फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी (Faiyaz Ahmad Fyzie)
उर्दू मुख्यतः अशराफ की भाषा रही है। जिसे वो अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए पूरे मुसलमानों की भाषा बना कर प्रस्तुत करता है, जबकि पसमांदा की भाषा क्षेत्र विशेष की अपभ्रंश भाषाएं एवं बोलियाँ रही हैं। अशराफ अपनी इस नीति में कामयाब भी रहा है और आज भी पसमांदा की एक बड़ी आबादी उर्दू से अनभिज्ञ होने के बाद भी उर्दू को ही अपने क़ौम की भाषा मानती है. यहाँ तक कि कर्नाटक के कन्नड़ भाषी पसमांदा मुसलमानों ने भी उर्दू को ही अपनी भाषा माना है, आसाम, बंगाल, पंजाब तक का यही हाल है। केरला और तमिलनाडु में स्तिथि कुछ अलग है। अशराफ ने अपने पाकिस्तान आंदोलन के दौरान भी उर्दू को खूब यूज़ किया। उर्दू पाकिस्तान की सरकारी ज़ुबान होने के बावजूद भी सिर्फ 7% लोगों की मातृभाषा है और किसी भी क्षेत्र विशेष की भाषा नहीं है। भारत में भी लगभग यही वस्तु स्तिथि है।
चूँकि उर्दू अशराफ की भाषा रही है इसलिए अशराफ के सभ्यता और संस्कृति की प्रतिनिधि भी रही है। इस लेख में अशराफ के जातिवादी नज़रिये की अक्कासी करती हुई उर्दू अदब(साहित्य) से सम्बंधित कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों और उनकी रचना पर विवेचना करने की कोशिश किया गया है।
मीर तक़ी मीरअर्थात:-
मीर तक़ी मीर कहते है कि साहित्य(अदब) की आलोचना करना सिर्फ अशराफ* लोगो का काम है। उसे नीच और असभ्य लोग क्या जाने, शेर को समझना बज्जाज और धुनियों के बस का नहीं है।
* शरीफ{बड़ा} का बहुबचन, मुस्लिम उच्च वर्ग
अकबर इलाहाबादी “पानी पीना पड़ा है पाइप का हर्फ़ पढ़ना पड़ा है टाइप का पेट चलता है आँख आई है शाह एडवर्ड की दुहाई है”पृष्टभूमि:
ज़मींदारों के यहाँ पानी भरने वाले हुआ करते थे जो पानी कूएं से लाते थे। और उन्हें पानी की बहुतायत थी लेकिन सब के साथ ऐसा नहीं था। कुआँ भी आम तौर पर पसमांदा(पिछड़े, दलित और आदिवासी) चाहे वो किसी धर्म के मानने वाले रहें हो, के पहुँच से बाहर हुआ करता था और कुछ के लिए तो बिलकुल वर्जित था। और पसमांदा को पानी उनके ज़रूरत से बहुत कम प्राप्त था, उस पर ताना ये कि “बहुत गंदे रहते हैं”. लेकिन जब अंग्रेजों ने पानी को आम लोगों के लिए पाइप के ज़रिये पहुँचाने का इंतेज़ाम किया तो पसमांदा को थोड़ी बहुत सहूलियत हो गई जिसका विरोध अकबर इलाहाबादी ने अपने चिर परिचित व्यंगात्मक अंदाज़ में यूँ बयान किया। कुछ यही किस्सा छापे खाने और टाइप मशीन का भी था।
अर्थात:
पाइप के पानी पीने से पेट ख़राब हो रहा है और टाइप की लिखावट पढ़ने से आँख ख़राब हो रही है. ऐ राजा एडवर्ड आप को दुहाई देता हूँ कि आप इस से हमे छुटकारा दें।
“अब ना हिल मिल है ना वो पनिया का माहौल है एक ननदिया थी सो वो भी अब दाखिले स्कूल है”पश-ए-मंज़र(पृष्टभूमि)-:
उस ज़माने में एक बहुत ही मशहूर पुर्बी(भोजपुरी) के लोकगीत का मुखड़ा था-
