तीन महीने पहले श्रीलाल शुक्ल का कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी‘ पढ़ रहा था जो 1968 में प्रकाशित हुआ था। इसमें एक दृश्य है जहाँ उपन्यास के एक महत्वपूर्ण किरदार बद्री पहलवान रिक्शे से अपने गाँव यानी शिवपालगंज वापस लौट रहे हैं। रिक्शावाला ज़रा बातूनी है, पूरे रास्ते कोई न कोई कथा बांचे जा रहा है। अपनी बातों के बीच बीच में वो बद्री पहलवान को ‘ठाकुर साहब – ठाकुर साहब‘ कहकर संबोधित करता जा रहा है। शायद रिक्शेवाला बद्री पहलवान को उनकी रौबीली कद काठी के हिसाब से क्षत्रिय समझ बैठा था। बद्री पहलवान थोड़ी देर तो उसको झेलते हैं फिर झल्लाकर रिक्शावाले पर चिल्ला पड़ते हैं, “क्या ठाकुर साहब ठाकुर साहब लगा रखा है? बाम्भन हैं हम!” बद्री पहलवान को अपने से छोटी जाति का संबोधन गँवारा नही हुआ और रिक्शेवाले को हौंक बैठे।
पढ़ते ही लगा ये अंश भारतीय जाति व्यवस्था की एक सच्चाई को दर्शाता है जहाँ तथाकथित छोटी जातियाँ तो छोड़िये, बड़ी जातियों में भी आपसी ऊँच नीच हावी रहती है। लेकिन आज की तारीख में किसी आचरणिक सवर्ण को ये किस्सा सुनाया जाये तो वो झट से बोल पड़ेगा, “ये 50 साल पहले की कहानी है। तब सच रही होगी, आज तो ये चीजें एग्ज़िस्ट ही नहीं करती हैं।”
दो महीने पहले घर गए थे तो संयोगवश एक ऐसे ही वाकये से रुबरू हुए, जो मौसी के कॉलेज (गंगागंज, रायबरेली) में घटा था। वाकया सुना तो रागदरबारी का ऊपर वाला दृश्य याद आ गया।
इंटरकॉलेज मैनेजमेंट कमेटी के वरिष्ठ सदस्य, सफ़ेद बाल वाले ठाकुर साहब लंच टाइम में धड़धड़ा कर टीचर्स रूम में घुस गए। घुसते ही उनकी घूमती नज़र टिफिन से आखरी रोटी तोड़ रहे काले घने बालों वाले मिश्राजी पर जम गयीं। चेहरे पर एक मुस्कान लिए ठाकुर साहब मिश्राजी से बोले “अरे मिश्राजी, खड़े हो जाइए ज़रा।”
मुँह में गया रोटी का कौर ज्यों का त्यों मुह में ही रखे मिश्राजी आदेशानुसार सावधान मुद्रा में खड़े हो गए। जैसे ही मिश्राजी खड़े हुए, ठाकुर साहब दण्डवत हो उनके पैर छूने लगे। मिश्राजी पहले तो थोड़ा सकते में आए कि उनसे उम्र में बड़ा आदमी उनके पैर क्यों छू रहा है, लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने ठाकुर साहब की पीठ पर किसी ब्रह्मर्षि की तरह आशीर्वाद वाला हाथ रख दिया, शायद उन्होंने मजमा भांप लिया था। पैर छूने के बाद ठाकुर साहब ने अपनी कमर सीधी की, फिर दाहिने हाथ को कुर्ते की जेब में हाथ डाला और 21 रूपये निकालकर मिश्राजी के हाथ में थमा दिए। मिश्राजी ने वो 21 रूपये झट से अपनी जेब में समाहित कर लिए।
माजरा देखकर बाकी अध्यापकगण सकते में थे कि ये कौन सी मूक फ़िल्म उनके सामने फिल्माई जा रही थी, जिसका ओर-छोर कुछ समझ ही न आ रहा था। ठाकुर साहब ने लोगों की भावनाएं समझ माजरा एक्सप्लेन किया- दरअसल पिछली शाम उनकी बच्ची का जन्मदिन मनाया गया था। जन्मदिन में रीति रिवाजानुसार पूजा की गयी। रिवाजों में एक रिवाज पूजा के बाद ब्राह्मण को दान करने का है, जो वो शाम को नहीं दे पाये थे। इसलिए उन्होंने मिश्राजी को 21 रूपये देकर और उनके पैर छूकर उस रिवाज को पूरा कर दिया।
ये बताते हुए ठाकुर साहब टीचर्स रूम से रुखसत हो लिए। मिश्राजी ने मुँह का आखरी निवाला इत्मीनान से पेट तक पहुँचाया और अपना खाली हुआ टिफिन समेट हाथ धोने चल पड़े। अब तक मूकदर्शक बने रहे बाकी शिक्षक भी अपने अपने कामों में वैसे ही लग गए, मानो ठाकुर साहब कमरे में आये ही नही थे।
उपरोक्त वाकया 2018 का है और रागदरबारी आज से 50 साल पहले की। रागदरबारी का गाँव शिवपालगंज अक्खड़ देहात है और गंगागंज एक प्रगत्योन्मुख क़स्बा। दोनों दृश्यों में कोई तथाकथित अछूत जाति से नहीं है। जाति व्यस्था के दो तथाकथित सर्वोच्च स्तंभों का वर्णन है। दोनों की आपसी समझ कितनी सुलझी हुई है! गंगागंज कॉलेज में बूढ़े ठाकुर पूरे मान सम्मान से नतमस्तक उम्र में छोटे ब्राह्मण की वन्दना कर रहे हैं, ब्राह्मणजी सहर्ष उस वंदना को स्वीकार कर रहे हैं, उन्हें आशीर्वाद दे रहे हैं मानो उन्होंने शरीर पर हाथ रखकर आशीर्वाद देने वाली टेक्नॉलॉजी सीधे वैदिक ऋषियों से प्राप्त कर रखी है। दो अलग पीढ़ियों का अपनी पीठ पर जातिव्यवस्था सहर्ष ढोने वाला कितना सुहाना और धार्मिक दृश्य है, बस रामानंद सागर की आसमान से फूल बरसाने वाली अप्सराओं और रवीन्द्र जैन के संगीत की कमी महसूस हो रही है। काश वो धरती छोड़ स्वर्ग न सिधार गए होते।
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विकास वर्मा पेशे से एक इंजिनियर हैं एवं सामाजिक न्याय के पक्ष में लिखते हैं.