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जिस गौ हिंसा से लहुलहान हैं पसमांदा-बहुजन, उसी गौ आतंक का लाभार्थी है सय्यद-ब्राह्मण

नाज़ खैर (Naaz Khair)

naaz khairअनुकूल जलवायु और स्थलाकृति (Topography) के कारण, पशुपालन, डेयरी और मत्स्यपालन आदि क्षेत्रों ने भारत में प्रमुख सामाजिक-आर्थिक भूमिका निभाई है. इसके अलावा,  पारंपरिक, सांस्कृतिक एवम् धार्मिक मान्यताओं ने भी इन गतिविधियों की निरंतरता में अपना योगदान दिया है. वैसे देखा जाय तो लाखों लोगों को सस्ते एवम् पौष्टिक भोजन प्रदान करने के साथ साथ ग्रामीण इलाकों में (खास कर के भूमिहीन, छोटे  एवं सीमान्त किसान एवं महिलाओं में) लाभकारी रोजगार पैदा करने में भी इन  क्षेत्रों की विशेष भूमिका रही हैं. (वार्षिक रिपोर्ट 2016-17, पशुपालन विभाग, डेयरी और मत्स्य पालन कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय भारत सरकार).

पशुधन आबादी1, मवेशी सूची2, दूध उत्पादन और मांस निर्यात के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है, इतना ही नहीं भारत दुनिया में जूते और चमड़े के वस्त्रों का दूसरे नंबर का सबसे बड़ा उत्पादक3 है. गौरतलब है कि मवेशी (भैंस सहित), बकरी और भेड़, इस पशुपालन की वजह से ही देश में डेयरी, गोमांस और चमड़े के उद्योग चलते हैं. आजीविका के सन्दर्भ में देखा जाए तो इन पशुधनों के साथ बहुजन व्यवसायी समूहों (सभी धर्मों के एससी/ एसटी/ ओबीसी) का सदियों से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है. नतीजतन,  न केवल पशुधनों का संरक्षण हुआ है बल्की पशुओं की आबादी में कई गुना बढ़ोतरी भी हुई है और संवर्धन भी.

पशुपालन के साथ-साथ कृषि भी बहुजन आजीविका के लिए एक महत्वपूर्ण साधन-संसाधन है; यह पशुपालन एवम् कृषि केवल अर्थ-उपार्जन का साधन न होते हुए बहुजनो के आपसी , सामाजिक एवम् सांस्कृतिक संबंधों का मुख्य आधार बने हुए है. जहाँ तक पर्यावरण की सुरक्षा का प्रश्न है वहां  कृषि और पशुधन पालन में बहुजनों के गैर भौतिकवादी दृष्टिकोण ने पर्यावरण की सुरक्षा में एक बहोत बड़ी भूमिका निभाई है. इस लेख में पासमांदा शब्द (उर्दू भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘पीछे छूट जाने वाले’) का प्रयोग बहुजन मुसलमानों (हिंदू एससी/ एसटी/ ओबीसी से इस्लाम में परिवर्तित) के लिए किया गया है.

इतिहास इस बात का गवाह है कि आजीविका के साधन-संसाधन जो कि बहुजनों ने अपने सशक्तिकरण के लिए खून-पसीना लगाते हुए पैदा किये हैं उसको कमजोर करने के लिए अर्थात बहुजनों की आर्थिक भागीदारी को नष्ट करने के लिए बहुजन सशक्तिकरण का विरोध करने वाली उपद्रवी शक्तियां हमेशा मौजूद रही हैं. बहुजन अपने द्वारा निर्मित साधन-संसाधन एवं सम्पत्ति का लाभ प्राप्त करें, उससे पहले ही यह उपद्रवी शक्तियां बहुजन विरोधी नीतियाँ लागू कर देती है ताकी इसका फायदा बहुजनों को नहीं बल्की उपद्रवी शक्तियों को ही मिलता रहे. यह आलेख सरकार की एक ऐसी ही नीति ‘मेक इन इंडिया’4 की जांच करता है.

क्या ‘मेक इन इंडिया’ की यह जो सरकारी नीति है वह बहुजन-आजीविका और बहुजनों के सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक विकास को कमजोर करने के लिए तैयार की गई है? इस लेख में ‘मेक इन इंडिया’ के अंतर्गत डेयरी, गोमांस और चमड़े के क्षेत्रों पर फोकस किया गया है.