“हिलमिल पनिया को जाये रे ननदिया”उस दौर में पसमांदा की औरतें खुद के लिए भी और तथाकथित अशराफ(मुस्लिम विदेशी आक्रमणकारी) के घरों के लिए भी कुआँ और तालाबों से पानी भर के लाया करती थीं। पनघट के रास्ते में ये लोग (सैयद शैख़ मुग़ल तुर्क पठान आदि) पानी भरने जाने वाली पसमांदा औरतों का हिलमिल देख कर अन्दोज़ यानि प्रसन्नचित हुआ करते थे। ज़ाहिर सी बात है इनके ज़िम्मे कोई काम तो था नहीं, सारा मेहनत मशक़्क़त का काम तो रैय्यतों(सेवकों/पसमांदा) के सुपुर्द हुआ करता था। बहरहाल जब सामाजिक बदलाव हुए और पसमांदा में भी शिक्षा और धन आने लगा और उन्होंने अपनी औरते को भी तालीम के लिए स्कूल भेजने लगे तो पनघट सूना हो गया। इस बदलाव से दुखी अकबर इलाहाबादी ने अपनी व्यथा को कुछ यूँ वर्णन किया।
अर्थात-:
इस नए बदलाव की वजह से हमारे मनोरंजन का अब ये साधन भी खत्म होने लगा। अब पहले की तरह वो हिलमिल देखने को नहीं मिल रहा है और एक ननदिया भी थी तो वो भी अब स्कूल में चली गई।
“बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चन्द बीबियां अकबर ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया पूछा जो आप का पर्दा वह क्या हुआ कहने लगीं के अक़्ल पे मर्दों के पड़ गया”बीबी= उच्च वर्ग की मुस्लिम औरत को ही बीबी कहा जाता है।
क़ौम = उच्च वर्ग के मुस्लिम समाज के लिए बोला जाने वाला शब्द, उस लफ्ज़ का इस्तेमाल कभी भी इस्लाम और आम मुस्लिमों के लिए नहीं होता था।
पश-ए-मन्ज़र(पृष्टभूमि):-
जब सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप तथाकथित अशराफ(मुस्लिम उच्च वर्ग) की बीबीयाँ घरों से बाहर निकल के शिक्षा हासिल करने लगीं तब इस बात से अकबर इलाहाबादी को बहुत कष्ट हुआ और वो अपने क़ौम को शर्म दिलाते हुए इसका विरोध अपने व्यंगात्मक अंदाज़ में कुछ यूँ किया।
अब आप के दिल में ये ख्याल आ रहा होगा कि अकबर इलाहाबादी को सारे मुस्लिमों की औरतों को बे-पर्दा होने का मलाल था। तो जनाब आप ये जान लें कि उस वक़्त पसमांदा(पिछड़े, दलित और आदिवासी) मुस्लिमों की औरतें तो पहले से ही बेपर्दा थी और अपने रोज़ी रोटी के लिए अशराफ के घरों, गली मोहल्लों और बाज़ारों में आया जाया करती थीं। हज़रत को तो सिर्फ बीबियों के बेपर्दा होने की फ़िक़्र थी।
“यूँ क़त्ल पे, लड़कों के, वो बदनाम ना होता अफ़सोस कि फ़िरऔन को कॉलेज की ना सूझी”पश-ए-मन्ज़र (पृष्टभूमि):-
फ़िरऔन को बताया गया था कि इसराईलियों(बनु इस्राईल जाति) के यहाँ एक मूसा नाम का बच्चा पैदा होगा जो बड़ा होके तुम्हारी सत्ता और तुम्हें खत्म करेगा। इस बात से डर के फ़िरऔन ने ये आदेश दिया कि इसराईलियों के यहाँ जितने भी बच्चे पैदा हो उनको तुरन्त क़त्ल कर डालो।
अर्थात:-
अकबर इलाहाबादी जी कहते है कि अगर फ़िरऔन को स्कूल और कॉलेज के बारे में पहले पता चल गया होता तो वो बच्चों को क़त्ल करने के बजाय उन्हें कॉलेज में भेज देता, फलस्वरूप वो इस तरह बर्बाद हो जाते जो उनकी मौत की ही तरह होता और इस तरह वो बच्चों के क़त्ल की बदनामी से भी बच जाता।
यहाँ यें बात गौर करने की है कि अकबर इलाहाबादी अपने इस मज़ाकिया शेर के ज़रिये से मॉडर्न एजुकेशन का विरोध कर रहें हैं।
नोट:- वो अलग बात है कि अकबर इलाहाबादी खुद भी मॉडर्न एजुकेटेड थे(आप जज हो के रिटायर्ड हुए थे) और हज़रत ने अपने बच्चों को कॉलेज क्या लन्दन तक पढ़ने भेजा था। असल मसला दरअसल ये था कि तालीम कहीं आम लोगों (पसमांदा) तक ना पहुँचे!
