एड0 नुरुलऐन ज़िया मोमिन (Adv. Nurulain Zia Momin)
जब कभी मुसलमानों में विद्यमान जाति व्यवस्था अथवा मुस्लिम समाज में स्थापित जाति आधारित ऊँच-नीच की मान्यता का मुद्दा किसी व्यक्ति अथवा संगठन विशेषकर पसमांदा आन्दोलन से संबंधित संगठनों द्वारा अपने हक-अधिकार व मान-सम्मान【2】 हेतु उठाया जाता है तो फौरन एक स्वर में तथाकथित (धार्मिक, सियासी, सामाजिक वगैरह) मुस्लिम रहनुमाओं द्वारा उसका बड़े तीखे स्वर में विरोध किया जाता है और जाति आधारित ऊँच-नीच का विरोध करने की जगह बड़े ही सधे हुए जुमलों में दो टूक कह दिया जाता है कि “इस्लाम में न तो किसी प्रकार की कोई जाति व्यवस्था है और न ही इसके लिए इस्लाम में कोई स्थान है. हाँ, मुसलमानों के अन्दर जाति व्यवस्था रूपी जो भी खराबी पाई जाती है वह भारतीय संस्कृति, दूसरे शब्दों में, हिन्दू धर्म व भारतीय परम्पराओं की देन है जो मुसलमानों में हिंदुओं के साथ रहते-रहते आ गई है.” कुछ लोग ऐसे भी हैं जो मुसलमानों को नाम के साथ जाति लिखने से मना भी करते हैं. उनका मानना हैं कि ये गैर इस्लामी तरीका है. कुछ लोग तो बड़ी ढिठाई से सीधे-सीधे यही मानने से इनकार कर देते हैं कि मुस्लिम समाज में किसी प्रकार की जाति व्यवस्था विद्यमान नहीं है, ऊँच-नीच तो खैर बहुत दूर की बात है.
हालाँकि हर किसी को ये पता है कि उक्त दावे का न तो कोई आधार है और न ही इसकी सच्चाई से दूर-दूर तक कोई सरोकार है. लेकिन हैरत की बात ये है कि आखिर कोई व्यक्ति, वह मुस्लिम हो या गैरमुस्लिम किस आधार पर कह सकता है कि-
1- इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है अर्थात इस्लाम जाति व्यवस्था का विरोधी है? या
2- किसी मुसलमान को नाम के साथ जाति नहीं लिखनी चाहिए व् ये गैर इस्लामी तरीका है?
आखिर इनके इन दावों का क्या आधार है? किस आधार पर ये लोग कहते हैं कि इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है? जबकि क़ुरआन स्वयं एलान करता है कि “हमने तुमको एक मर्द और एक औरत से पैदा किया है, फिर तुम्हारी क़ौमें और कबीले (खानदान, बिरादरियाँ/जातियाँ) बनाए ताकि तुम एक दूसरे को पहचानो. वास्तव में अल्लाह की दृष्टि में तुममें सबसे ज़्यादा प्रतिष्ठित (श्रेष्ठ, सम्मानित) वह है जो तुममे सबसे ज़्यादा परहेजगार (धर्मपरायण) है.”【3】
क़ुरआन की उक्त आयत का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि मानव को जातियों (क़बीलों) में अल्लाह ने बाँटा है ताकि हम एक दूसरे को पहचान सकें अर्थात जातियाँ/कबीले हमारी पहचान का साधन हैं. यही कारण था कि सहाबा अपने नाम के साथ क़बीले के उल्लेख को गलत नहीं समझते थे. आप सल्ल0 का ये कथन कि “अमीर/खलीफा क़ुरैश से, न्यायिक अधिकारी अन्सार से और दावत व अज़ान का काम अहले हबश में.”【4】स्वयं इस्लामी सिद्धांत में क़बीले/जाति के महत्व को दर्शाता है.
यदि कोई ये कहता है कि क़ुरआन कबीले की बात करता है जाति की नहीं तो उन महानुभाव से मैं ये अवश्य जानना चाहूँगा कि-
1- यदि भारत में जाति व्यवस्था अरब के कबीलाई व्यवस्था का पर्याय (बदल) नहीं है तो फिर हमारी पहचान का कबीले की जगह दूसरा कौन सा साधन है?
2- यदि हमारी जातियाँ ही हमारे क़बीले नहीं है तो हमारे क़बीले का नाम क्या है अर्थात हमारी पहचान क्या है?