‘मेक इन इंडिया’ की जो नीति है वह भारत को वैश्विक रूप-रेखा में ढालने की और विनिर्माण केंद्र में बदलने के लिए तैयार की गई एक पहल है. 2014 में सत्ता में आने के कुछ महीने पश्चात् प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली भाजपा सरकार ने इसका प्रारंभ किया था. ‘मेक इन इंडिया’ को भारत में सार्वजनिक-निजी साझेदारी की परिवर्तनकारी शक्ति के रूप में देखा जा रहा है और साथ साथ वैश्विक भागीदारों, मुख्य रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) और जापान को भी सम्मिल्लित किया जा रहा है. इसमें भारतीय अर्थव्यवस्था के 25 सेक्टर शामिल हैं. ‘मेक इन इंडिया’ नीति के तहत सम्मिल्लित 25क्षेत्रों में खाद्य प्रसंस्करण और चमड़ा उद्दयोग भी शामिल हैं. डेयरी और गोमांस निर्यात खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र के अंतर्गत आते हैं. भारतीय निजी कम्पनियाँ एवम् विदेशी कंपनियों को आमंत्रित करने के लिए इन 25 सेक्टर की जो विवरणिका (Brochure) तैयार की गई है उसमे यह बताया गया है की इन व्यवसायों को करने में बहुत आसानी है (Ease of Doing Business).

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‘मेक इन इंडिया-लेदर’ की जो विवरणिका तैयार की गई है उसमे यह बताया गया है कि भारत में निर्यात इकाइयों को स्थापित करने का अवसर, भारत के बहुत बड़े घरेलू बाजार से लाभान्वित होने का अवसर, अन्य प्रमुख विनिर्माण देशों की तुलना में उत्पादन लागत और श्रम लागत में तुलनात्मक लाभ, एक नई उत्पादन इकाई या मौजूदा उत्पादन इकाई के लिए कुशल/ प्रशिक्षित मानव शक्ति उपलब्ध है, स्वचालित मार्ग के माध्यम से 100% विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, पूरे चमड़े के उत्पाद की डी-लाइसेंसिंग (लाइसेंस का निरस्तीकरण), अत्याधुनिक मशीनरी के साथ आधुनिक लाइनों पर विस्तार की सुविधा प्रदान करना और कई योजनाओं के माध्यम से उपकरण और पूरी तरह से सरकारी वित्तीय सहायता. 

‘मेक इन इंडिया’ खाद्य प्रसंस्करण सेक्टर (जिसके अंतर्गत डेयरी फार्मिंग एवम् बीफ एक्सपोर्ट्स शामिल हैं) की विवरणिका में यह बताया गया है कि अन्य चीजों के साथ, एकीकृत शीत श्रृंखला और मूल्य वृद्धि बुनियादी ढांचे (Integrated Cold Chain and Value Addition Infrastructure) की योजना शामिल है जिसमें संबंधित मंत्रालय 228 ऐसी परियोजनाओं की सहायता कर रहा है, और 2017 में, 16 परियोजनाएं शुरू की गई हैं, जिससे 2.44 लाख मीट्रिक टन शीत भंडारण की अतिरिक्त क्षमता पैदा हुई है, व्यक्तिगत त्वरित फ्रीजिंग (आईक्यूएफ) के प्रति घंटे 72.70 मीट्रिक टन प्रति वर्ष, 34.55 लाख लीटर प्रति दिन दूध/ प्रसंस्करण/ भंडारण और 472 रीफर व्हान को 2014-2017 के दौरान बनाया है. डेयरी प्रोसेसिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फंड (डीआईडीएफ) की स्थापना 2017-18 से 2028-29 की अवधि के दौरान 1.67 अरब अमेरिकी डॉलर के परिव्यय के साथ की गई है. चार बूचड़खानों की परियोजनाएं पूरी की गई हैं. बूचड़खानों के आधुनिकीकरण की योजना के तहत, पणजी (गोवा) में एक परियोजना को परिचालित कराया गया है. खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में स्वचालित मार्ग के तहत 100% एफडीआई की अनुमति है, भारत में निर्मित या उत्पादित खाद्य उत्पादों के संबंध में ई-कॉमर्स के माध्यम से व्यापार के लिए सरकार द्वारा अनुमोदित मार्ग के माध्यम से 100% एफडीआई की अनुमति है. अंत में, सरकार ने पूरी तरह से वित्तीय सहायता और कर में छूट का वचन दिया है.

