sanjay jothe
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संजय जोठे (Sanjay Jothe)

sanjay jotheक्या आपको पशु पक्षियों या पेड़ पौधों में ऐसी प्रजातियों का पता है जो अपने ही बच्चों के लिए कब्र खोदती है? या अपने ही बच्चों का खून निकालकर अपने दुश्मनों को पिलाती है?

मैंने तो आजतक ऐसा कोई जानवर या पक्षी या पेड़ नहीं देखा जो अपने बच्चों के भविष्य को बर्बाद करने की योजना बनाकर बड़े पैमाने पर उसका पालन करता है.

लेकिन इंसानों में आपको ऐसे लोग जरुर मिलेंगे. विशेष रूप से भारत में और वो भी बहुजन समाज से आने वाले लोगों में.

भारत के बहुजन अर्थात भारत के ओबीसी दलित आदिवासी मुसलमान सिख इसाई इत्यादि में एक भयानक किस्म की जहालत छाई हुई है. ये जातियां जान बूझकर अपने बच्चों का भविष्य बर्बाद करने का भारी प्रयास बड़े पैमाने पर कर रही हैं.

एक गाँव में काडर केम्प की ट्रेनिंग में कुछ बहुजनों से बात हो रही थी. 

यादव, दलित, मुसलमान और आदिवासी युवाओं से बातचीत हो रही थी. मैंने एक यादव युवक से पूछा कि आप क्या करते हैं? वो बोला कि मैंने मोबाइल की दुकान खोली थी वो नहीं चली, अब मैं बेरोजगार हूँ. घर पर मोहल्ले में सब लोग मजाक उड़ाते हैं. बीवी भी रोज़ ताने मारती है कि कमाकर लाओ.

मुसलमान मित्रों से पूछा कि आप क्या कर रहे हैं? वे बोले कि हमें नौकरी इत्यादि तो मिलने से रही. पढ़ लिखकर कोई फायदा नहीं तो हम भी सब्जियों का बिजनेस कर रहे हैं. लेकिन हमारी दुकानों से खरीदने से लोग कतराते हैं. हमें मार्केट में बहुत दिक्कत होती है.

फिर मैंने दलितों से पूछा कि आपके क्या हाल हैं? वे बोले कि हमारी जाति के कारण हम चाय समोसे की दुकान या कपड़े की दुकान या कोई अन्य धंधा नहीं कर सकते. ऊँची जात के हिन्दू तो छोड़िये बहुजन समाज के लोग भी हमारी दुकान पर नहीं आते, ऐसे में हम कौनसा बिजनेस करें? हम गरीब और बेरोज़गार ही मरेंगे ऐसा लगता है.

फिर मैंने आदिवासियों से पूछा कि भाई आपकी क्या कहानी है? वे बोले कि भैया हमारे लोग महुआ खरीदकर बनियों महाजनों को बहुत सस्ते में बेचते हैं और उन्ही से महंगे में खरीदते हैं इस तरह गरीब होते जाते हैं और बर्बाद हो रहे हैं. आदिवासी युवाओं की कोई दुकान या व्यवसाय नहीं चलने दिया जाता. पूरा बनिया सिन्धी और जैनों का गिरोह है जो किसी भी बहुजन को पनपने नहीं देता.

ये सुनकर मैंने उन सभी से पूछा कि आपके गाँव में ब्राह्मण, बनियों, सिंधियों, जैनों के कितने घर हैं? वे बोले कि मुश्किल से तीस या चालीस घर होंगे. मैंने फिर पूछा कि बहुजनों के कितने घर हैं? वे बोले कि बहुजनों में ओबीसी दलित आदिवासी और मुसलमान सब मिलाकर दो सौ से ज्यादा घर हैं.

मैंने फिर पूछा कि इसका मतलब कुछ समझ में आया आपको?

वे बोले कुछ कुछ समाज में आया …

मैंने विस्तार से समझाते हुए उन्हें कहा कि आप लोग अपने ही बच्चों के गुनाहगार हो. आपके साथ जो गुज़र रही है वो आपके माता पिता और पिछली पीढ़ी की गलतियों का नतीजा है. और अभी आप जो गलतियां कर रहे हो उसका फल आपके ही बच्चों को भुगतना पड़ेगा.

वे बोले कि भैया कुछ विस्तार से समझाइये और बताइए कि हम ये हालत कैसे बदल सकते हैं?

मैंने बताया कि आपके बहुजन समाज के यहाँ कम से कम दो हज़ार लोग हैं. वे अपना खून पसीना एक करके जो कुछ कमाते हैं उसे ब्राह्मण, बनियों, सिंधियों और जैनों की दुकानों से व्यापर करके लुटा देते हो. ये सवर्ण लोग आपसे नफरत करते हैं. आपको इंसान भी नहीं समझते.

ये सवर्ण व्यापारी आपके पैसों से मुनाफा कमाकर आपको गुलाम बनाने वाले धार्मिक बाबाओं और धार्मिक गुंडों को चंदा देते हैं उसी से धार्मिक गुंडों की राजनीति चलती है और वे आपके बच्चों को अंधविश्वास सिखाते हैं, आपकी औरतों को अन्धविश्वास सिखाते हैं. इसी पैसे से वे मीडिया मेनेज करते हैं. इसी पैसे से वे आरक्षण खत्म करने वाले और एस सी/एस टी एक्ट को खत्म करने वाले आन्दोलन चलाते हैं.

ये सुनते ही उनका मुंह खुला का खुला रह गया. वे एकदूसरे का मुंह देखने लगे.

