Nurun N Zia Momin Edited
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एड0 नुरुलऐन ज़िया मोमिन (Adv. Nurulain Zia Momin)

Nurun N Zia Momin Editedसैयदवाद के समर्थकों अर्थात इबलीसवादियों द्वारा इबलीसवाद【1】(वंश/जन्म आधारित श्रेष्ठता) कायम करने व उसे बरक़रार रखने के लिए फैलाये जा रहे तमाम प्रोपैगंडों में-से एक प्रोपेगंडा ये भी है कि आप सल्ल0 ने फरमाया है कि “खलीफा क़ुरैश से होंगे।” दूसरे शब्दों में “शासक क़ुरैश कबीले से ही होंगे।” इस प्रोपेगंडे को फैलाने वाले सक़ीफ़ा बनू सायदा (एक जगह का नाम) की उस घटना को आधार बनाते है जो आप सल्ल0 की मृत्यु के बाद खलीफा के चुनाव के समय घटित हुई थी। वर्णित घटना के अनुसार अन्सार कबीले के एक व्यक्ति हज़रत साद बिन अबादा रज़ी0 ने आप सल्ल0 की मृत्यु के बाद खिलाफत का दावा पेश किया तो वहाँ पर ये बात आयी कि आप सल्ल0 ने “अइम्मतो मिन क़ुरैश” (अमीर/शासक क़ुरैश से होंगे) कहा था। फलस्वरूप हजरत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ी0 को खलीफा चुना गया था। इस घटना को आधार बनाकर कुछ लोगों द्वारा यहाँ तक कहा जाता है कि उसी वक़्त शक़ीफ़ा की सभा में ही इस मसले पर इजमा (सर्वमान्य व निर्विवादित फैसला) हो गया था कि खलीफा क़ुरैश से ही होंगे और तमाम सहाबा (मुहम्मद साहब के साथियों) ने इस पर इजमा (सर्वसम्मत से निर्णय) कर लिया था कि मोहम्मद सल्ल0 का आदेश है कि खिलाफत के हकदार सिर्फ कुरैशी (मोहम्मद साहब के क़बीले के लोग) ही हैं।

दिमाग सुन्न और आँखे फटी की फटी रह जाती हैं जब उक्त हदीस (कथन) को आधार बनाकर कहा जाता है कि आप सल्ल0 ने फरमाया है कि “अमीर अर्थात शासक कुरैश से ही होंगे।” ऐसा वंश आधारित दावा उस रसूल की तरफ से उस रसूल के कथन को आधार बनाकर निर्दिष्ट किया जाता है जिस रसूल के माध्यम से हमको वह क़ुरआन मिला जो वंश, रंग, जन्म, स्थान आदि के आधार पर श्रेष्ठता को समाप्त करते हुए एलान करता है कि “हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया है फिर तुम्हारी क़ौमें और कबीले (खानदान, बिरादरियाँ) बनाये ताकि तुम एक दूसरे को पहिचानो। वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित (श्रेष्ठ, सम्मानित) वह है जो तुममे सबसे ज़्यादा परहेजगार (धर्मपरायण) है।”【2】 इतना ही नहीं आप सल्ल0 ने हज्जतुलवेदा (हज के) अवसर पर अपने सम्बोधन में, जिसे इतिहास में आख़िरी ख़ुत्बा (अन्तिम भाषण) के नाम से भी जाना जाता है, फरमाया- “आज दौरे जाहिलियत (अज्ञान काल) के तमाम विधान और तौर तरीके खत्म कर दिए गए। ईश्वर एक है और तमाम इन्सान आदम की सन्तान हैं और आदम की हकीकत इसके सिवा क्या है कि वह मिट्टी से बनाये गए। किसी गोरे को न किसी काले पर और न किसी काले को किसी गोरे पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त है, न किसी अरबी को किसी अजमी (गैरअरब) पर और न ही किसी अजमी को किसी अरबी पर कोई श्रेष्ठता प्राप्त है, तुम में वही श्रेष्ठ/प्रतिष्ठित है जो अल्लाह से अधिक डरने वाला है और जिसके कर्म श्रेष्ठ हैं।”【3】