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‘मेक इन इंडिया’ का रोल आउट (अनावरण): भारत में विदेशी भागीदारों की भागीदारी बढ़ाने के लिए जून 2014 से प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 84 देशों के दौरे किये और उस दौरान स्पष्ट रूप से चार्टर्ड उड़ानों, विमानों के रखरखाव और हॉटलाइन सुविधाओं पर 1,484 करोड़ रुपये का व्यय किया गया है.5 प्रधान मंत्री के इस तरह के विदेशी यात्राओं का एक प्रेस बयान6 इस प्रकार पढ़ता है:  

‘प्रधानमंत्री ने नॉर्डिक देशों और भारत के बीच सहयोग को गहरा बनाने का वचन दिया, और वैश्विक सुरक्षा, आर्थिक विकास, नवाचार और जलवायु परिवर्तन से संबंधित प्रमुख मुद्दों पर अपनी चर्चाओं पर ध्यान केंद्रित किया. प्रधानमंत्री ने समावेशी विकास को प्राप्त करने और सतत विकास लक्ष्यों को साकार करने के लिए उत्प्रेरक के रूप में मुक्त व्यापार के महत्व की पुन: पुष्टि की. स्वच्छ प्रौद्योगिकियों, समुद्री समाधान, बंदरगाह आधुनिकीकरण, खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य, जीवन विज्ञान और कृषि में नॉर्डिक समाधान का उल्लेख किया. व्यापारिक प्रथाओं की आसानी को नॉर्डिक देशों और भारत दोनों के लिए प्राथमिकता के रूप में जोर दिया. [अप्रैल, 2018 में भारत और नॉर्डिक देशों (डेनमार्क, फ़िनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे और स्वीडन) के बीच शिखर सम्मेलन के बाद प्रेस वक्तव्य के कुछ अंश]

यहाँ पर प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत का विकास एजेंडा मुख्य रूप से पारंपरिक व्यवसायों में जुड़े बहुजन जाति समूहों के लिए बना है? खास कर के इस एजेंडा का संबंध  जलवायु परिवर्तन, समर्थक या विरोधी स्थानीय समुदायों के संदर्भ में हो तब. 

जब इसे बारीकी से देखते है तो ऐसा लगता है कि भारत का विकास एजेंडा बहुजन विरोधी है क्योंकि यह विकास एजेंडा भारत की निजी कंपनियां और चमड़े, डेयरी और गोमांस क्षेत्रों में विदेशी भागीदारों के लिए व्यवसाय करने में आसानी सुनिश्चित करने का विकास एजेंडा है. जहाँ तक पारंपरिक श्रमिकों का सवाल है गाय संरक्षण के नाम पर गाय संरक्षण कानूनों के कड़े कार्यान्वयन और गाय के नाम पर भीड़ द्वारा हत्या की वजह से पारंपरिक श्रमिकों के लिए सामान्य रूप से अपने पारंपरिक व्यवसायों को जारी रखना लगभग असंभव सा हो गया है. 

यहाँ पर गंभीर सवाल यह भी उठते है कि क्या गाय संरक्षण कानून, एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) और पीईटीए (PETA) (जानवरों के नैतिक उपचार के लिए लोग/People for Ethical Treatment of Animals/) हस्तक्षेप और ‘मेक इन इंडिया’ के बीच कोई संबंध हैं? क्या वे एक दूसरे के साथ मिलकर काम कर रहे हैं? और अगर गाय संरक्षण कानून, एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) एवम् पीईटीए (PETA) हस्तक्षेप और ‘मेक इन इंडिया’ के बीच सम्बन्ध है तो उनके एक साथ आने से कौन पीड़ित हैं? कौन लाभार्थी हैं? ऐसे बहुत सारे सवाल उभर कर सामने आते है, इन सारे सवालों के जवाब हमें मीडिया से लिए गए निम्नलिखित रिपोर्ट्स से मिल जाता है.

1. उत्तर प्रदेश में 140 बस्तियों और 50,000 से अधिक मांस की दुकानों को अवैध या बिना अनुमति के चलने वाली घोषित किया गया (IANS, 2017) और इस तरह मांस के उत्पादन और बिक्री पर हमला किया गया. केवल उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि समूचे भारत देश में मांस उद्योग पर कसाई जाति का प्रभुत्व है जो की पसमांदा हैं.

2. क़त्ल के लिए मवेशियों के व्यापार पर प्रतिबंध लगाने के कारण जिसमें ना सिर्फ गायें शामिल थीं, जिनकी हत्या ज्यादातर राज्यों में पहले से ही अवैध थी, लेकिन अब भैंस भी (मांस और चमड़े के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला जानवर), नतीजतन पसमांदा मुस्लिम और हिंदू दलित जो मवेशियों को परिवहन (ट्रांसपोर्ट) करते हैं, टैनरीज़ में श्रम करते हैं और जूते, बैग और बेल्ट बनाते हैं, अपना काम खो देते हैं (रॉयटर्स, 2017).