मैंने फिर पूछा कि आपके खुद के परिवार के लोग कपड़ा, बर्तन, स्टेशनरी, सब्जी भाजी दूध तेल शकर इत्यादि कहाँ से खरीदते हैं? क्या आप बहुजनों की दुकान से खरीदते हैं?

वे बोले नहीं हम तो सभी सवर्णों की दुकान से खरीदते हैं.

मैंने फिर पूछा कि भाइयों जरा गौर करो और बताओ कि अगर आप खुद अपने परिवारों को बहुजनों की दुकान से सामान खरीदना नहीं सिखा पाए हो तो गलती किसकी है? आपका खुदका व्यापार या दुकान आपके ही गाँव में नहीं चलता तो गलती किसकी है? बहुजन जातियों के लोग अपने ही बहुजन युवाओं की दुकान से माल नहीं खरीदते तो गलती किसकी है? ऐसे में आप सब गरीब हो बेरोजगार और कमजोर हो तो अब इसमें गलती किसकी है?

वे ये बात समझ गए.

अब ये बात पूरे देश के बहुजनों को समझनी चाहिए.

अगर भारत के बहुजन ये तय कर लें कि वे सिर्फ ओबीसी दलित आदिवासी और अल्पसंख्यकों की दुकानों से ही खरीददारी करेंगे और उन्हीं के व्यापार को मजबूत बनायेंगे तो वे भारत के सबसे शक्तिशाली समाज के रूप में उभरना शुरू हो जायेंगे.

बहुजनों को अब समाज जीवन के सभी आयाम जैसे धर्म, सँस्कृति, भाषा, साहित्य, राजनीति, व्यापार इत्यादि सब अपने हाथ मे लेना शुरू करना चाहिए. अपने ही बहुजन नेटवर्क में एकदूसरे की मदद करते हुए समर्थ बहुजन भारत का निर्माण करना चाहिए.

विशेष रूप से छोटे उद्योग धंधों और स्थानीय व्यापार में पकड़ बनानी चाहिए. मुर्गी पालन, बकरी पालन, मछली पालन सूअर पालन इत्यादि क्षेत्रों में बहुजनों को तेजी से अपना अधिकार बनाना चाहिये. इससे तीन फायदे होंगे.

पहला फायदा ये कि बहुजनों को पक्की आजीविका और रोजगार मिलेगा और बहुजन समाज मे उद्यमियों की संख्या बढ़ेगी.

दूसरा फायदा ये कि बहुजनों को दैनिक भोजन में हाई प्रोटीन भोजन मिलेगा जिसकी बहुजन बच्चों और स्त्रियों को सख्त जरूरत है.

तीसरा फायदा ये कि बहुजनों का पैसा बहुजनों के पास ही रहेगा। बहुजनों से नफरत करने वाले सवर्ण व्यापारियों से व्यापार धीरे धीरे बन्द होता जाएगा. इससे बहुजन जातियों को इंसान समझने वाले बहुजन व्यापारियों की संख्या बढ़ेगी. इस कदम से भारत के मौजूद धार्मिक गुंडों की आर्थिक नसबंदी हो जाएगी.

जिस दिन 85% बहुजनों ने यह तय कर लिया कि उन्हें सिर्फ बहुजन व्यापारियों से ही माल खरीदना है, उसी दिन भारत मे इतिहास की सबसे बड़ी क्रांति बिना शोर मचाये और बिना खून बहाए अपने आप हो जाएगी. ओबीसी दलित आदिवासी और मुसलमान सिख इसाई आदि मिलकर एकदूसरे को व्यापर करने में मदद करें.

इन समुदायों के आम जन इन्हीं जातियों समुदायों से खरीददारी करें व् अपने गरीब समाज का पैसा अपने पास रहने दें. जो समाज आपसे नफरत करता है उनकी दुकान से एक रूपये का भी सामान मत खरीदिये.

ये एक निर्णायक कदम होगा. धीरे धीरे इन व्यापारियों की आर्थिक नसबंदी शुरू होगी और इनके धार्मिक, राजनीतिक आकाओं तक भी बात पहुँच जायेगी. उनकी अक्ल भी ठिकाने आएगी.

आपको यकीन नहीं होता तो ये अपने गाँव मुहल्लों में करके देखिये. जो व्यापारी अब तक आपको ठगते आये हैं, जो महाजन आपको कर्ज में दबाकर चूसते आये हैं वे तीन से छः महीने के भीतर आपके पैर छूने लगेंगे.

अगर आपको बहुजन धर्म, बहुजन संस्कृति और बहुजन राजनीति को स्थापित करना है तो उसका रास्ता कोरी वैचारिक बकवास से नहीं निकलेगा. ज़मीन पर जहाँ दो रूपये पांच रूपये का सामन खरीदा बेचा जाता है वहां पर आपको बहुजन एजेंडा लागू करना होगा.

जिस दिन बहुजन समाज के लोग एक रुपया भी खर्च करने के पहले इस तरह सोचना शुरू कर देंगे उस दिन भारत के सभी गरीबों के लिए एक निर्णायक बदलाव आना शुरू हो जाएगा.

ये एकदम आसान काम है, अपने गली मुहल्ले में लोगों को इकट्ठा कीजिये और समझाइये. इसके लिए कोई बड़ा आन्दोलन, नेतागिरी धरना प्रदर्शन या रथयात्रा की जरूरत नहीं है.

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संजय जोठे लीड इंडिया फेलो हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। समाज कार्य में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और वर्तमान में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी कर रहे हैं।

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