निःसन्देह सच्चाई यही है कि अरब में जिस परिप्रेक्ष्य व अर्थों में कबीले का प्रयोग किया जाता था तथा किया जाता है भारत में सदैव से उन्हीं परिप्रेक्ष्य व अर्थों में जाति का प्रयोग किया जाता रहा है. दरअसल इस्लाम न तो जाति व्यवस्था का इनकार कर रहा है और न ही इसका विरोधी है. इस तथ्य को जाति का इनकार करने वाले तथाकथित मुस्लिम रहनुमा भी भली भांति जानते हैं लेकिन ये इसका इनकार इसलिए कर रहे हैं क्योंकि यदि इन्होंने इस्लाम व मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था को स्वीकार कर लिया तो इनको आज नहीं तो कल अवश्य आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, जमीयत ओलमाए हिन्द, मिल्ली काउन्सिल, ओलमा मसायख बोर्ड, सहित अन्य तमाम संस्थाओं, शाही व बड़ी मस्जिदों, मदरसों, अन्य मुस्लिम संगठनों, मुस्लिमों के नाम पर बने राजनीतिक दलों वगैरह में मुस्लिम समाज में मौजूद हर जाति को अपने साथ जोड़े रखने व एकता बनाये रखने के लिए उसी प्रकार प्रतिनिधित्व देना पड़ेगा जैसे तमाम फिरको में एकता बनाये रखने व अपने साथ जोड़े रखने के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में हर फिरके के लोगों को प्रतिनिधित्व देना पड़ रहा है तथा इसी प्रकार सभी राजनैतिक दलों व सरकारी संस्थाओं में जाति के आधार पर सभी जातियों को राजनीतिक पार्टियाँ व सरकारें प्रतिनिधित्व देने लगेंगी जहाँ अभी ये तथाकथित अशराफ (सैयद, शेख, मिर्ज़ा वगैरह) मुस्लिम के नाम पर सभी जातियों के हिस्से पर पहले दिन से ही कुण्डली मारकर नाजायज़ तरीके से क़ब्ज़ा जमाये हुए है.
सत्य ये है कि इस्लाम जाति का नहीं बल्कि जन्म अर्थात जाति/क़बीले आदि के आधार पर ऊँच-नीच का विरोधी है. मौलाना अबुल कलाम आज़ाद साहब अपनी पुस्तक मसले खेलाफत【5】में लिखते हैं कि आप सल्ल0 की ज़िन्दगी का कथन व कर्म ही यही रहा कि “वह हममें से नहीं जो नस्ल व क़ौम की खुसूसियत (विशेषता) के तास्सुब की तरफ लोगों को बुलाए. वह हममें से नहीं जो इस तास्सुब की हालत में दुनिया से जाये.”
जैसा कि प्रसिद्ध हदीस की पुस्तक “मुस्लिम शरीफ” में आप सल्ल0 का कथन है कि “दो चीजें ऐसी हैं कि अगर लोगों में पाई जाएँ तो वह उन्हें कुफ़्र के दर्जे तक पहुँचा देती हैं. एक नसब (वंश/जाति) में ताअन (अर्थात दूसरों को कमज़ात और नीच समझना) और दूसरी मय्यत पर नौहा करना.”
उपरोक्त अध्ययन (क़ुरआनी आयत व हदीस) से स्पष्ट हो जाता है कि इस्लाम जातीय व्यवस्था का नहीं बल्कि इबलीसवादी विचारधारा का विरोधी है. इसलिए नाम के साथ जातियाँ न लिखने की नसीहत करने वालों को अपनी जाहिलाना व इबलीसवादी सोच खत्म करने की आवश्यकता है न कि नाम के साथ जातियों को लिखने की परम्परा समाप्त करने की आवश्यकता है, क्योंकि जातियाँ व्यक्ति की पहचान का साधन हैं. अपनी पहचान बरक़रार रखिये. अगर खत्म करना है तो इबलीसवाद (जन्म आधारित ऊँच-नीच) की विचारधारा खत्म की जानी चाहिए.
मेरा दावा है आप लाख कोशिश कर लें इबलीसवादी विचारधारा तब तक खत्म नहीं होने वाली है जब तक ओलामाओं (अधिकांश) के नज़दीक तथाकथित अशराफ जातियों (सैयद, शेख, मिर्ज़ा आदि) की लड़कियों के लिए गैर कुफू (अयोग्य) घोषित जातियों (जोलाहा, धुनिया, कुजड़ा, तेली, भंगी वगैरह) के लड़कों को इस्लामी सिद्धांत के अनुसार कुफू (योग्य) घोषित करते व दिल से स्वीकार करते हुए उनके साथ निकाह (विवाह) बिल्कुल आम नहीं हो जायेगा.
