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सतविंदर मदारा (Satvendar Madara)

अदालतों में SC, ST और OBC की भागीदारी न के बराबर
इसके पहले भी सुप्रीम कोर्ट से कई ऐसे फैसले आये थे, जिन्हें लेकर SC, ST और OBC की जातियों में यह धारणा थी कि क्योंकि ज़्यादातर जज ब्राह्मण होते हैं, इसलिए वो अकसर उनके विरोध में फैसले देते हैं। कानून के जानकार यह बात बार-बार कहते रहे हैं कि अदालतों का काम कानून बनाना नहीं बल्कि जो कानून संसद बनाती है, उसी को आधार बनाकर न्याय करना है। लेकिन फिर भी यह सिलसिला जारी रहा, जिससे SC, ST और OBC जातियां हमेशा अपने साथ अन्याय होता महसूस करती रही। जब 20 मार्च को SC-ST Act के खिलाफ फैसला आया तो काफी समय से दबा हुआ यह गुस्सा फूट पड़ा।
20 मार्च के बाद से ही 2 अप्रैल के बंद की पोस्टें तो वायरल हो ही चुकी थी; बंद से कुछ दिन पहले इसकी तैयारियों की पोस्टें भी वायरल होनी शुरू हो गई। सरकारों को भी इस बात का अहसास हुआ कि यह कोई सोशल मीडिया में चल रही अफवाह नहीं बल्कि सच में भारत बंद होने जा रहा है। देश में सबसे ज़्यादा SC आबादी वाले पंजाब में जहां पहले भी कई बड़े अनुसूचित जातियों के आंदोलन हो चुके हैं, राज्य सरकार ने घबरा कर 2 अप्रैल को इंटरनेट और स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी किया।
सवर्ण जातियाँ विरोध में और बहुजन समाज (OBC+SC+ST+Minority) समर्थन में।
जैसे ही 2 अप्रैल की सुबह हुई, लाखों लोगों के सड़कों पर उतरने की फोटो, वीडियो और खबरें सोशल मीडिया पर आईं। बहुत सारे TV चैनलों, जो कि ज़्यादातर ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरे पड़े हैं और आम तौर पर SC, ST और OBC से जुड़े मुद्दों पर चुप्पी ही बनाये रखते हैं, उन्हें भी मज़बूर होकर सफल हो रहे इस बंद की खबरें दिखानी पड़ी। दोपहर होते-होते इस बंद ने पुरे भारत, उसमें भी खासकर उत्तर भारत को अपनी चपेट में ले लिया। शांतिमय तरीके से चल रहे इस बंद की कामयाबी को देखकर ब्राह्मणवादी लोगों ने इसमें हिंसा भड़काई और मीडिया ने इसे बदनाम करने का काम शुरू किया। ग्वालियर में एक शख्स को पीछे से भीड़ पर गोली चलाते हुए TV चैनलों पर दिखाया जाने लगा और यह प्रचार किया गया कि यह बंद हिंसक हो उठा है। लेकिन जल्द ही उस शख्स में बारे में पता चला कि न सिर्फ वो राजपूत जाति से सम्बन्ध रखता है बल्कि BJP का कार्यकर्ता भी है। इस वजह से शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर रहे कुछ अनुसूचित जाति के निर्दोष युवक शहीद हुए। इससे यह बात भी साफ हुई कि इस बंद के विरोध में सिर्फ सवर्ण जाति के ही लोग थे और पूरा बहुजन समाज (OBC+SC+ST+Minority) इसके हक़ में था।
महिलाओं और युवाओं की रिकॉर्ड-तोड़ भागीदारी

एक और बहुत ही सकारात्मक बात यह रही कि इस बंद में बहुजन समाज की महिलाओं और युवाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। यह बात आम तौर पर मानी जाती थी कि फूले-शाहू-अम्बेडकर आंदोलन में SC, ST और OBC के पुरुष तो बहुत बड़ी तादाद में जुड़ चुके हैं, लेकिन इसमें महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है। दूसरा, कोई भी क्रांति युवा पीढ़ी के बिना नहीं हो सकती और ऐसा लगने लगा था की इस आंदोलन में ज़्यादातर उम्र दराज लोग ही हैं और युवाओं का इसके प्रति कोई ज़्यादा लगाव नहीं है। लेकिन जब बंद करवाने के लिए सड़कों पर उतरे लाखों बहुजन समाज के लोगों की तस्वीरें और वीडियो सामने आई; तो बड़े पैमाने पर महिलाओं और युवाओं की भागीदारी देखकर सबको इस बात का एहसास हुआ कि अब इस आंदोलन ने इन दोनों कमियों को भी पूरा कर लिया है।