मौलाना अबुल कलाम आज़ाद साहब अपनी पुस्तक मसले खिलाफत【4】में लिखते हैं कि आप सल्ल0 की ज़िन्दगी का कथन व कर्म ही यही रहा कि “वह हममें से नहीं जो नस्ल व क़ौम की खुसूसियत (विशेषता) के तास्सुब की तरफ लोगों को बुलाये वह हममें से नहीं जो इस तास्सुब की हालत में दुनिया से जाये।” मौलाना आज़ाद साहब आगे रक़मतराज है कि आप सल्ल0 ने अपनी ज़िन्दगी में सबसे आखिरी फौजी मुहिम जो भेजी जिसमे हजरत अबूबक्र सिद्दीक़ (रज़ी0) जैसे कद्दावर सहाबा भी मौजूद थे उस फ़ौज की सरदारी ओसामा (रज़ी0) को दी जिनके पिता ज़ैद (रज़ी0) आप सल्ल0 के ग़ुलाम थे ये कुछ लोगों को नगवार लगा जिसपर आप सल्ल0 ने कहा कि “तुम लोग पहले ज़ैद (ओसामा के पिता) की सरदारी पर भी तान (छींटाकशी) कर चुके हो हालाँकि वह उस योग्य था और अब ओसामा (ज़ैद का पुत्र) सरदार बनाया गया है (जिस पर तुम फिर छींटाकशी/ऐतराज कर रहे हो जबकि) वह (भी) उस योग्य है।”

जहाँ तक क़ुरआन व सुन्नत (मुहम्मद साहब के कथन और कर्म), आशारे सहाबा (मुहम्मद साहब के साथियों के कथन) और तमाम दलायल शरइया (क़ुरआन, सुन्नत, इजमा, कयास) व अक़लिया (बोधात्मक तर्क) का सम्बन्ध है ऐसा कोई नियम कत्तई मौजूद नहीं है जिससे साबित हो कि इस्लाम ने खिलाफत व इमामत सिर्फ खानदान क़ुरैश के लिए शरअन मखसूस (धार्मिक रूप से विशेष) कर दिया है। उक्त तथाकथित इजमा अर्थात उक्त दावा, कि हजरत अबू बक्र रज़ी0 को सक़ीफ़ा बनू साइदा में हुई सभा में खलीफा चुनने का कारण उनका कुरैशी होना था, की कलई तो तभी खुल जाती है जब सनन नसई की वह हदीस सामने आती है जिसमें प्रसिद्ध सहाबी अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ी0 द्वारा लगभग-लगभग सभी की सहमति से अबू बक्र रज़ी0 के खलीफा चुने जाने का कारण बयान किया गया है जिसमे आप (अब्दुल्लाह बिन मसूद) फरमाते हैं कि “आप सल्ल0 की मृत्यु के बाद अन्सार कहने लगे कि एक अमीर (खलीफा) हम (अन्सार) में से होगा और एक अमीर (खलीफा) तुम (मोहाजरीन) में से (होगा), तो हजरत उमर रज़ी0 उनके पास आये और कहा क्या तुम लोगों को मालूम नहीं कि रसूल सल्ल0 ने अबू बक्र रज़ी0 को लोगों को नमाज़ पढ़ाने का हुक्म दिया है (ज्ञात हो कि जब आप सल्ल0 बीमार पड़े तो अपनी जगह लोगों की इमामत करने के लिए हजरत अबू बक्र रज़ी0 को आदेश दिया था) तो अब बताओ अबू बक्र रज़ी0 से आगे बढ़ने पर तुम में से किसका जी खुश होगा ? तो लोगों ने कहा हम अबू बक्र रज़ी0 से आगे बढ़ने पर अल्लाह की पनाह माँगते हैं।”【5】 

इतनी स्पष्ट शहादतों (साक्ष्यो,तर्को) के बाद भी किसी के पास क्या आधार बनता है ये दावा करने का कि सहाबा में इस बात पर इजमा हुआ था कि खलीफा क़ुरैश से ही होंगे और इसी इजमा के आधार पर हजरत अबू बक्र रज़ी0 को खलीफा चुना गया था।” ऐसा दावा करने वाले लोग निम्न ऐतिहासिक तथ्यों/घटनाओ पर क्या कहेंगे ?