सत्य यही है कि इबलीसवाद तभी खत्म हो पायेगा जब इबलीसवादी मानसिकता से ग्रसित ओलमाओं द्वारा गैर इस्लामी तरीके से जाति के आधार पर दिए गए कुफू-गैर कुफू (बराबरी/गैर बराबरी, योग्य/अयोग्य) के फतवो【6】 को पैरों तले रौंदते हुए समाज में नीच व रज़ील (कमीन) मानी जाने वाली जातियों (भंगी, जोलाहा, धोबी वगैरह) के लड़को की शादियाँ समाज में ऊँची व शरीफ मानी जाने वाली जातियों सैयद, सिद्दीक़ी, शेख, मिर्ज़ा, पठान आदि की लड़कियों के साथ होना बिल्कुल आम नहीं हो जायेगा.
इसलिए बराय मेहरबानी ये कहना कि इस्लाम में जाति व्यवस्था नहीं है, मुस्लिम समाज में जाति व जन्म के आधार पर कोई छोटा-बड़ा नहीं है, सभी बराबर हैं क्या भंगी क्या सैय्यद, जातियाँ लिखना बन्द कीजिये वगैरह-वगैरह. ये सब कोरी लफ़्फ़ाज़ियाँ व नौटँकीयाँ बन्द कीजिये सच्चाई सबको पता है. इसलिए अगर सच में आप इबलीसवाद के नहीं बल्कि आप सल्ल0 के पैरोकार हैं तो सीधे-सीधे ऐसा माहौल बनाएं कि भंगी, धोबी जैसी जातियों के लड़कों की शादियाँ सैय्यद, शेख वगैरह की लड़कियों के साथ उसी तरह आम हो जाये जिस तरह अपनी जाति में शादियाँ आम हैं.
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सन्दर्भ
【1】–इबलीसवादी विचारधारा के विस्तृत अध्ययन के लिए लेखक का एक अन्य आर्टिकल “सैयदवाद ही इबलीसवाद है?” देखें.
लेख का लिंक- https://bit.ly/2xoqxAU
【2】–आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, सुन्नी पर्सनल लॉ बोर्ड, शिया पर्सनल लॉ बोर्ड, मिल्ली काउन्सिल, ओलमा मसायख बोर्ड, जमीयत ओलमाए हिन्द, अदारे शरयिया, अमारते शरयिया, शाही व बड़ी मस्जिदों, सूफी सिलसिलों(क़ादिरिया, चिश्तिया, नक़्शबंदिया, सुहारवर्दिया, करनिया, आदि) व खानकाहों, मुस्लिम नाम पर बने राजनैतिक दलों आदि में हिस्सेदारी.
【3】सूरः हजरात आयत नम्बर 13
【4】–तिरमिज़ी
【5】–पेज 103, प्रकाशक-मकतबा जमाल उर्दू बाजार लाहौर, पकिस्तान वर्ष 2006 ई0.
【6】–अहमद रज़ा खान साहब(फतावे रिजविया 3/118 प्रश्न-13, 3/122 प्रश्न-15), अरशदुल कादिरी साहब(ज़ेरो-ज़बर), अमजद अली साहब(बहारे शरीअत), मुफ्ती अज़ीज़ुर्रहमान साहब(फतावे दारुलउलूम देवबन्द-किताबुलनिकाह 8/208 प्रश्न 1143 व 1162 संकलनकर्ता मुफ्ती मो0 जफीरुद्दीन साहब), मुफ्ती ज़फ़ीरुद्दीन मिफ्ताही साहब(फतावे दारुलउलूम देवबन्द 8/212 प्रश्न 1150 व 1151), मुफ्ती किफायतुल्लाह देहलवी साहब(किफायतुलमुफ्ती-कितबुलनिकाह 5/213), अशरफ अली थानवी साहब(बहिश्ती ज़ेवर-निकाह का बयान), मुफ्ती तक़ी उसमानी साहब(माहनामा मज़ाहिरउलूम सहारनपुर यूपी अगस्त-1999 भाग-5 शीर्षक-निकाह और बिरादरी पेज 24-25), मुफ्ती महमूद हसन गंगोही साहब(फतावे महमूदिया-किताबुलनिकाह 3/226 प्रश्न-199 संकलनकर्ता मो0 फारूक साहब), सैयद मीया मो0 नजीर हसन साहब(फतावे नजीरिया-किताबुलनिकाह), मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा तरतीब की गई पुस्तक मजमूआ क़वानीने इस्लामी.
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नुरुल ऐन ज़िया मोमिन ‘आल इण्डिया पसमांदा मुस्लिम महाज़ ‘ (उत्तर प्रदेश) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं. उनसे दूरभाष नंबर 9451557451, 7905660050 और nurulainzia@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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