3. लाखों की संख्या में बहुजन, मांस और चमड़े के उद्योगों में काम करते हैं. जब जून, 2017 में रॉयटर्स ने आगरा के संकीर्ण शूमेकिंग लेन (जूता निर्माण बाज़ार) का दौरा किया, तो मुस्लिमों की भीड़ इकठ्ठा हो गई, वे गुस्से में चिल्लाने लगे कि अब वे भैंसों का व्यापार करने के लिए भी सुरक्षित नहीं है. जूते के लिए जानवर का  चमडा खरीदने का काम उनका समुदाय सदियों से करता आया है अब उनको यह खरीदने से गाय संरक्षण के नाम पर उग्र हिन्दुत्ववादिओं द्वारा हमला किये जाने का डर लग रहा है. मवेशी वध पर सरकारी कार्रवाई के चलते अब आगरा में छोटे पैमाने पर जूता निर्माण करने वाले जूता निर्माता श्रमिकों को काम से बर्खास्त कर रहे है .

4. इंडियास्पेंड जो की एक डेटा पत्रकारिता वेबसाइट है (http://lynch.factchecker.in) उसके अनुसार, गाय से जुड़ी हिंसा की 94 घटनाएं 2012 से 2018 के बीच हुईं, जिसमें 37 लोगों की मौत हो गई. पीड़ितों की संख्या 308 थी और प्रमुख हमले की संख्या 164. 

यहाँ पीड़ितों के रूप में शीर्ष दो जातीय समुदाय दर्ज है और वह है मुस्लिम और दलित. इंडियास्पेंड में मुस्लिम पीड़ितों का डाटा तो है मगर मुस्लिम पीड़ितों की जाति से सम्बंधित  डेटा नहीं है. अगर  झारखंड जो कि भीड़ हत्या के मामले में प्रमुख राज्य है उसके भीड़ हत्या  के पीड़ितों के नाम पर एक त्वरित नज़र डाली जाय तो पता चलता है कि उनमें से अधिकतर पसमांदा मुस्लिम समुदायों से हैं. रामगढ़ जिला: अलीमुद्दीन अंसारी, मांस व्यापारी की भीड़ हत्या (2017); गोड्डा जिला: सिराबुद्दीन अंसारी और मुर्तजा अंसारी की 13 भैंसों को चुराने के आरोप में भीड़ हत्या (2018); लातेहार जिला: मज़लूम अंसारी और इम्तियाज खान मवेशी व्यापारियों के रास्ते में भीड़ के द्वारा बेदर्दी से पीटा गया और उनके बेहोश हो जाने के बाद उनकी लाशों को एक पेड़ से लटका दिया गया (2016);  बोकारो जिला: शमसुद्दीन अंसारी की, बच्चों का अपहरण करने वाले (2017) के संदेह में भीड़ हत्या.

भारत में वर्ग समूह जातियों में विभाजित है7. पिछड़ा वर्गों के लिए बने मंडल आयोग ने भी जाति और वर्ग8 के बीच कन्वर्जेन्स (convergence) पाई है. इंडियास्पेंड के मुताबिक भीड़ हत्या के पीड़ित लगभग पूरी तरह गरीब परिवारों9 से हैं. इसलिए, झारखंड में हुई भीड़ हत्याओं के  पीड़ित ‘अंसारी’ जो की मुसलमानों के बुनकर समुदाय के है (जो की एक गरीब और निम्न जाति तबके के लोग है) इसी समुदाय से होने की पूरी संभावनाएं हैं. इस तरह से देखा जाय तो यह सब पीड़ित पसमांदा मुसलमान ही हो सकते है. कुछ मामलों में ‘अंसारी’ उपनाम का प्रयोग ऊपरी जाति मुसलमानों द्वारा भी किया जाता है मगर ज्यादातर ‘अंसारी’ उपनाम पसमांदा मुसलमान में ही होता है.