1-हजरत उमर रज़ी0 ने एक अवसर पर कहा था कि “अगर माज बिन जबल मेरी मृत्यु तक ज़िंदा रहे तो उन्हीं को खलीफा बनाऊँगा।”【6】ये निर्विवाद सत्य है कि माज़ कुरैशी न थे बल्कि अन्सारे मदीना से थे अर्थात उसी क़बीले से थे जिससे साद बिन अबादा थे जिनके खिलाफत के दावे को रद्द करने का आधार इबलीसवाद से ग्रसित लोग कुरैशी न होना बताते है और जिस फैसले का आधार इजमा बताते हैं।

2-एक अन्य अवसर पर हजरत उमर ने कहा था कि “अगर सालिम मौला हुजैफा और अबू उबैदा अलज़र्राह में-से कोई एक मेरी मौत तक ज़िन्दा रहता और खिलाफत उसके सुपुर्द कर देता तो मुझे इस बारे में पूरा इत्मीनान (संतुष्टि) और ऐतमाद (विश्वास) होता।“【7】ये निर्विवादित सत्य है कि इन दोनों में-से कोई भी कुरैशी नहीं थे बल्कि सालिम मौला हुजैफा तो ग़ुलाम थे।

3- इसी प्रकार आप सल्ल0 की चहेती पत्नी उम्मुल मोमिनीन (मुसलमानो की माँ) हज़रत आयशा सिद्दीका रज़ी0 का ये कथन प्रसिद्ध है कि आप (उम्मुलमोमिनीन) ने एक बार कहा था कि “अगर (आप सल्ल0 के ग़ुलाम) ज़ैद ज़िन्दा रहते तो आप उनके सिवा और किसी को अपना जानशीन (खलीफा) न बनाते।”【8】

सवाल खड़ा होता है कि क्या उक्त इजमा (खलीफा क़ुरैश से ही होंगे) की जानकारी हजरत उमर रज़ी0 को नहीं थी जो उन्होंने गैर कुरैशियों के नाम पर खलीफा के लिए विचार किया था? तथा उनके इस विचार पर किसी सहाबी ने उस पर ऐतराज भी नहीं किया? आखिर क्यों? या मुसलमानो की माँ हज़रत आयशा को भी इसकी जानकारी नहीं थी? जो इतने दावे से हजरत ज़ैद के सम्बन्ध में दावा कर रही हैं और कोई भी सहाबा उस पर कुछ बोल भी नहीं रहा है क्या किसी सहाबा को उक्त इजमा की जानकारी ही नहीं थी या सब के सब भूल गए थे ?

सत्यता तो ये है कि सहाबा के मध्य ऐसा कभी न तो कोई इजमा हुआ और न ही क़ुरआन व सुन्नत से ऐसा कोई नियम निकलता है। बल्कि इस इजमा की हकीकत तो ये है कि जिन-जिन विद्वानों के कथनो, पुस्तकों वगैरह से ये इजमा साबित किया जाता है वह सब के सब 12वी-सदी के आखिर या उसके बाद के है जब अब्बासी खिलाफत कायम थी बाद वाले (विद्वानो, लेखको)ने जो कुछ  लिया (लिखा) है उन्ही से ग्रहण किया है।