अल्लामा इक़बाल “उठा के फेंक दो बाहर गली में नई तहज़ीब के अण्डे हैं गन्दें”पश-ए- मनज़र(पृष्टभूमि):-
1857 के म्यूटिनी के बाद भारत सीधे तौर से ब्रिटेन सरकार के अधीन हो गया। और ब्रिटिश सरकार ने भारत देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक सुधार शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप आम लोग खास तौर से पसमांदा(पिछड़े, दलित और आदिवासी) लोगों के पास शिक्षा और धन पहुँचने लगा। ये नई स्तिथि तथाकथित अशराफ मुस्लिमों को स्वीकार नहीं थी।
अर्थात:-
इस नई व्यवस्था के जितने भी सुधार वादी कार्यक्रम (अंडे) हैं वो सब गन्दे हैं और उन्हें उठा कर बाहर गली में फेंक दो यानि अपने से दूर कर दो।
नोट:- हालांकि इक़बाल ने खुद उच्च मॉडर्न एजुकेशन अंडे खाए और अपने बेटों को भी परोसे। उनका एक बेटा जावेद इक़बाल पकिस्तान का चीफ जस्टिस भी रह चुका है।
मैं असल का ख़ास सोमनाथी हैं आबा मेरे लातीये मानाती है फलसफा आब व गिल में पिन्हा है रेशहा-ए-दिल में तू सैयद, हाशिम की औलाद मेरे कफ व खाल ब्रह्मननिज़ादमक्का के ये दो बहुत मशहूर देवता थे। असल में अरबी में इन्हें ला और मना उच्चारण(pronounce) करते है दरअसल अरबी ज़बान में वाक्य(जुमले) के आखिर में आने वाले शब्द(लफ्ज़) का “ते” साइलेंट हो जाता है और जब उस शब्द को नाउन(संज्ञा, इस्म) के तौर इस्तेमाल करते है तब भी “ते” साइलेंट हो जाता है और उसे “हे” लिखते है, जो उच्चारण करते समय और हल्का होकर बिल्कुल गायब सा हो जाता है। जैसे सुरह जो सूरत है और सुन्नत जो सुन्नह है।
फलसफा= फिलोसॉफी, दर्शन
विदेशी आक्रमणकारी मुस्लिमों द्वारा अपनी श्रेष्ठता(बड़प्पन) के बखान से आहत(ज़ख़्मी, injured) होकर अल्लामा इक़बाल ने अपनी जाति श्रेष्ठता(बड़प्पन) को साबित करते हुए खुद को सनातनी ब्राह्मण बताया।
अर्थात:-
अल्लामा इक़बाल कहते है कि असल में, मैं तो सोमनाथ के मंदिर का पुजारी हूँ। मेरे बाप दादा(मेरे पूर्वज) तो ला और मना देवता के पुजारी थे।
मैं तो फ़लसफ़ा के मिट्टी पानी से बना हूँ जो मेरे दिल की गहराईयों में धसा हुआ है।
फिर आगे कहते है कि अगर तू सैयद है तो होगा हाशिम की नस्ल(जाति) का, जिसका तुझे दावा है, मुझे उस से क्या?, मैं भी किसी से कम थोड़े ना हूँ, मेरे भी हाथ पैर की चमड़ी ब्राह्मणों की तरह सवर्ण (खुशरंग) है, मैं भी ब्राह्मण जाति का हूँ।
यूँ तो सैयद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़ग़ान भी हो तुम सभी कुछ हो, बताओ मुसलमान भी होपश-ए-मंज़र:-
मिर्ज़ा= मुग़ल अपने नाम के पहले मिर्ज़ा और नाम के बाद में बेग लिखते हैं।
अफ़ग़ान= अफगानिस्तान का रहने वाला
