राजेश राजमणि पी ए रंजीत की फिल्म होने के नाते, यह आश्चर्य की बात नहीं है कि इस फिल्म के बहुत सारे सामाजिक संवाद अम्बेडकरवादी विचारधारा से लिए गए हैं. फ़िल्म का नाम और इसके नायक का नाम ‘कबाली’ रखना – तमिल सिनेमा में नाम अक्सर ऐसा अनोखा पहलू होता है जिससे विरोधियों पर पदाघात किया जा सके, कबाली के सूट […]
चमारों में इतनी हिम्मत कहाँ की वो हुंकार सके
संजय कुमार जब मैं उत्तर प्रदेश के एक कॉलेज में पढ़ाता था और मायावतीजी उस समय उत्तर प्रदेश की मुख्य मंत्री थी ..तब एक कर्मचारी ने मायावती के सन्दर्भ में अनौपचारिक रूप से कहा “जात की चमारिन हूँ…दिल से तुम्हारी हूँ.” क्या यही बात किसी और के लिए कहने की हिम्मत है? एक ने कहा, ‘मायावती चमार नहीं, वो ब्राह्मण […]
गुजरात दलित विद्रोह- स्वागत, इस सामाजिक क्रांति का
अरविंद शेष गुजरात में दलितों का विद्रोह खास क्यों है? यह इसलिए कि, जिस गाय के सहारे आरएसएस-भाजपा अपनी असली राजनीति को खाद-पानी दे रहे थे, वही गाय पहली बार उसके गले की फांस बनी है। बल्कि कहा जा सकता है कि गाय की राजनीति के सहारे आरएसएस-भाजपा ने हिंदू-ध्रुवीकरण का जो खेल खेला था, उसके सामने बाकी तमाम राजनीतिक […]
जंतर-मंतर प्रदर्शन: दलितों के कार्यक्रम पर सिंह सेना का हमला
डॉ. रतन लाल दलित, आदिवासी और पिछड़ा वर्ग से आने वाले सांसदों और नेताओं की आत्मा की शांति के लिए तीन मिनट का मौन देश भर में, विशेष रूप से, दलितों पर हो रहे अत्याचार के विरोध में आज यूथ फॉर बुद्धिस्ट इंडिया ने जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन रखा था. मैं भी कार्यक्रम में शामिल था. कार्यक्रम का मंच जन्तर […]
दलित प्रतिरोध का गुजरात माडल और ब्राह्मणवाद के अंत की शुरुआत
संजय जोठे गुजरात के गौ भक्तों ने दलितों का जो अपमान किया है और जिस तरह से उन्हें सरे आम मारा पीटा है वह अपने आप में बहुत सूचक है. उसकी प्रतिक्रया में पूरे गुजरात के दलित समुदाय में जो एक तरह का अहिंसक आन्दोलन छिड़ गया है वह भी बहुत सूचक है. इन दो घटनाओं और इनके आतंरिक संबंधों […]
दलितों के लिए मायावती और बसपा के मायने – भाग 2
भानु प्रताप सिंह यहाँ से जारी सवाल यह है कि आखिर एक आम दलित मायावती के बारे में क्या राय रखता है, वह मायावती और बसपा को किस रूप में देखता है? उनके लिए मायावती और बसपा की क्या जगह है, क्या मायने हैं? क्या मायावती सिर्फ एक राजनीतिज्ञ हैं? क्या बसपा सिर्फ एक राजनीतिक पार्टी है, जिसे हर […]
‘भारत-माता’ और ‘गऊ-माता’
डॉ. रतन लाल आखिर गुजरात में दलितों ने विद्रोह कर ही दिया: कलक्टर ऑफिस के सामने मरी हुई गायें पटकी और कहा लो अपनी माँ का अंतिम संस्कार करो. चलिए इसी बहाने गाय को ‘माँ’ बनाने वाले अपनी माँ की इज्ज़त करना तो सीखेंगे. यह प्रतिरोध सिर्फ एक सुगबुगाहट है, आगे इंतज़ार कीजिए होता है क्या. आइये भारत में माँ की […]
मायावती और मीडिया का बाज़ारवाद – भाग 1
भानु प्रताप सिंह मैं एक मार्केटिंग प्रोफेशनल हूँ. मेरे लिए ‘गूगल एडवर्ड’ एक बहुत ही जरूरी टूल है, यह समझने के लिए कि (क) इंटरनेट मार्केट में क्या ट्रेंड है? (ख) कम्पनियाँ अपना पैसा एडवरटाइजिंग में कहाँ पर लगा रही हैं (ग) इंटरनेट प्रेमियों के लिए कौन से विषय महत्वपूर्ण हैं? यानि वे सर्च इंजिन्स पर किस विषय के बारे […]
शिक्षक दिवस के नाम पर !
रत्नेश कातुलकर वर्णनाम ब्राह्मणों गुरु! यानि गुरु केवल ब्राह्मण वर्ण से ही हो सकता है. आदिकाल से यह भारत का सनातन नियम रहा है. हालांकि ऐसा भी नहीं की इस नियम का पालन देश में अक्षरशः होते रहा हो, स्वयं हिन्दू धर्म ग्रंथों में राक्षसों के गैर-ब्राह्मण गुरु शुक्राचार्य का वर्णन मिलता है और भारत के एक समय जो विश्व […]
सहिष्णुता और असहिष्णुता
देवनूरु महादेव सहिष्णुता-असहिष्णुता आज के “मुझे मत छूओ” शब्द बन गये हैं। शुद्धता को अछूतपन से जोड़ कर भारत आधे जीवित और आधे मृत लोगों का देश बनकर रह गया है। अतः कम बोलने में ही सुरक्षा है। मैं स्वयं भी समझने का प्रयास कर रहा हूँ। आज के प्रचलित असहिष्णु आचरण को समझे बिना, सहिष्णुता को समझा नहीं जा […]