सतविंदर मदारा (Satvendar Madara)
9 अक्टूबर 2018 को उनके 12वे परिनिर्वाण दिवस पर विशेष
9 अक्टूबर 2006 को जब साहब कांशी राम जी की मौत की दुखद खबर पुरे देश और दुनिया में उनके चाहने वालों तक पहुँची, तो सभी के दिलो-दिमाग पर कई सवाल छा गए.
बाबासाहब अम्बेडकर का कारवां जो, 6 दिसंबर 1956 को, उनके परिनिर्वाण के बाद कुछ ही वर्षों में फर्श पर आ गया था उसे फिर से आकाशी मुकाम दिलाने वाले कांशी राम जी ही थे. आखिर इस आन्दोलन का भविष्य क्या होगा? बाबासाहब के चले जाने के बाद, उनके आंदोलन को उनके ही सिपहसालार संभाल नहीं पाए थे. जिस कांग्रेस को बाबा साहेब ने ब्राह्मणवादी कहा था उनके अनुयायी उसी कांग्रेस में जा समाये. नतीजतन, कुछ ही सालों में संगठित होने की बजाये हमारा बनता हुआ आन्दोलन बिखर गया. जिस ब्राह्मणवाद के पैर उखड़ने थे उसे इस बिखराव की वजह से आज़ाद भारत में पैर पसारने का फिर से मौका मिला गया था. ऐसी ही हालत क्या अब कांशी राम के आंदोलन की भी होगी? या फिर साहब कांशी राम के अनुयायी उस असफलता से सबक लेंगे ताकि वो गलतियां दुबारा न हों? क्या 85% आबादी वाला बहुजन समाज(ST, SC, OBC और Minorities) देश के ज़्यादातर राज्यों में; और देश का हुक्मरान बन पायेगा, जिसके लिए कांशी राम साहब ने अपनी बढ़ती उम्र में भी दिन-रात एक कर डाला था? या वो फिर से 15% आबादी वाले मनुवादी हुक्मरानों का ग़ुलाम बन कर रह जायेगा? ऐसे और भी कई सवाल होंगे जो लोगों के ज़ेहन में स्वाभाविक तौर पर आये होंगे.
लेकिन साहब के परिनिर्वाण के कुछ ही महीनों बाद, 2007 में जब उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों के नतीजे सब फिक्रमंद बहुजनों के लिए एक चैन की अनुभूति लेकर आये. पहली बार बहुजन समाज पार्टी ने पूर्ण बहुमत हासिल किया और बहन मायावती के नेतृत्व में सरकार फिर से बन गई. सबको लगा कि न सिर्फ साहब कांशी राम का आंदोलन सुरक्षित है बल्कि वो अपने निशाने की तरफ पूरी मज़बूती से बढ़ रहा है. अब नज़रें स्वाभाविक तौर पर अगले लोक सभा चुनाव पर थीं जिसके जीतने पर बहुजन समाज देश का हुकमरान बन, अपनी हज़ारों सालों की ग़ुलामी को दूर करने की हालत में आ जाता.
शायद ही किसी को यह अंदाज़ा था कि साहब कांशी राम ने जिस मेहनत और जतन से इस आंदोलन को खड़ा किया था, और जो ब्राह्मणवाद के अवरोधों को लांघ के बहुत आगे बढ़ चुका उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूटने वाला था.
जैसे ही 2009 में लोक सभा चुनाव हुए, इस आंदोलन में गिरावट आनी शुरू हो गयी. उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत की सरकार होने के बावजूद भी बहुजन समाज पार्टी अपने प्रदर्शन को बेहतर करने की बजाये नीचे चली गयी.
2007 में बहुमत की सरकार बनाने के बाद सबको उम्मीद थी कि 2009 में वो उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा MP जीताकर दिल्ली भेजेगी और दूसरे राज्यों में उसका प्रदर्शन बेहतर होगा. बसपा देश की राजनीति में एक मज़बूत ताक़त बनकर उभरेगी और त्रिशंकु लोक सभा की स्थिति में वो सरकार बनाने की एक मज़बूत दावेदार भी होगी. इसके उलटे उत्तर प्रदेश में ही वो सीटों के मामले में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर खिसक गयी. उसके वोटों में भी गिरावट आयी और देश की सत्ता अपने हाथों में लेने का बहुजन समाज का सपना दम तोड़ गया.
बाबा साहेब आंबेडकर लोगों को संबोधित करते हुए
इसके बाद से उत्तर प्रदेश और कई दूसरे राज्यों में भी, जहाँ साहब कांशी राम की जी-तोड़ मेहनत और मज़बूत नेतृत्व के कारण बाबासाहब का रुका कारवां अपनी मंज़िल की ओर बढ़ता हुआ दिखने लगा था; धराशाई हो गया. एक के बाद एक, उत्तर प्रदेश को छोड़कर उन सभी राज्यों में (जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, आदि), जहाँ पर कभी बहुजन समाज अपने पैरों पर खड़ा होता दिखाई दे रहा था, बसपा अपनी मान्यता गंवा बैठी. 1996 में साहब कांशी राम के द्वारा बहुत मेहनत से हासिल किए गए राष्ट्रिय पार्टी के दर्जे के भी जाने की नौबत आ गयी.
उत्तर प्रदेश में भी आंदोलन असफल होने की राह हो लिया.