बिलकुल इसी प्रकार से राजस्थान और हरियाणा से भीड़ हत्या पीड़ित पहलू खान, जुनैद, उमर  और अकबर सभी मेयो मुसलमान हैं (मेवाती मुसलमानों को हरियाणा में मेओ और राजस्थान में मेव कहा जाता है). मेओ/ मेव मुसलमान पसमांदा मुस्लिम10 हैं. वे पारंपरिक देहाती और उसमे भी विशेष कर गडरिया समुदाय के हैं जो दुग्ध गायों का पालन करते हैं. पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता जॉन दयाल ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा है कि जब हम “करवाने मोहब्बत” के तहत हरियाणा से होते हुए मेवात (राजस्थान) की दो दिन की यात्रा पर निकले थे तो आंसू भरी आँखों के साथ नाराजगी के सुरों में बुज़ुर्ग सवाल करते हुए कहते है कि  “क्या मुस्लिम गायों को नहीं रख सकते? या, क्या कोई ऐसा कानून पारित किया गया है कि मुसलमान गायों को नहीं रख सकते? मेवात में, ज्यादातर मुसलमान खास करके मेव लोग गायों को रखते हैं, कुछ लोग तो 100 से भी ज्यादा गायों को रखते हैं.

5. इंडियास्पेंड के गाय सुरक्षा कानूनों के विश्लेषण में पाया गया है कि मार्च 2017 तक, भारत के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से 84% प्रदेशो में गौ हत्या को प्रतिबंधित किया गया था, जो देश की आबादी का 99.38% है. इस विश्लेषण में यह भी कहा गया है कि अब हकीकत यह है कि हिंदुत्ववादियों का गुट गाय संरक्षण कानूनों का उपयोग दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ा वर्ग के सदस्यों पर हमला करने के लिए कर रहे है. भारत के कई हिस्सों में, पूरे के पूरे कस्बों को जो कि किसी महत्वपूर्ण मंदिर के आसपास पड़ता है उसको शाकाहारी क्षेत्र बनने के लिए मजबूर किया जा रहा है. एक तरह से राज्य सत्ताधारियो की यह प्रवृत्ति भारत के शुद्र, दलितों और आदिवासी समुदायों की अधिकांश आबादी के खानपान से सम्बंधित रीति-रिवाजों के लिए कम सम्मान दर्शाती है.11

6. “जब हम मृत जानवरों को ले जाते हैं, तो वे पूछते हैं कि कहां से आ रहे हैं. जब हम खाल या हड्डियों को लेते हैं, तो हमें यही एक ही प्रश्न पूछते हैं.” यह पूछने वाले ‘वे’ विभिन्न उग्र हिंदूत्ववादियों का समूह हैं. उग्र हिंदूत्ववादियों द्वारा किया गया उत्पीड़न अक्सर असुरक्षा महसूस करवाने के लिए होता है. इसके अलावा यह भी देखा गया है कि चमड़ा उतारने वाले दलित जिस भूमि पर  वर्षो से मृत जानवर का चमड़ा उतारने का काम करते है उस भूमि पर भी उनका कोई अधिकार नहीं है. इसके विपरीत, गुजरात में यह देखा गया है कि राजकोट नगर निगम शहर की सड़कों से जानवरों के शवों को इकट्ठा करने के लिए प्रतिदिन 5,800 रुपये गैर-दलित साझेदारी को भुगतान किया जा रहा है और चमड़ा उतारने के क्षेत्रो में (सोकरा में) फेंका जाता है. यह गैर दलित साझेदारी वाले मजदूर चमड़े का निर्माता नहीं है क्योंकि न तो चमड़ा उतारने का काम करते है न ही हड्डियों को निकालने का. यह न केवल एक कटु सत्य है बल्की दुःखद भी है. चमड़ा उतारने वाले दलित का कहना है कि उनके समुदाय के पास यह काम करने का एक पारंपरिक अधिकार है. वह कहते हैं कि, “हम लोग यह काम कई सदियों से करते आ रहे है” लेकिन सरकार यह काम किसी और जाति जिनका  इस व्यवसाय के साथ दूर दराज का भी सम्बन्ध नहीं उनको ठेकेदारी के रूप में दे रही है.”

चमड़ा उतारने वाले दलित अनौपचारिक श्रमिक हैं, न कि अवैध श्रमिक. लेकिन सरकार उन्हें औपचारिक रूप से लागू नहीं करेगी (चमड़े के श्रमिकों को लाइसेंस दें) क्योंकि उनकी चमड़ा उतारने (Skinning) की प्रक्रिया प्रदूषण पैदा करती है. कानपुर में, 98 टैनरीज बंद कर दी गई जब राष्ट्रीय पर्यावरण ट्रिब्यूनल ने पाया कि वे गंगा में प्रदूषण गिरा रहे थे. इस साल की शुरुआत में, भारतीय पत्रकारिता संगठन,  द वायर ने एक जांच में पाया कि यहां भी, उग्र  हिंदूत्ववादी गौ-सुरक्षा भीड़ के खतरे का असर पड़ रहा है (From Aljazeera.com featured article, ‘India’s Dalit cattle skinners share stories of abuse’12). 

