रितु कुमारी (Ritu Kumari)
मुझे बहुत गंदी बू आ रही है। भीतर से सड़े हुए एक समाज की गंदी बू, जो सबको अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए बराबर हक देना तो दूर, उनके साथ हुई बर्बरता को देख कर ठहाके लगाता है और अपनी आंखें मूंद लेता है। मुझे ऐसे लोगों के उच्च-जातीय दुराग्रहों और कुंठाओं से लैस होने, समाज के एक हिस्से को हमेशा अपने पैरों तले दबा कर रखने की उनकी घटिया मानसिकता की बू आ रही है।
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ये एक लोकतांत्रिक कहे जाने वाले समाज का पिछड़ापन और वीभत्सता ही है कि उसके एक हिस्से को अपने खिलाफ किए गए अपराध की शिकायत दर्ज करवाने के लिए आन्दोलन करना पड़ता है और सरकारें उनका वह हक देने के बजाय अपने प्रशासनिक अमलों के जरिए उन पर लाठियां चलवाती है। क्रूरता और बर्बरता के साथ आंदोलन का दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती है। तर्क होता है कि आंदोलन कर रहे लोग हिंसा कर रहे थे। लेकिन एक लोकतांत्रिक देश में इससे भी ज्यादा अमानवीय और अन्यायपूर्ण बात यह है कि सब कुछ जानते हुए भी कि अपने सम्मान और हक के लिए आवाज उठाने के एवज दलित-वंचित जातियों के जो लोग हिंसा में मारे गए, पुलिस ने जिन पर लाठियां बरसाईं, उन्हें ही हिंसा फैलाने वाले उपद्रवी और दंगाई के रूप में पेश किया गया। यह किस समाज का चेहरा है? हमें किस समाज पर गर्व करने की दुहाई दी जाती है? क्या इस चेहरे वाला समाज हमारा हो सकता है?
जो लोग अब सड़क पर उतर कर अपना दुख और आक्रोश जाहिर कर रहे हैं, अपने अधिकारों के हनन के खिलाफ बोलने लगे हैं, राजनीति और समाज की सत्ताधारी ताकतें उन्हीं दलितों को हिंसक और दंगा भड़काने वालों के रूप में पेश करके उनके दमन-उत्पीड़न को सही ठहराने की कोशिश में लगी हैं। हिंसा के शोर में दलित-वंचित जातियों के लोकतांत्रिक और मानव अधिकारों की बात को सिरे से गायब कर दिया जाता है। सवाल है कि ऐसा करने के पीछे किस तरह की साजिश काम कर रही है? आखिर वे लोग कौन हैं जो सिर्फ अपने शोषण के खिलाफ सड़क पर उतरने के एवज दलितों को हिंसक और दंगा भड़काने वालों के रूप में पेश कर रहे हैं? इनकी सोशल प्रोफाइल पीछे तक टटोलिए। साफ दिखेगा कि हिंसा के लिए फिक्र जताने वाले इन लोगों को यह खोजने की फिक्र नहीं है कि दलितों के आंदोलन में घुसपैठ करके हिंसा करने वाली धूर्त ताकतें उन्हीं के भाई-बंधु हैं।
सवाल है कि हिंसा के लिए चिंतित होने वाले ये पर्दाधारी लोग और समूह अपनी चिंता के लिए सुविधा से घटनाएं क्यों चुनते हैं? कुछ महीने पहले जब दिल्ली के दयाल सिंह कॉलेज के आशीष को उसकी जाति की वजह से बुरी तरह मारा-पीटा गया, तब भी क्या उन्होंने हिंसा का विरोध किया था? इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक दलित छात्र दिलीप सरोज को पीट-पीट कर मार डाला गया, तो उनकी जुबान पर ताले क्यों लगे थे! गुजरात के ऊना में दलितों के साथ हुई हिंसा के बारे में उनकी फिक्र कहां गायब थी और यहां तक कि फेसबुक प्रोफाइल पर भी क्यों चुप्पी छाई थी?
वे उन घटनाओं पर क्यों चुप दिखते हैं, जिनमें किसी दलित को सिर्फ घोड़े की सवारी पर की वजह से जान से मार दिया जाता है? वे तब क्यों चुप रहते हैं जब किसी दलित के घोड़ी पर सवार होकर बारात निकालने पर पत्थर बरसाए जाते हैं? वे उन घटनाओं पर क्यों चुप रह जाते है जहां दलितों की पूरी की पूरी बस्ती जला कर खाक कर दी जाती हैं? हरियाणा के मिर्चपुर, गोहाना, झज्जर-दुलीना या देश भर में दलितों पर हमलों, उनके घर और बस्तियां जला दिए जाने पर उनकी आवाज कहां गायब हो जाती है? वे उन खबरों पर क्यों चुप रह जाते हैं जिसमें दलित विद्यार्थियों ने अपने साथ होने वाले भेदभाव और उत्पीड़न के कारण आत्महत्याएं कर लीं?