विदेशी आक्रमणकारी मुस्लिमों के बार बार के अपनी श्रेष्ठता(बड़प्पन) के बखान से खिन्न(irritate, तंग) होकर अल्लामा इक़बाल उनको इस्लाम के मसावात की याद दिला कर शर्म दिलाते हुए कहते है।
अर्थात:-
अल्लामा कहते है कि चलो मैं मान भी लूँ कि तुम सैयद भी हो मुग़ल भी हो और ऊँची जाति के अफ़ग़ान भी हो, लेकिन इस्लाम में तो इस बड़प्पन की कोई हैसियत नहीं और तुम फिर कैसे मुसलमान हो कि अपनी नस्ली (जातिगत) बड़प्पन का बखान दिन रात करते रहते हो। और बड़े शान से अपने नाम के आगे पीछे सैयद मिर्ज़ा जैसे जातिसूचक शब्द (नस्ली बड़प्पन की रौब डालने वाले अलक़ाब) का इस्तेमाल करते हो? क्या तुम्हे शर्म नहीं आती?
नोट:- यहाँ इक़बाल ने भी सिर्फ अशराफ की जातियों का ही ज़िक्र किया है, मालूम होता है कि उनके नज़दीक भी पसमांदा मुस्लिम नहीं लगते वर्ना क्या दिक्कत थी कि एक दो पसमांदा जातियों का भी वर्णन करते। वो अलग बात है कि इस्लाम में “कुफु” के नाम पर सारा ऊँच नीच शामिल किया गया है। इस्लाम फिक़्ह(विधि) में नसब व नस्ल (जातिगत) के बड़प्पन को आधार मान कर शादी बियाह करने का हुक्म दिया गया है। (देखें इस्लामी फिक़्ह(विधि) में वर्णित अध्याय “निकाह” का पाठ “कुफु”)
फ़िर्कापरस्ती है और कहीं ज़ाते (जातियां) हैं क्या ज़माने में पनपने को यही बातें हैंपश-ए-मन्ज़र:-
प्रिंटिंग प्रेस के ईजाद के बाद किताबों की छपाई और आम लोगों तक उनकी पहुँच आसान हो गई। और इस तरह से लोगों की अशराफ मैलवी पर निर्भेरता(dependency) कुछ कम हुई। पहले किसी मसले को लोग सिर्फ मौलवी से ही पूछा करते थे और वो जो कहते थे उसे मान लेते थे. लेकिन किताबों की वजह से लोगों तक इल्म(शिक्षा) पहुँचा और किसी मसले(समस्या) पर कई तरह की व्याख्या(तशरीह) वाली किताबें मौजूद थीं और आम लोग अब खुद निर्णय(फैसला) लेने की पोजीशन में आ गए। ये सीधा सीधा अशराफ उलेमा की प्रभुसत्ता (वर्चस्व) को चैलेंज था। अशराफ मौलवी नहीं चाहता था कि उसके मानने वाले मुरीद और शागिर्द(शिष्य) किसी और तरफ जाएँ। फिर क्या था, फिरकपरस्ती की शुरुआत हुई और नए नए फ़िरके सुबह शाम वजूद में आने लगे। एक दूसरे को कुफ़्र(इस्लाम से इंकार, इस्लाम से बाहर करना) का फतवा देने लगे। जातिगत बड़प्पन तो इन लोगों के अंदर पहले से ही था और अब ये नई बुराई भी इन लोगों ने पैदा कर दी थी। इन हालात से दुखी होकर अल्लामा इक़बाल ने ये शेर लिखा।
अर्थात:-
व्यंग करते हुए कहते है कि क्या सिर्फ नस्लपरस्ती(जातिगत बड़प्पन के आधार पर किसी को कोई मनसब, पेशवाई, इमामत, खिलाफत आदि देना) और फिरकपरस्ती ही मुस्लिमों में रह गई है? और कोई कायदा क़ानून नहीं है क्या? और क्या ज़माने में आगे बढ़ने के लिए यही दो शर्ते हैं?