भारत ने बूचड़खानों में ले जाने वाले मवेशियों के व्यापार पर 10 जुलाई, 2017 के प्रतिबंध को निलंबित कर दिया है लेकिन गाय से संबंधित हिंसा/ भीड़ हत्या निरंतर रूप से चलती रही है. और इन सारी घटनाओं में पिछले वर्ष 2014, 2015, 2016 और 2017 में हुई गाय से संबंधित हिंसा/ भीड़ हत्या की घटनाओं की तुलना में 2018 में घटित घटनाओं में मुस्लिम पीड़ितों के प्रतिशत सबसे ज्यादा रहें है| (www.lynch.factchecker.in).

7. मवेशी उद्योग में बहुजन तेजी से अपने पारंपरिक व्यवसाय को छोड़ रहे हैं. 2016 के ऊना हमले में, जब चार दलित पुरुषों पर मृत मवेशियों का चमड़ा उतारने के कार्य के कारण कोड़े बरसाए गए थे, तब ऊना में चमड़ा उतारने वाले दलित टैनरों और गुजरात के अन्य हिस्सों में जाति-आधारित व्यवसाय के नाम पर मवेशी शवों को स्किन करने का काम करने वालों ने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ अपना विरोध जताते हुए इस काम को छोड़ दिया था. उनमें से कई लोग अभी तक  नए काम को खोजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. रमेश सरवैया (ऊना हमले पीड़ित) कपड़ा सिलने का कार्य करते हुए अपना गुजारा कर रहे हैं जबकि उनके चचेरे भाई जितु सरवैया (ऊना हमले पीड़ित) अब मोरबी जिले13 में एक सिरेमिक कारखाने में इलेक्ट्रीशियन के रूप में काम करते हैं. 

जाहिर है, इन गौ रक्षकों, पीईटीए (PETA) और एनजीटी (NGT) को मवेशी क्षेत्र में पारंपरिक, गैर-संगठित या अनौपचारिक श्रमिकों के साथ ही समस्या है, लेकिन बड़े खिलाड़ियों के साथ नहीं. दूसरी तरफ बड़े खिलाड़ियों को भी अनौपचारिक श्रमिकों के साथ समस्या है. मिसाल के तौर पर, कुछ बड़े चमड़े के निर्माता उत्तर प्रदेश राज्य सरकार के लाइसेंस देनें के कदम का समर्थन करते हैं और  बहस के तौर पर कहते हैं कि केवल लाइसेंस प्राप्त अभियुक्तों को संचालित करने की इजाजत इस उद्योग की छवि को साफ-सुथरा बनाएगी. बड़े निर्यातकों का भी यह कहना है कि उनके पास पर्याप्त चमड़ा है क्योंकि वे विदेशों से भी व्यापक रूप से चमड़ा मंगवाते हैं.14

ओईसीडी-एफएओ कृषि आउटलुक 2017-2026 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत गोमांस का दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक है और इस दशक में अगले दशक से भी बेहतर स्थिति पकड़ने का अनुमान है. अल्लाना सन्स प्राइवेट लिमिटेड, अल-हम्द फूड प्रोडक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड, मिरा एक्सपोर्ट प्राइवेट लिमिटेड और एमके ओवरसीज प्राइवेट लिमिटेड यह चार कंपनियाँ देश में शीर्ष चार गोमांस निर्यातक कंपनियां हैं. भारत के 40% गोमांस शिपमेंट जेएनपीटी (जवाहरलाल नेहरू पोर्ट ट्रस्ट जो की सरकार के स्वामित्व में है)15. भारत सरकार ने निर्यात किये जानेवाले गोमांस के सभी प्रेषण के लिए हलाल प्रक्रिया अनिवार्य कर दी है. भारत सरकार हलाल बीफ निर्यात से अरबों डॉलर की कमाई करती है. जमीयत उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट और जमीयत उलमा हलाल फाउंडेशन, जो अशराफ (उच्च जाति) मुस्लिम संगठन हैं (इस जानकारी के लिए इन संगठनों के संगठनात्मक चार्ट को इन संगठनों की वेबसाइटों पर देखें). केवल यह दोनों संगठन ही भारत में हलाल मांस16 के विश्व स्तर पर स्वीकृत प्रमाणक हैं (globally-accepted certifiers in India for halal meat). इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि हाल ही में जमीयत उलमा हिंद के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने गाय को भारत का राष्ट्रीय पशु घोषित करने के लिए आवाज उठाई थी. पत्रकारों से बात करते हुए अरशद मदनी ने कहा कि देश में गोहत्या को लेकर आए दिन माहौल बिगड़ रहे हैं. इस मसले को लेकर कई हत्याएं हो चुकी हैं. गाय और इंसान दोनों को सुरक्षित रखने के लिए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया जाए.  इन्टरनेट पर सर्च करने से इस बात का पता चलता है कि ऑस्ट्रेलिया में हलाल प्रमाणीकरण एक बहुत ही बड़ा और लाखों डॉलर की आमदनी वाला व्यवसाय है.17 हालाँकि जमीयत उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट और जमीयत उलमा हलाल फाउंडेशन द्वारा हलाल मांस प्रमाणन के माध्यम से कितनी कमाई की जा रही है उसके आंकड़े सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध नहीं है. भारत दुनिया में गोमांस का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है तो इसी के आधार पर  हलाल प्रमाणन से जमीयत के हलाल मांस प्रमाणन संगठनों की आय का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. वह निश्चित रूप से अरबों-खरबों रुपये में होगी.