अनुसूचित जातियों की अंदुरनी एकता
अनुसूचित जातियां एक वर्ग के तौर पर भी हमेशा आपस में बंटी रही और आपसी एकता न होने के कारण ब्राह्मणवादी लोग इसका लगातार फ़ायदा उठाते रहे। लेकिन जो काम पिछले डेढ़-दो सौ सालों में हमारे महापुरुष नहीं कर पाए, वो सुप्रीम कोर्ट के ब्राह्मण जजों ने कर दिखाया। SC-ST Act को कमज़ोर करने का असर सभी SC की जातियों पर एक सा ही पड़ा और सबको महसूस हुआ कि अब तो आपस में बंटे रहने का कोई कारण ही नहीं बचा है। जो भी इस बंद में शरीक नहीं होगा वो खुद अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारेगा। अनुसूचित जाती की सभी जातियां कंधे से कंधा मिलाकर पहली बार एक साथ सड़कों पर उतरी और पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के साथ मिलकर एक नया इतिहास रचा गया।
सोशल मीडिया की ताक़त
पिछले कुछ समय में जिस तरह से सोशल मीडिया का प्रभाव बढ़ा और OBC,SC,ST के लाखों लोगों, खासकर युवाओं ने अपने महापुरुषों के विचारों का प्रचार करना और अपनी राय रखनी शुरू की – तो कई लोगों के मन में यह सवाल था कि आखिर इस सबका क्या फ़ायदा ? क्या कभी कोई आंदोलन सोशल मीडिया के बल पर खड़ा हो सकता है? लेकिन 2 अप्रैल के इस कामयाब बंद ने साबित कर दिया कि हाँ, इसका फ़ायदा हो सकता है। अगर हम अपने महापुरुषों के विचारों का प्रचार और मौजूदा सभी विषयों पर अपनी राय रखें तो करोड़ों लोगों को नींद से जगाया जा सकता है। बाबासाहब के यह वचन कि “विचार, तोप-तलवारों से भी कहीं ज़्यादा ताक़तवर होते हैं और क्रांतियां विचारों की कोख से जन्म लेती हैं” सही साबित हुए।
जागरूक हुआ बहुजन समाज
इस बंद में हैरान कर देने वाली बात यह भी थी कि अब बहुजन समाज, वो भी खासकर अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों में फूले-शाहू-अम्बेडकर चेतना इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी है कि वो किसी भी बड़े आंदोलन को बगैर किसी बड़े नेता और संगठन के चलाने की क्षमता रखते हैं। भले ही वो छोटे-बड़े संघठनों में बंटे हुए हों, लेकिन जब बात पुरे समाज के हितों की हो तो वो एक साथ लाखों की संख्या में सड़कों पर उतरने को तैयार हैं। यह दर्शाता है कि अब यह समाज अपने महापुरषों की विचारधारा से जुड़ चुका है और अपने नफ़े-नुकसान को समझने की क्षमता विकसित कर चुका है। जब समाज मुर्दा हो तो उसे जगाने के लिए एक बहुत ही महान व्यक्तित्व की ज़रूरत होती है, लेकिन जब समाज अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो जाये, तो वो अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहता है।

