डॉ. अशोक नामदेव पळवेकर
मानव समाज यह अनेक स्थितियों से विकसित होता आया है. विकास की इन विभिन्न अवस्थाओं में मानव के ‘भू-स्वामित्व’ का इतिहास बहुत महत्वपूर्ण मायने रखता है.
फिलहाल, पा. रंजित निर्देशित ‘काला’ फिल्म यह अनेकों के चर्चा का विषय है. फिल्म के शुरुवात में परदे पर जो विभिन्न पेंटिंग्स दिखाई देती हैं वे सभी मानव की भूमि संबंधी स्वामित्व की उसकी महत्वाकांक्षाओं के ‘आदिम चेतना’ को रेखांकित करने वाली हैं.
मानवी सामाजिक क्रांति के इतिहास में ‘भूमि’ और ‘स्वामित्व की महत्वकांक्षा’ इन दो चीज़ों को बहुत महत्वपूर्ण स्थान है. इसी से समाज में प्रभुत्व और शोषण का उदय हुआ, वृद्धि हुई है. उस प्रभुत्व और शोषण को जवाब देने वाला दूसरा पक्ष भी समाज में सदैव अस्तित्व में था, है. यह दोनों कारक घटक परस्पर-विरोधी संघर्ष को ताकत देते हैं.
पा. रंजित निर्देशित ‘काला’ फिल्म वही संघर्ष-चेतना का प्रस्तुतीकरण करती है. पा. रंजित यह बुद्ध-फुले-मार्क्स-अम्बेडकर-पेरियार इनके विचारव्युहों के प्रभाव को प्रवाहित रखने वाले एक जिम्मेदार युवा कलाकार-निर्देशक हैं. समकालीन राजनीति उनकी आस्था का विषय है. स्वाभाविक रूप से वह इस देश के दलित, शोषित, पीड़ित, सर्वहारा, मजदूर वर्ग के पक्ष में खड़े हैं.
आज की राजनीतिक और सामाजिक हक़ीक़त को ध्यान में रखते हुए, इस देश के प्रभुसत्तावादी शोषण प्रणाली के समर्थक, सर्वहारा वर्ग के खिलाफ खड़े हैं. उनके मन में इस दबे कुचले वर्ग के प्रति बेहद नफरत भरी हुई है. राजनीतिक सत्ता के अधिकारी उनके समर्थकों के व्यवहार एवं गतिविधियों के माध्यम से इस नफ़रत, इस घृणा को लगातार ज़िंदा रखते है. वे उनके खिलाफ विभिन्न कार्यवाई को अंजाम देते हैं. उनके अस्तित्व को चुनौती देते है. इसके लिए, राजनीतिक शक्ति केंद्र से सभी सरकारी प्रणालियों का प्रयोग किया जाता है. और ‘पावर’ यह केवल हमारा अधिकार है, यह दहशतगर्दी की कहावत हमेशा पुरस्कृत की जाती है. यह वास्तव को ध्यान में रखते हुए ही पा. रंजित ने इस फिल्म की कहानी के लिए ‘धारावी’ भूखंड का चयन किया है. इस जगह पर आज के ब्राह्मो-पूंजीवादी व्यवस्था में मजदूर वर्ग का जीवन एवं उनके जीवन में संघर्ष अपने चरम पर है.
‘धारावी’ एशिया की सबसे बड़ी झुग्गी है! जिसे मुंबई का ‘स्लम एरिया’ के रूप से जाना एवं समझा जाता है. इस झुग्गी ने लगभग 520 एकड़ ज़मीनी क्षेत्र को घेरा हुआ है. सौ-सवासौ साल पहले तक, तमिल लोग इस जगह पर स्थानांतरण पश्चात चले आए. उन्होंने वहां रहने हेतु गंदगी से घिरा अपना आवास बनाकर बस्ती खड़ी की. बाद में, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें जमीन देने के लिए 99 साल का सौदे किया. और यह लोग वहां बस गए. विशाल मुंबई शहर में किसी का भी कोई न रहने के बावजूद, जीवित रहने के लिए सहारा देने वाली ‘यह’ भूमि उन्हे अस्तित्व प्रदान करनेवाली प्रतीत हुई. धारावी में 60% हिंदू दलित एवं बौद्ध, 33% मुसलमान और दलित जातियों से परिवर्तित 6% ईसाई लोग हैं. ये सभी अल्पसंख्यक और मजदूर वर्ग के लोग हैं. आज, मुंबई के बीचोबीच मौजूद इस बस्ती के भूमि पर राजनीतिक वर्ग के हितैषी सभी बड़े पूंजीपति बिल्डर्स की आंखें हैं. इस भूमि को हथियाने के लिए ‘विकास’ के नाम पर आज तक कई योजनाएं बनाई गई हैं. क्योंकि इस भूमि की कीमत कई हज़ार करोड़ों रुपयों में है. इस भूमि को वे अपने हक़ में करना चाहते हैं. इसीलिए शासक लोगों की मदद से, ‘सुंदर’ दुनिया का सपना दिखाते हुए भूमि को हथियाने की निरंतर साज़िशें रची जाती हैं.
