट जाती है। इनमें सब से प्रमुख उदाहरण, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाम बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, उर्दू बनाम हिंदी, मंदिर बनाम मस्जिद आदि झगड़ों के प्रतीक शामिल  हैं। हालांकि हाल ही में दलित और पसमांदा के संवाद ने इन सभी परस्पर विरोघी प्रतीकों को खंडित करने का प्रयास किया है जो उम्मीद की एक किरण जगाते हैं।

जब हम इस समस्या को अम्बेडकरवादी विश्लेषण के द्वारा समझते हैं तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अब तक पर्सनल लॉ से सम्बंधित विवादों का प्रयोग हर धर्म के सवर्णों और अश्राफो ने सांप्रदायिक पहचान बनाने और जाति की पहचान को छुपाने के लिए किया है। स्वाभाविक रूप से सांप्रदायिक पहचान का निर्माण करने वाले लोग ही अपने आपको  धार्मिक समूहों का स्वाभाविक नेता मानते हैं। इस प्रकार, पर्सनल लॉ का संप्रदायीकरण पितृसत्तागत विशेषाधिकारों को संरक्षित करने में मदद करता है, जिससे समतावादी संवैधानिक विचारों को नुकसान होता है। यह भी कहा जा सकता है कि इस बहस को एक साम्प्रदायिक मुद्दा बनाकर समाज मे लैंगिक न्याय के सुधारों की संभावनाएँ दबा दी गयी हैं।

बाबासाहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर पितृसत्ता को जाति का मूल रूप मानते थे। ध्रुवीकृत धार्मिक संरचनाएँ जातिवाद का लक्षण मात्र हैं, ये जातीय व्यवस्था का मूल कारण नहीं हैं। उसके विपरीत, पित्रसत्ता ही जातीय संरचना का केंद्र बिंदु है। इसीलिए पर्सनल लॉ के जिन विवादों को धार्मिक विवादों का रंग दिया जाता है उसमें पीड़ित हमेशा महिला ही होती है। पुरुषों के वर्चस्व की वजह से पर्सनल लॉ की व्याख्या ऐसी की गई है जिससे महिलाओं की स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन किया जा सके। यही कारण है कि अकसर अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह करना महिलाओं के लिए खतरे से खाली नहीं होता।  

एक बात तो स्पष्ट है कि पर्सनल लॉ के सुधार का सवाल सांप्रदायिक पहचान की राजनीति में कहीं खो गया है जो कि समाज में पित्रसत्ता को ही बढ़ावा देता है। इस संदर्भ में “नैन्सी फ्रेजर” के विचार कि सांस्कृतिक विशेषताओं के मुद्दों को लैंगिक न्याय के क्षेत्र से अलग किया जाना चाहिये, मददगार साबित हो सकते हैं। इस प्रयोजन के लिए संविधान में प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (यूनिफार्म सिविल कोड) जो कि लैंगिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध है, को लाया जा सकता है। इससे पर्सनल लॉ से जुड़ी सांस्कृतिक संवेदनाओं को हानि पहुंचाए बिना समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के सिद्धांतों को स्थापित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, पर्सनल लॉ में सबसे महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रतीक वैवाहिक रस्मो-रिवाज से संबंधित हैं। विवाह को सफलता से संपादित करने के लिए विवाह की रसमें पूरी करनी पड़ती हैं। यूनिफार्म सिविल कोड इस तरह के सभी समारोहों को मान्यता दे सकता है जो किसी भी पक्ष के सांस्कृतिक वरीयता से निकलती हैं।

इसके बाद पर्सनल लॉ धार्मिक संवेदनाओं से अलग होकर अंतर-व्यक्तिगत पारिवारिक विवादों के उचित रूप से निपटारे का साधन मात्र रह जाता है। ऐसे सभी विवादों में सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत परिवार कल्याण है। यहाँ पर कठिनाई पर्सनल लॉ की भिन्नता में नहीं बल्कि कठिनाई परिवार कल्याण के मतलब को समझने में आती है। ऐसे समय में जब परिवार का विचार खुद संकट के दौर से गुज़र रहा है तब इस प्रकर के पारिवारिक विवादों का समाधान करने के लिए एक लचीले कानूनी ढाँचे की आवश्यकता है। यहीं पर यूनिफार्म सिविल कोड धार्मिक द्वंद से अलग हट कर पर्सनल लॉ में सुधार करने का कानूनी ढाँचा बन सकता है। यूनिफार्म सिविल कोड, अंतर-धार्मिक विवाह को एक ही क़ानून के दायरे में लाकर लव जिहाद जैसे विघटनकारी विचारों को परास्त करने का हथियार भी बन सकता है। जब तक हम धर्म और जाति से ऊपर उठ कर सामाजिक और वैवाहिक संबंध नहीं बनाएँगे तब तक हम भारत के संविधान की उद्देशिका में उद्घोषित “भारत के लोग” नहीं बन सकते।

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अयाज़ अहमद अम्बेडकरवादी विचारधारा से प्रेरित हैं और, ग्लोकल लॉ स्कूल, ग्लोकल यूनिवर्सिटी के हेड हैं.

अभिजीत आनंद, पेशे से सहारनपुर स्थित ग्लोकल यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

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