ब्राह्मणवादी सवर्ण जातियों ने इसे SC बनाम OBC बनाने की भी बहुत कोशिश की, लेकिन इसमें उन्हें सफलता मिलनी तो बहुत दूर रही, उलटे ढेरों पिछड़ी जातियों के संगठन और राजनीतिक दल इसके साथ आए। राष्ट्रिय जनता दल के युवा नेता तेजस्वी यादव जो कि पिछले कुछ समय से पुरे बहुजन समाज के अधिकारों के लिए अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं – ने एक कदम और आगे बढ़ाते हुए अपने विधायकों के साथ SC-ST Act को दुबारा सख्त करने के लिए पटना में मार्च भी किया।
सत्ता संघर्ष से निकलती है – साहब कांशी राम
साहब कांशी राम हमेशा इस बात को याद दिलाते थे अगर हमे सत्ता प्राप्त करनी है तो बहुजन समाज को संघर्ष करना होगा। जो सड़कों की लड़ाई लड़ेगा, दिल्ली के तख़्त का वहीं दावेदार होगा। 2 अप्रैल को बहुजन समाज ने यह दिखा दिया कि चाहे अब वो हमारे बीच न हो, लेकिन उनके द्वारा दिखाया गया संघर्ष का रास्ता हम भूले नहीं हैं। अगर बहुजन समाज के अधिकारों को खत्म करने की साजिशें हुई, तो वो सड़कों पर उतरने के लिए तैयार बैठा है और मनुवादियों का सिंघासन कभी भी हिला सकता है।
पुरे भारत में फैला फूले-शाहू-अम्बेडकर आंदोलन
1848 में महात्मा जोतीराव फूले के नेतृत्व में शुरू हुई यह समाजिक क्रांति पहले महाराष्ट्र और फिर दक्षिण में तमिलनाडु और केरल तक सीमित थी। उत्तर भारत में पंजाब व पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पूर्व में बंगाल में ही इसका असर था। साहब कांशी राम ने इसे जम्मू-कश्मीर, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, पुरे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में पहुँचाया। लेकिन राजस्थान, गुजरात और ओडिशा में इसे कोई ज़्यादा सफलता नहीं मिली थी। लेकिन बंद के दौरान सबसे पहले जिन राज्यों से खबरें आईं, उसमें राजस्थान, गुजरात और ओडिशा अव्वल थे। खासकर राजस्थान सबसे आगे दिखा। इससे अब फूले-शाहू-अम्बेडकर के आंदोलन का पूरे उत्तर और पूर्वी भारत में फ़ैल जाने का भी संकेत मिलता है। महाराष्ट्र और दक्षिण भारत तो पहले ही इसका गढ़ रहे हैं, अब यह विचारधारा देश के चप्पे-चप्पे तक पहुँच चुकी है और सिर्फ अनुसूचित जाति ही नहीं बल्कि पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंखयक भी इसके साथ जुड़ चुके हैं। अगर ब्राह्मणवाद देश के हर कोने में फैला हुआ है तो उसका मुक़ाबला करने के लिए यह मानवतावादी सोच भी देश की सभी दिशाओं में पहुँच चुकी है।

साहब कांशी राम ने महाराष्ट्र के अपने एक भाषण में कहा था कि इस देश में अगर कोई सही ध्रुवीकरण होगा तो वो “Status-quo”(यथास्थितिवादी) बनाम “Change”(परिवर्तन) होगा। एक तरफ 15% आबादी वाली ब्राह्मणवादी ताक़तें होंगी जो समाज में गैर-बराबरी बनाये रखना चाहती हैं और दूसरी तरफ 85% आबादी वाला बहुजन समाज होगा जो इस गैर-बराबरी वाली व्यवस्था को बदल कर एक बराबरी वाला समाज बनाना चाहता है। 2 अप्रैल को इस ध्रुवीकरण की झलक साफ़ दिखाई दी।
उनका दिया हुआ नारा “21वी सदी हमारी है, अब बहुजन की बारी है” बहुत जल्द हक़ीक़त में बदलने वाला है।
इस आंदोलन में शहीद हुए बहुजन युवाओं को सलाम।
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सतविंदर मदारा पेशे से एक हॉस्पिटैलिटी प्रोफेशनल हैं। वह साहेब कांशी राम के भाषणों को ऑनलाइन एक जगह संग्रहित करने का ज़रूरी काम कर रहे हैं एवं बहुजन आंदोलन में विशेष रुचि रखते हैं।