ऐसी ही तमाम हिंसक घटनाएं रोज गुजरती होती हैं, जिन पर वे सुविधा की चुप्पी ओढ़े बैठे रहते हैं, लेकिन दलितों के आंदोलन में घुसपैठ करके या फिर उसके खिलाफ हिंसा करने वालों की असलियत जानने के बावजूद वे हिंसा के लिए दलितों को जिम्मेदार ठहरा देते हैं। हकीकत को दबाने की तमाम कोशिशों के बावजूद जब सच किसी तरह फिसल कर बाहर आ जाता है, लोगों के सामने वे चेहरे सामने आते हैं, जिन्होंने दलितों के आंदोलन को हिंसक चेहरा देने, दलितों को मारने में हाथ बंटाया, तब ये चुप्पी साध लेते हैं। क्या उनकी चुप्पी को और उन्हें पहचानना अब भी इतना मुश्किल रह गया है?
सवाल है कि जो लोग अपने सामाजिक वर्चस्व को कायम रखने के लिए दलित-वंचित जातियों के खिलाफ हिंसा, यातना, उत्पीड़न के हर चेहरे को अपना हथियार बनाते रहे हैं, वे आज अचानक से हिंसा के विरोध में कैसे हो गए? इनका हिंसा का विरोध इतना चुनिन्दा क्यों हैं? दलितों-वंचितों का आंदोलन तो उन्हें सामाजिक-राजनीतिक से लेकर शाब्दिक हिंसा का शिकार होने से बचाने वाले एससी-एसटी (उत्पीड़न निवारण) कानून को कमजोर करने के खिलाफ था! तो फिर दलितों पर हिंसा और जुल्म पर चुप बैठे लोगों ने आखिर अब अचानक आरक्षण के खिलाफ इतना क्यों बोलना शुरू कर दिया? इस शोर में वे एस-एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज कराने के सवाल को गोल क्यों करना चाह रहे थे? कहीं ऐसा तो नहीं कि अब इन्हें अंदाजा हो गया है कि दलित-वंचित जातियों के लोगों ने इनके वर्चस्व की हिंसा और उसकी राजनीति के सूत्रों को पहचानना शुरू कर दिया है, वे उसके खिलाफ सड़क पर उतरने लगे हैं और इससे ब्राह्मण-वर्चस्व वाली जातियों की सामाजिक सत्ता खतरे में पड़ सकती है!
अब तक सामाजिक वर्चस्व वाली जाति में पैदा होने के आरक्षण का फायदा उठाने वाले ये लोग मेरिट की दुहाई देते हुए फिर से आरक्षण के खिलाफ इतना क्यों बोलने लगे हैं? ये लोग दलितों के अधिकार के सवाल को गोल-मोल क्यों कर देना चाहते हैं? ये क्यों नहीं चाहते कि नीची कही और समझी जाने वाली जाति का कोई व्यक्ति अपने खिलाफ हुए अपराध को उसी तरह दर्ज करा सके, जिस तरह कोई समर्थ जाति वाले करा सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हें पता है कि दलितों के खिलाफ अपराध और उन पर बर्बरता ढाने वाले लोग कौन हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि इन्हें अपने पुरखों से विरासत में मिली सामाजिक और राजनीतिक सत्ता के छिन जाने का डर सता रहा है? आरक्षण का विरोध करने के लिए मेरिट की दुहाई देने वाले ये लोग सामाजिक और हर तरह की बराबरी से इतना क्यों डरते हैं? जब दलित अपने अधिकार के लिए आन्दोलन करते हैं और प्रशासन के हाथों मारे जाते हैं, तब ये चुप क्यों होते हैं? इनके पुरखों ने दलितों पर जो हिंसा की, उस पर ये चुप क्यों हैं? इनके पुरखों ने जो अपराध किए, उस पर ये चुप क्यों हैं? एक लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा होने के बावजूद आज भी जब दलितों के खिलाफ हिंसा होती हैं, उस पर ये चुप क्यों होते हैं?
मुझे बहुत गंदी बू आ रही है। भीतर से सड़े हुए एक समाज की गंदी बू, जो सबको अपनी सुरक्षा और सम्मान के लिए बराबर हक देना तो दूर, उनके साथ हुई बर्बरता को देख कर ठहाके लगाता है और अपनी आंखें मूंद लेता है। मुझे ऐसे लोगों के उच्च-जातीय दुराग्रहों और कुंठाओं से लैस होने, समाज के एक हिस्से को हमेशा अपने पैरों तले दबा कर रखने की उनकी घटिया मानसिकता की बू आ रही है। यह बू मनु के जहरीले सिद्धांतों वाले दौर में मेरे पुरखों ने महसूस की थी, झेली थी और आज इक्कीसवीं सदी का सफर तय करते आधुनिक कहे जाने वाले भारत में मैं भी या मेरी पीढ़ी के तमाम युवा और बच्चे भी इस बू को महसूस कर रहे हैं..!
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