इसलिए फिल्म ‘काला’ में धारावी की भूमि को एक माध्यम के रूप में स्वीकारा जाता है. इस माध्यम द्वारा इस देश की राष्ट्रीय स्तर की राजनीति के सही रूप को उजागर किया गया है. यह फिल्म में विभिन्न उपकथानकों के प्रस्तुतीकरण के साथ सामने आता है. और स्थापित सत्ताधीशों के खिलाफ एकजुट होते हुए जनसामान्यों का विद्रोह प्रभावी रूप से इस फिल्म में कथा और उप-कथाओं के माध्यम से साकार होता जाता है.
विद्यमान अवस्था में इस गुंडाराज, बनावटी, समाजविरोधी तथा आम जनता को फ़साने वाली इस दहशतगर्दी एवं स्वार्थी राजनेताओं के राजनीति की पृष्ठभूमि पर, धारावी का वास्तव अधिक भयानक होता जा रहा है. वहां लोगों के रोज़मर्रा की जिंदगी से जुड़े जो सवाल है, उसका किसी को भी कोई लेना देना नहीं है! धारावी को अपराधियों की बस्ती माना जाता है. लेकिन यह केवल आपराधिक लोगों की बस्ती नहीं हैं, यह वास्तविकता है.
‘मेक इन इंडिया’ यह घोषणा से पहले ही, यहां रीसाइक्लिंग का सबसे बड़ा कारोबार सक्रिय है. इससे तक़रीबन 2.5 लाख लोगों को रोजगार के साधन मुहैया हो पाए हैं. यहाँ की कार्यशाला में उत्पादित सामान की दुनिया भर में निर्यात की जाती हैं. इस बस्ती में कड़े मेहनती, कामकाजी और औद्योगिक श्रमिक लोग रहते हैं. इन बस्ती इन लोगों की है. इस बस्ती के लोगों का वार्षिक कारोबार 10 हज़ार करोड़ रुपए के करीब है. इसलिए इस बस्ती की भूमि, यहाँ के सभी मजदूर वर्ग के लोगों का जिंदगी का ‘आधार’ है. यही कारण है कि, जब भी ब्रह्मो-पूँजीपतियों से, इस बस्ती के लोगों को अपनी भूमि से तोड़ने की कोशिश होती हैं, तो एक ‘नायक’ धारावी की मिट्टी से पैदा होता है! यह नायक वहाँ की मिट्टी के, लोगों के अस्तित्व का रक्षक होता है. वह आम आदमी का हितैषी है. वह उनके अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है. और, ‘भूमि- यह हमारा अधिकार है!’ यह नारा हरेक के दिल में बोता जाता है.
इस फिल्म में एक और महत्वपूर्ण आयाम प्रस्तुत किया गया है. यह है, राम और रावण इन दो प्रतीकों के बीच का विरोधाभास! तमिल में ‘राम’ के प्रतीक को जिस परिपेक्ष्य में देखा जाता है, उस अवधारणा में उत्तरी भारत में ‘राम’ को नहीं देखा जाता. और उत्तरी भारत में ‘रावण’ की प्रतिमा को जिस अवधारणा में देखते है, उस परिपेक्ष्य में ‘राम’ को तमिल में नहीं देखा जाता है. दोनों के बीच कड़ा अंतर्विरोध है. यह अंतर्विरोध ‘काला’ (रजनीकांत) और ‘हरिदादा’ (नाना पाटेकर) इन किरदारों के माध्यम से बेहद दिलचस्प रूप से प्रस्तुत किया गया है. ये दोनों किरदार बेहद महत्वपूर्ण हैं. ‘काला’ धारावी की सम्पूर्ण बस्ती का सबसे लोकप्रिय नायक है. वह गरीबों के लिए संघर्ष करता है. उनके शोषण के खिलाफ लड़ता है. हरिदादा एक बिल्डर तथा राजनीतिक व्यक्ति है. वह ‘मनु रियल एस्टेट कंपनी’ का सर्वेसर्वा है व् साथ ही ‘नवभारत राष्ट्रवादी पार्टी’ का वह प्रमुख है. वह धारवी को एक स्वच्छ, सुंदर और डिजिटल रूप देने की बात करता है. लेकिन इसके पीछे उसका छुपा