[नोट:- 1.आजकल एक दूसरे फ़िरके के मुस्लिम को कुफ़्र के फतवे देने में कमी आई है।
वो इसलिए कि अगर एक फ़िरक़ा खुद को मुस्लिम कहे और दूसरे को काफिर तो ऐसी हालात में मुस्लिमों की संख्या और कम होती है और लोकतंत्र में अशराफ का खेल गड़बड़ाता है। अब ये कहते है कि वो भटके हुए हैं और उन्हें राह पे लाना है।
2.फिरकपरस्ती से पहले इख़्तिलाफ़(मत-विभेद) सिर्फ अशराफ उलेमा के दरमियान थे और सिर्फ दरबार में होते थे।]
पश-ए-मन्ज़र (पृष्टभूमि)/अर्थात:-
मनव्वर राणा यहाँ सैयद जाति की बड़प्पन का बखान करते हुए कहते है कि जिस तरह से पक्षियों में कबूतर सफेद रंग और साफ सुथरा होने की बिना पर औरों से अच्छा समझा जाता है और उसकी सेवा करना पुण्य प्राप्ति का साधन है ठीक वैसे ही सैयद अपनी रंग, कद-काठी और उच्व जाति का होने के कारण मनुष्यों में सर्वोपरि है और उसकी सेवा में कुछ समय व्यतीत करना भी वैसा ही पुण्य प्राप्ति का साधन है। और मैं सैयदों की सेवा में कुछ समय व्यतीत करके बहुत खुश हूँ।
1932 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली किताब “अंगारे” में चार ऐसे लोगों की कहानी थी जो अब तक उर्दू अदब में करैक्टर नहीं बन पाए थे यानि हाशिये पर पड़े पसमांदा लोग। इस किताब का अशराफ वर्ग ने बहुत विरोध किया। यहाँ तक की अंग्रेज़ों से मिल कर इस किताब पर पाबन्दी लगवा दी। 1936 में प्रोग्रेसिव राइटर यूनियन बनने के बाद उर्दू अदब के एक बहुत बड़े हिस्से ने उस वक़्त हो रहे सामाजिक बदलाव का साथ दिया, लेकिन याद रहे शुरू नहीं किया था। लेकिन फिर भी अशराफ ने हमेशा ये कोशिश की कि उर्दू को इस्लाम और मुसलमान से जोड़कर इसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र (secular character) खत्म करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहें। इस प्रकार अपनी इसी सोच के तहत पंजाबी और भक्ति के बहुत से अदब(साहित्य, literature) को उर्दू का हिस्सा नहीं बनने दिया हालाँकि उनमे से बहुत सी रचनाओं की मूल प्रति नस्तालिक़(उर्दू की लिपि जिसमे फ़ारसी भी लिखी जाती है) में लिखी गई थी। आज भी ये पूरी कोशिश है कि उर्दू मुस्लिमों से ही जुड़ी रहे और मुस्लिमों की ज़ुबान बनी रहे।
(आभार: मैं अजमल कमाल, साहित्यकार एवं प्रकाशक, वक़ार अहमद हवारी, राष्ट्रीय महासचिव, आल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज़, खालिद अनीस अंसारी, प्रोफेसर, ग्लोकल विश्वविद्यालय, सहारनपुर का आभार प्रकट करता हूँ जिनके हौसला अफजाई और रहनुमाई के बिना यह लेख नही लिखा जा सकता था।)
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फ़ैयाज़ अहमद फ़ैज़ी लेखक हैं एवं AYUSH मंत्रालय में रिसर्च एसोसिएट के पद पर कार्यरत हैं.
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Faizye saaheb! You always look provocative and analytical. I love to read your article and hear your talks. Salute you for your deep love for India and Indian. Looking forward to meet you and get benefitted from your knowledge. I am a practicing advocate in Chhattisgarh High Court. Thanks. Regards.