जहाँ 14 अप्रैल 1984 को बाबासाहब के जन्मदिन पर धमाकेदार शुरुआत करके महज 5 सालों में ही साहब ने 1989 को 2 सांसद और 13 विधायक जितवा लिए थे और सिर्फ 9 सालों में यानि 1993 को इस आंदोलन को सत्ता के गलियारों में पहुंचा दिया था. वहीं 2012 के विधान सभा चुनावों में यह सत्ता से बाहर होने के साथ-ही-साथ अपनी सीटें और वोट, दोनों गवां बैठा. 2007 में 206 विधायकों से घटकर यह संख्या 2012 में महज़ 80 ही रह गयी. जब 2014 के लोक सभा चुनाव हुए तो 1989 के बाद पहली बार बसपा लोक सभा में अपना एक भी सांसद नहीं पहुँचा पायी. साहब के द्वारा कई बार कहे गए इस वाक्य कि- राजनीतिक आंदोलन बगैर चुनावी नतीजों के कभी आगे नहीं बढ़ सकता- की सच्चाई साफ दिखने लगी. उन्होंने इस बात की भी चेतावनी दी थी कि अगर हमें अपने आंदोलन को राजनीति में सफल बनाना है तो MP-MLA बनाने ही होंगे. 2017 में हुए उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में भी बसपा की गिरावट जारी रही और वो इतने विधायक भी जितने में नाकामयाब रही की अपना एक राज्य सभा सांसद बना सके.
साहब कांशी राम ने अपनी सभाओं में कई बार बाबासाहब का यह दुःख बयान किया था कि उन्होंने दुनिया छोड़ने से पहले कहा था कि- मैं इस कारवां को बड़ी दुःख तकलीफों को सहते हुए यहाँ तक ला पाया हूँ. अगर मेरे अनुयायी इसे आगे न ले जा सके, तो इसे यही छोड़ दे; लेकिन किसी भी सूरत में यह पीछे नहीं जाना चाहिए.
लेकिन ये कारवां बाबा साहेब के बाद पीछे गया.
कांशी राम जी एक जन सभा में
साहब ने इसके बारे में जानना शुरू किया कि आखिर इतना बड़ा आंदोलन, जिसे बाबासाहब ने भारत ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचाया था, उनके जाने के कुछ ही सालों में क्यों बिखर गया?
उनके अनुसार बाबासाहब के आंदोलन की सफलता का एक बहुत बड़ा कारण उसका “Dynamic” होना था यानि कि बाबासाहब उसे समय के हिसाब से बदलते रहते थे. पहले उन्होंने Independent Labour Party बनाई, फिर Scheduled Caste Federation और अंत में RPI बनाने का सोचा. इसी तरह उनके द्वारा प्रकाशित की गयी पत्रिकाओं के भी वो समय-समय पर नाम बदलते रहे. बहिष्कृत भारत, जनता, मूकनायक, प्रबुद्ध भारत, आदि. लेकिन उनके जाने के बाद उनके अनुयाई इस “Dynamism” को बरकरार नहीं रख पाये और इसमें ठहराव आ गया.
साहब के अनुसार बाबासाहब के 6 दिसंबर 1956 में चले जाने के बाद, 1965 तक यानि लगभग दस सालों में ही उनकी मूवमेंट(आंदोलन) देश ही नहीं बल्कि महाराष्ट्र में भी खत्म हो चुकी थी. वो खुद उस वक़्त पूना में मौजूद थे और उन्होंने इसे अपनी आँखों से खत्म होते देखा. ठीक इसी तरह अगर हम साहब कांशी राम के 9 अक्टूबर 2006 में जाने के ठीक 8 साल बाद 2014 में हुए लोक सभा चुनावों के नतीजों को देखें, तो बसपा का एक भी सांसद नहीं जीत पाना भी ऐसा ही इशारा करता है. जिस तरह बाबासाहब का आंदोलन उनके गढ़, महाराष्ट में ही उनके जाने के दस सालों में खत्म हो गया बिलकुल वैसे ही साहब कांशी राम का आंदोलन भी उनके गढ़ रहे उत्तर प्रदेश में दस सालों में वैसी ही हालत में प्रतीत होता है.
बहुजन समाज के इन दो महान नेताओं के द्वारा शुरू किये गए आंदोलनों का उनके जाने के एक दशक में ही कुंद हो जाने में क्या समानताएं हैं? बाबासाहब के आंदोलन के असफल होने के कारणों का तो साहब कांशी राम ने काफी गहरी छानबीन से पता लगा लिया था. लेकिन साहब कांशी राम के आंदोलन के असफल होने के क्या कारण हैं? क्या इस बार भी वहीं हुआ, जो पहले हो चुका था या फिर इस बार असफल होने के कुछ और कारण हैं?
इन सवालों के जवाब बहुजन समाज को और उसमें भी खासकर नेतृत्व करने वालों और बुद्धिजीवी वर्ग को ढूंढ़ने हैं. अगर हम इन सवालों को गहराई से जाँच-पड़ताल करके सही जवाब ढूंढ़ पाते हैं तभी हम इस आंदोलन को दुबारा खड़ा कर पाएंगे ताकि यह एक बार फिर सही रास्ते पर आकर अपनी मंज़िल की ओर बढ़ सके. इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर जब ब्राह्मणवादी ताक़तें अपने शीर्ष पर पहुँच चुकी हैं, इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने में अब देर नहीं होनी चाहिए. नहीं तो बहुजन समाज की आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ़ नहीं करेंगी.
9 अक्टूबर 2018 को साहब कांशी राम के परिनिर्वाण दिवस पर यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
जय साहब कांशी राम, जय भीम !
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