आप सल्ल0 का ये कथन कि “अपने अमीर (खलीफा, शासक) की आज्ञा मानो चाहे वह हब्शी ग़ुलाम ही क्यों न हो”【9】खुद अइम्मतो मिन क़ुरैश (अमीर/शासक क़ुरैश से होंगे) का ये अर्थ निकालना कि ये बात आप सल्ल0 ने बतौर नियम/क़ानून कही है ऐसे तमाम दावो की हवा निकाल दे रहा है। खुद अब्बासिया वंश के शासन काल (खिलाफत) में कई गैर कुरैशी दावेदार उठे और उनका साथ हजारो मुसलमानो ने दिया जिन पर कभी भी खारिजी या मोताजला【10】होने का किसी ने आरोप नहीं लगाया। इससे स्पष्ट होता है कि उन दावेदारों का साथ देने वाले यकीन करते थे कि गैर कुरैशी खलीफा हो सकता है।       

इस्लाम ने खिलाफत को न किसी क़ौम के लिये विशेष किया है और न किसी खानदान में और ये हदीस “अल अइममतो मिन क़ुरैश” (अइम्मा/खलीफा क़ुरैश से होंगे) कोई आदेश व नियम नहीं है बल्कि सिर्फ एक भविष्यवाणी और खबर है कि ऐसा होगा ये नहीं है कि ऐसा करना चाहिए। जैसा कि तेरहवीं सदी के प्रसिद्ध मोजद्दिद (नवीनीकरण करने वाला) व फ़िकह-ए-हदीस (हदीस का ज्ञाता) इमाम शौकानी यमनी अपनी पुस्तक वबलुल ग़ोमाम【11】में खिलाफत में शर्त क़ुरैशियत के तर्कों को नकल करते हुए लिखते हैं कि “यद्यपि इमाम क़ुरैश कि रवायत में ऐसे शब्द हैं जिनसे क़ुरैश की विशेषता मालूम होती है लेकिन सर्वोच्च नेतृत्व के आज्ञाकारी होने के जो सामान्य मापदंड क़ुरआन व सुन्नत में मौजूद है उन साक्ष्यो व तर्को से स्पष्ट होता है कि गैर कुरैशी की भी आज्ञा मानना उम्मत पर क़ुरैशी ही की तरह वाजिब (अनिवार्य) है बाकी रही ये बात आप सल्ल0 ने क़ुरैश में इमामत की खबर दी है तो उससे ये अनिवार्य नहीं आता कि उनके सिवा कोई दूसरा अमीर (शासक) हो ही नहीं सकता, ये वैसी ही खबर है जैसी इस बारे में खबर है कि अज़ान का काम अहले हबस (हबश अर्थात इथोपिया के रहने वाले) में है और क़ज़ा (न्यायिक कार्य) अन्सारियों में। जिस तरह इन रवायतों से ये बात नहीं निकलती कि आज़ान देने वाला सिर्फ हब्शी और न्यायिक अधिकारी सिर्फ अन्सारी होना चाहिए उसी तरह ये बात भी साबित नहीं होती कि इमाम (अमीर/शासक) सिर्फ कुरैशी ही हो सकता है जो जवाब इनका दिया जायेगा वही उसका होगा।” 

सन्देह व इबलीसवादियों की साज़िशों के तमाम परदे उस समय चाक-चाक हो जाते है जब तिरमिज़ी की वह हदीस (मुहम्मद साहब का कथन) सामने आ जाती है जिसमे इमारत (खिलाफत) के साथ-साथ दो और बातों का ज़िक्र उसी सिलसिले और परिप्रेक्ष्य में किया गया है “अल अइम्मतो मिन क़ुरैश” (खलीफा क़ुरैश से होंगे) वाली हदीस यद्यपि कई रावियो (मुहम्मद साहब के कथनों को बयान करने वालों) से नकल की गयी है लेकिन सबसे अधिक प्रसिद्ध कड़ी अबू हुरैरा, जाबिर बिन समरा और इब्ने उमर पर जाकर खत्म होती है और इमाम मुस्लिम, अहमद, अबू दाऊद, तयालसी, तबरानी के तमाम तरीक (कड़ी) तो हज़रत अबू हुरैरा की रवायत (बयान/वर्णन) से निकले हैं उन्ही अबू हुरैरा से सनद (प्रमाण) के साथ अबू मरियम अन्सारी तिरमिज़ी ने रवायत किया है कि “खिलाफत क़ुरैश में होगी, क़ज़ा (न्यायिक कार्य) अन्सार में और अज़ान व दावत (इस्लाम की ओर लोगों को बुलाने का कार्य) अहले हबश में।”

