
मोहम्मद इमरान (Mohammad Imran)
पूर्वोत्तर के राज्यों में असम को छोड़ दें तो शायद ही किसी राज्य की चर्चा जोर-शोर से मेनस्ट्रीम न्यूज़ चैनलों खासकर हिंदी चैनलों में की जाती है. हाल ही में मेघालय डिस्ट्रिक्ट काउंसिल ऑफ ख़ासी हिल्स की ओर से ख़ासी हिल्स ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट (ख़ासी सोशल कस्टम ऑफ लीनिएज) एक्ट 1997 में संशोधन किया गया है. इस संशोधन के हिसाब से गैर ख़ासी समुदाय के सदस्यों से शादी करने पर ख़ासी जनजाति की महिलाओं को इस जनजाति के तहत मिलने वाले लाभों से वंचित होना पड़ सकता है.
मेघालय का सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा और इसका इतिहास अपने में ही अनूठा है. वर्तमान का मेघालय अंग्रेजों के शासन से पहले तीन अलग अलग जनजातियों (ख़ासी, गारो और जयंतिया) के राजाओं का राज्य हुआ करता था और अंग्रेजी हुकूमत के कई सालों तक कायम भी रहा. हालांकि आज़ादी के कुछ दशक पहले ही इसे असम राज्य में मिला दिया गया और आज़ादी के बाद भी ये राज्य असम में ही बरक़रार रहा. दिलचस्प बात ये है कि उस समय असम की राजधानी शिलांग ही थी. असम राज्य का हिस्सा होने की वजह से भाषाई तौर पर यहाँ के जन जातीय समूहों को कई दशकों तक अवहेलना का सामना करना पड़ा. लेकिन भाषाई भेदभाव का दर्द तब हद से पार हो गया जब स्कूलों में असमिया भाषा को अनिवार्य कर दिया गया. विरोध प्रदर्शनों और लगातार भरी-भरकम संसदीय बहसों के बाद 1972 में जाकर मेघालय राज्य का गठन हुआ.
मेघालय की शासन प्रणाली की बात करें तो ये राज्य छठी अनुसूची का हिस्सा है, जिसके तहत ग्रामीण स्तर पर पारंपरिक शासन प्रक्रिया को सरकारी मान्यता रहती है. इसके साथ साथ ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट कौंसिल जैसी शासन प्रणालियों की व्यवस्था भी है. मेघालय राज्य में तीन प्रमुख जनजातियों के हिसाब से वहां की तीन अलग अलग ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट कौंसिलों के प्रावधान है जोकि ख़ासी हिल्स, गारो हिल्स और जयंतिया हिल्स के नाम से है. हर डिस्ट्रिक्ट कौंसिल के सदस्य विभिन्न इलाकों से चुनकर आतें है जिसमे सदस्यों का चुनाव पारंपरिक सभा बुलाकर किया जाता है. छठी अनुसूची के नियमों के हिसाब से एक ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट कौंसिल में 30 सदस्य रह सकते हैं जिसमे अधिकतम 26 सदस्य लोगों से चुनकर आते हैं और बाकि 4 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जाते हैं. इन कौंसिलों की हैसियत इसी बात से ही पता चलती है कि इनको न्यायिक, विधायिका और कार्यपालिका में हिस्सेदारी और कानून बनाने का अधिकार है. हर ऑटोनोमस कौंसिल में एक एग्जीक्यूटिव मेम्बर, 3-5 कौंसिल ऑफ़ मिनिस्टर्स और इनको मदद करने के लिए अफसरों की कौंसिल ऑफ़ ऑफिसर्स भी होती है, इसके साथ साथ कौंसिल की प्रक्रिया को चलने के लिए चेयरमैन की अहम भूमिका होती है. कौंसिल में पास हुए बिल राज्यपाल की सहमति के लिए जाते हैं हालाँकि कौंसिल चाहे तो वो सीधा राष्ट्रपति से भी बिल पर हस्ताक्षर करवाने अधिकार भी रखती है. ख़ासी हिल्स ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट कौंसिल की बात करें तो तीन जिले (पश्चिमी ख़ासी हिल्स डिस्ट्रिक्ट, पूर्वी ख़ासी हिल्स डिस्ट्रिक्ट और री-भोई जिला) इसके अधिकार क्षेत्र में आते है और इसका मुख्यालय शिलांग में है.