डेयरी क्षेत्र भी छोटे और सीमांत किसानों के बजाये मध्यम पैमाने पर डेयरी खेतों का पक्ष लेने के लिए तैयार है. कृषि और डेयरी से जुड़े व्यवसायों के प्रमुख वित्तदाता राबोबैंक द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘Emerging Dairy Farm Trends in India’18 के मुताबिक, 50 से 300 मवेशियों के साथ मध्यम पैमाने पर चलाये जाने वाले डेयरी फार्म्स भारत के प्रमुख विकास-चालकों में से एक होगा. इस तरह भारतीय डेयरी क्षेत्र में दुग्ध आपूर्ति श्रृंखला में दूध खरीद एकमात्र सबसे महत्वपूर्ण लिंक बन जाएगा. प्रत्यक्ष दूध सोर्सिंग धीरे-धीरे एजेंट-आधारित दूध सोर्सिंग में बदल जायगा जो की एक प्रभुत्वशाली मॉडल बनकर रहेगा. 

इसलिए, गाय संरक्षण कानूनों का कड़ा कार्यान्वयन, गाय सतर्कता के नाम पर हिन्दुत्वादियों का आतंक, भीड़ द्वारा हत्याएं और 201719 में पशु के प्रति क्रूरता की रोकथाम के नियमो में बदलाव यह मात्र संयोग नहीं है, वास्तव में यह बुचडखानों के लिए मवेशियों के व्यापार पर प्रतिबंध लगाने और इन मवेशिओं के मालिकों के व्यापार/व्यवसाय को सीमित करने का कदम है, और अंततः यह कदम गरीब भूमिहीन किसानों की आजीविका को छीनने की बहुत बड़ी साजिश है. इस तरह से भारत के 1 लाख करोड़ रुपये के इस मांस उद्योग से गरीब भूमिहीन किसानों की भागीदारी को नकारा जा रहा हे. जिसकी सबसे बड़ी वजह केवल मात्र यही हो सकती है कि ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को गैर-संगठित क्षेत्र की बर्बादी कीमत पर सफल बनाया जा सके और बिलकूल ऐसा ही साफ़ नज़र आ रहा है. सरकार की आर्थिक नीतियां बहुजनों (मुख्य रूप से डेयरी, गोमांस और चमड़े के क्षेत्रों में काम कर रहे मेयो / मेव, चमार, यादव और कसाई) पर हो रहे गाय के नाम पर या अन्य बहस के नाम पर हिंसात्मक हमलों को व्याखित कर रही हैं.

ईपीडब्ल्यू में ‘Unorganised Sector Workforce in India: Trends, Patterns and Social Security Coverage’ (S. Sakthivel and Pinaki Joddar) के शीर्षक से प्रकाशित लेख से लिखी गई निम्नलिखित तालिका, सामाजिक रूप से कमजोर समूहों की अनौपचारिक या असंगठित क्षेत्र में हिस्सेदारी पर जानकारी प्रदान करती हैं. यह दिखाता है कि गैर-संगठित क्षेत्र में बहुजन श्रमिकों की संख्या (अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े जाति) से 90% से अधिक हैं.