एजेंडा कुछ और है. इस वास्तविकता को ध्यान में रखते हुए, विद्यमान सत्तारूढ़ दल के ‘स्वच्छ भारत’ के नारे के पीछे चलने वाले झूठे प्रचार का अत्यंत सफाई के साथ पर्दाफाश किया गया है. हरिदादा एक रामभक्त है. वह सत्ता के लिए चाहे जो करना पड़े करने के लिए तैयार है. उसका चरित्र ‘रावण’ जैसा है. लेकिन लोग उसे ‘राम’ समझते हैं. और ‘काला’ एक गरीबों का रखवाला है. उसका चरित्र ‘राम’ जैसा है. लेकिन लोग उसे ‘रावण’ समझ बैठे हैं. यानि अच्छी प्रतिमा में खराब छवि; और बुरी छवि में एक अच्छी प्रतिमा! इस प्रकार का यह एक अंतर्विरोध है. एक ओर जहां हरिदाद ‘काला’ को जान से मारने की साजिश रचता है और उसका पूरा घर जला देता है, ठीक उसी समय हरिदादा के घर में एक धार्मिक विधि के दौरान ब्राह्मण हरिदादा समेत पूरे परिवार के लोगों की उपस्थिति में ‘रावण-वध’ की कहानी सुनाता है. फिल्म में चित्रित यह पूरी घटना इस देश में विद्यमान अवस्था में हिंदुत्ववादियों द्वारा हो रही गतिविधियों का अनुस्मारक प्रतीत होता है. एक ओर ‘हरिदादा’ आम लोगों के शोषण का प्रतीक है, तो वहीँ दूसरी तरफ “मेरे लोगों का अधिकार ही मेरा स्वार्थ है!” यह भूमिका निभाते हुए ‘काला’ यह उस शोषण के खिलाफ एक शक्तिशाली आवाज है! उसकी हरेक दहाड़, यहाँ की स्थापित प्रणाली की मानसिकता द्वारा अस्वीकृत किए गए लोगों के संघर्ष की अत्यंत प्रभावी अभिव्यक्ति को रेखांकित करती है.
यही कारण है कि फिल्म ‘काला’ में, ‘प्रतिगामी’ बनाम ‘परिवर्तनवादी’ वैचारिक संघर्ष से ‘सफ़ेद’ बनाम ‘काला’ और ‘राम’ बनाम ‘रावण’ इस प्रकार परस्पर र्विरोधी प्रतीकों के माध्यम से एक अलग अंतर्विरोधी ‘डिस्कोर्स’ का प्रस्तुतीकरण किया गया है. इसका प्रथागत आशय एक विरोधात्मक उन्मुख तरीके से बदलता जाता है. साथ ही काला, नीला, लाल ऐसे विभिन्न रंगों के मिश्रण से आज के जनविरोधी ब्रह्मो-पूंजीवादी राजनीतिक एवं सामाजिक लक्ष्यों एवं नीतियों के विरोध मे सर्वहारा वर्ग की एकजुटता का एक नया सम्मिश्रण बनाया जाता है. वह ‘शिक्षित बनो + संघर्ष करों + संगठित रहो’ के सिद्धांतबीज़ों को मजबूत करने वाले है. इस परिप्रेक्ष्य में इस फिल्म पर चर्चा करना बहुत महत्वपूर्ण है.
अंततः, हिंदुत्ववादी समकालीन राजनीति के पृष्ठभूमि पर यहाँ की विद्यमान प्रणाली द्वारा दरकिनार किए गए आम लोगों की भूमिका एक अतुलनीय कलाकृति के रूप में दर्शाता ‘काला’ यह आज की एक महत्वपूर्ण फिल्म बन गई है, इतना यकीनन तय है.
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लेखक : प्रा. डॉ. अशोक नामदेव पळवेकर, अमरावती (महाराष्ट्र) से हैं. वे लेखक, कवि, समीक्षक एवं वक्ता हैं. उनसे दूरभाष 9421829497 पर संपर्क किया जा सकता है.
इस लेख के अनुवादक ऋषिकेश देवेंद्र खाकसे, नागपुर में भारतीय खाद्य निगम में कार्यरत हैं. वह एक लेखक एवं स्वतंत्र शोधार्थी हैं. उनसे hrishikhakse@gmail.com व् दूरभाष 9860237253 पर संपर्क किया जा सकता है.
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