छठी अनुसूची के तीसरे अनुच्छेद की हिसाब से डिस्ट्रिक्ट कौंसिलों को शादी, तलाक, और सामाजिक परम्पराओं पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है. पिछले महीने लाये गये ख़ासी सोशल कस्टम ऑफ लीनिएज बिल पर जिस तरह के तर्क सामने आ रहे हैं उनमें दो तरह के पक्ष आमने-सामने आते हुए दिखाई दे रहे हैं. जहाँ एक ओर संवैधानिक मूल्यों के हनन होने का पक्ष है वहीँ दूसरी ओर सामाजिक एवं सांस्कृतिक सुरक्षा का. संवैधानिक मूल्यों की बात रखने वाला पक्ष इस बात पर जोर दे रहा है कि इस बिल से किसी व्यक्ति की खासकर महिलाओं की किसी भी धर्म, संप्रदाय, जाति-जनजाति, प्रांत के पुरुष से विवाह करने का हक छीना जा रहा. इसके साथ साथ ही साथ इस बिल में केवल महिलाओं पर पाबंदी लगाया जाना, लिंग भेद को बढ़ावा देने का काम कर रहा है. इस पक्ष का ये भी कहना है कि प्राचीन परम्पराओं के नाम पर संविधान के मौलिक मूल्यों को कम नहीं आंका जा सकता है. वहीँ अगर सामाजिक-सांस्कृतिक पक्ष की बात करें तो ये तेज़ी से आ रहे सामाजिक असंतुलन और गैर ख़ासी समुदायों से होने वाले वैवाहिक ‘धोखे-बाज़ी’ का जवाब है.
ग़ौरतलब है कि ख़ासी एक मातृवंशीय समाज है, जिसमे वंश और पारम्पिक रूप से मिलने वाली संपत्ति माँ के घर के हिसाब से मिलती है ना कि पिता के घर के हिसाब से. इसका सीधा मतलब ये हुआ की संपत्ति का अधिकार पुरुषों के बजाय महिलाओं को होता है. चूँकि मेघालय बांग्लादेश से सटा हुआ एक राज्य है और यहाँ घुसपैठ की घटनाएँ यहाँ आम हैं, और नागरिकता पाने के लिए शादियाँ होती रही हैं. आज़ादी के बाद और खासकर बांग्लादेश के वजूद में आने के बाद गैर-ख़ासी समुदाय से होने वाली शादियाँ ख़ासी समुदाय पर अक्सर नकारात्मक असर ही दिखाती आई है. ख़ासी समुदाय में गैर-ख़ासी समुदायों से होने वाली शादियों को लेकर ये बात प्रचलित है कि ऐसी शादियाँ समाज की लड़कियों के लिए खतरे से खाली नहीं होती, क्योंकि ऐसी शादियाँ आमतौर पर ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने के लिए की जाती रही हैं. समाज के बहुत से लोगों का ये भी मानना है कि ऐसी शादियाँ न केवल एक लड़की को स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करती है बल्कि समाज की संस्कृति को भी बिगाड़ देती हैं. और शायद यही वजहें रहीं होंगी जिसकी वजह से ये बिल 30 सदस्यों वाली ख़ासी हिल्स ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट कौंसिल से 29 सदस्यों के द्वारा एकमत से पारित हो गया.
वर्तमान में ये ज़रुरी है कि इस प्रकार के क़ानूनों पर न्यायपूर्वक बहस होनी चाहिए बल्कि इस बात पर भी जोर देना चाहिए कि ऐसे कानून समाज पर किस तरह के प्रभाव डाल सकते हैं. हालांकि ध्यान देने वाली बात ये भी है कि जो भी प्रावधान इस बिल के अंतर्गत किये गये हैं, वो केवल महिलाओं तक ही सीमित हैं जिससे इस बिल पर लिंग के आधार पर भेदभाव करने का आरोप भी लग रहा है. वहीँ दूसरी ओर देखें तो ये प्रतीत होता है कि ऐसे कानून सामाजिक अस्थिरता ला सकते हैं क्योंकि ऐसे प्रावधानों में समाज के पुरुषों को ये आज़ादी रहेगी कि वो किसी भी समुदाय की लड़की से विवाह कर लेंगे और वहीँ दूसरी तरफ़ ख़ासी महिलाओं के लिए अपने ही समुदाय में शादी करना मजबूरी बन सकता है. ऐसे परिस्तिथि में हो सकता है कि समाज के पुरुष ही ऐसे कानून का गलत इस्तेमाल करने लग जाएँ. इसमें कोई संदेह नही कि सभी कानून संविधान और मौलिक अधिकारों के सापेक्ष में ही बनने चाहिए लेकिन सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य को भी उतनी ही अहमियत देने की जरुरत है खासकर जन-जातीय समूहों के संदर्भ में.
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मोहम्मद इमरान टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (मुंबई) में दलित एंड ट्राइबल स्टडीज एंड एक्शन, स्कूल ऑफ़ सोशल वर्क विभाग के छात्र हैं.
(तस्वीर साभार: rediff.com)