उक्त रवायत/हदीस (खिलाफत क़ुरैश में, न्यायिक कार्य अन्सार में व अज़ान व दावत का काम अहले हबश में होगा) के आधार पर प्रोफेसर मौलाना मसूद आलम फलाही साहब अपनी क्रांतिकारी पुस्तक हिन्दुस्तान में ज़ात-पात और मुसलमान में लिखते हैं कि- “इस रवायत (हदीस) में एक साथ तीन बातों का ज़िक्र है। खिलाफत क़ुरैश में, क़ज़ा व हुक्म (आदेश व न्यायिक कार्य) अन्सार में, आज़ान व दावत अहले हबश में। स्पष्ट है जो अर्थ एक बात के होंगे वही शेष दोनो के होंगे और जो अर्थ (बाद क़ी) दो बातों का होगा वही पहली बात का भी होगा। अगर पहली बात (क़ुरैश की हुकूमत) बयान हाल (तत्कालिक परिप्रेक्ष्य में परिस्थितिनुसार उठाया गया कदम) और भविष्यवाणी नहीं बल्कि आदेश व क़ानून है तो शेष दोनों कथनो को भी आदेश व क़ानून क़रार देना पड़ेगा। यानी मानना पड़ेगा कि न्यायिक अधिकारी हमेशा अन्सारी ही होना चाहिए और अज़ान देने वाला हब्शी के सिवा दूसरा हो ही नहीं सकता। लेकिन मालूम है कि आज तक न किसी ने ऐसा कहा न ये मतलब समझा, न न्यायिक कार्य व अज़ान के लिए कोई शरई शर्त मुल्क व नस्ल का तस्लीम किया गया है।”【12】

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【1】-इबलीसवाद अर्थात जन्म आधारित श्रेष्ठता का सिद्धांत। इबलीसवाद की विस्तृत जानकारी के लिए लेखक का एक अन्य लेख “सैयदवाद ही इबलीसवाद है?” 
【2】-सूरः हजरात 13वी आयत।
【3】-तिरमिज़ी, बैहिकी।
【4】-पेज 103, प्रकाशक-मकतबा जमाल उर्दू बाजार लाहौर, पकिस्तान वर्ष 2006 ई0।
【5】-सनन नसई बाब-इमाम के अहकाम व मसायल (इमामत सम्बन्धी अध्याय)
【6】-मुसनद अहमद बहवाला मसले खिलाफत-मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, पेज 114, प्रकाशक-मकतबा जमाल उर्दू बाज़ार लाहौर, पाकिस्तान वर्ष 2006 ई0।
【7】-मुसनद अहमद बहवाला मसले खिलाफत-मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, पेज 114, प्रकाशक-मकतबा जमाल उर्दू बाज़ार लाहौर, पाकिस्तान वर्ष 2006 ई0।
【8】-मसले खिलाफत-मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, पेज 103, प्रकाशक-मकतबा जमाल उर्दू बाज़ार लाहौर, पाकिस्तान वर्ष 2006 ई0।
【9】-अबू दाऊद(किताबुलसुन्ना), तिरमिज़ी(किताबुलइल्म)।
【10】-दो ऐसे फिरके जिसे इस्लाम से सम्बंधित लगभग अन्य सभी फिरके मुस्लिम स्वीकार नहीं करते।
【11】-बहवाला मसले खिलाफत-मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पेज 119-120 प्रकाशक उर्दू बाज़ार लाहौर पाकिस्तान वर्ष 2006 ई0।
【12】-पेज 330 प्रकाशक-आइडियल फाउंडेशन मुम्बई फ़रवरी वर्ष 2009 ई0।

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नुरुल ऐन ज़िया मोमिन ‘आल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ ‘ (उत्तर प्रदेश) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. उनसे दूरभाष नंबर 9451557451, 7905660050 और nurulainzia@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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