 

तालिका – 13:     असंगठित क्षेत्रों में सामाजिक रूप से कमजोर समूहों की सहभागिता (प्रतिशत में)

सामाजिक समूह

कुल श्रमिक संख्या

गैरकृषि श्रमिक संख्या

संगठित

असंगठित

संगठित

असंगठित

अनुसूचित जन जाती (ST)

5.84

94.16

21.29

78.7

अनुसूचित जाती (SC)

6.46

93.54

15.96

84.03

अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC)

7.08

92.92

15.22

84.78

अन्य

14.21

85.83

25.99

74.01

कुल

9.09

90.9

20.12

79.88

Source: computed from unit level records of Employment-Unemployment Survey, 55th round of NSS, 1999-2000

2013 में विश्व बैंक के एक नीति शोधकार्य पत्र ने भारत के असंगठित क्षेत्र को ‘पर्सिस्टेंट’20  अर्थात यह बहुत ही सख्त और हठी किस्म का है, ऐसा कहा है. उनका कहना है की भारत के असंगठित क्षेत्र में सकारात्मक बदलाव आधुनिकीकरण, विकास और क्षेत्रीय आर्थिक समानता प्राप्ति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. विनिर्माण और सेवाओं में भारत के असंगठित क्षेत्र के बारे में कई महत्वपूर्ण तथ्य हैं- पहला, असंगठित क्षेत्र 99 प्रतिशत है जो की बहुत ही बड़ा है और वह विनिर्माण में 80 प्रतिशत रोजगार पैदा करता है. दूसरा, असंगठित क्षेत्र बहुत ही सख्त एवं हठी है- 1989 और 2005 में विनिर्माण के क्षेत्र में 81 प्रतिशत रोजगार असंगठित क्षेत्र को मुहैया था. तीसरा, असंगठित क्षेत्र की यह दृढ़ता किसी निश्चित विशेष उद्योग उप-समूहों या राज्यों के कारण नहीं है, क्योंकि ज्यादातर उद्योग और राज्य असंगठित क्षेत्र के रोजगार हिस्से में बहुत ही सीमित परिवर्तन दिखाते हैं. चौथा, जिस तरह से स्थानीयकृत असंगठित गतिविधि मौजूद है वह भी महत्वपूर्ण कारण है क्योंकि यह विनिर्माण फर्मों के लिए कमजोर उत्पादन कार्यों से जुड़ी हुई है. यह शोधकार्य पत्र अध्ययन राज्य एवम् उद्योग द्वारा सकारात्मक बदलाव को बढ़ावा देने की स्थितियों की जांच करता है और पाया जाता है कि विनिर्माण क्षेत्र में संक्रमण के लिए बड़े संगठित क्षेत्र की विनिर्माण इकाईयाँ सबसे महत्वपूर्ण हैं, जबकि छोटे प्रतिष्ठान सेवा क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.

निष्कर्ष:

ऐसा क्यों है कि भारत के लोकतंत्र के 70 वर्षों के बाद भी, मांस, चमड़े और डेयरी क्षेत्रों में बहुजन परंपरागत व्यावसायिक समूह मध्यम पैमाने के उत्पादकों के रूप में भी विकसित नहीं हो सके? क्यों वे ‘मेक इन इंडिया’ के तहत प्रमुख प्रतिभागी के रूप में उभर नहीं पा रहे है. यह अनिवार्य है कि सरकार बहुजनों के सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक विकास पर ‘मेक इन इंडिया’, पीईटीए, एनजीटी और गाय संरक्षण कानूनों के प्रभाव पर एक श्वेत पत्र तैयार करे. बहुजन कार्यकर्ताओं और राजनेताओं ने इसकी मांग करनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं करते है तो बहुजन पूरी तरह से बर्बाद हो जायेंगे इसलिए यही बेहतर होगा की जितना जल्दी हो सके इस श्वेत-पत्र मांग की मुहीम को आगे बढ़ाये.

‘मेक इन इंडिया’ की नीतियाँ और बहुजनों के जीवन एवं उनकी आजीविका को जोड़कर समझने की आवश्यकता है. इसके साथ साथ यह भी समझने की आवश्यकता है कि गाय संरक्षण के नाम पर जो उग्र हिन्दुत्ववादिओं के माध्यम से बड़े पैमाने पर बहुजन-पसमांदा पर हमले हो रहे हैं जो न केवल बहुजन-पसमांदा के जीवन में बाधा डाल रहे हैं, बल्की इस हिंसा के कुछ निश्चित लाभार्थी वर्ग भी हैं. उसकी पहचान भी बहुत ही आवश्यक है. बड़े पैमाने पर संगठित बुचडखाने, डेयरी, आदि को अत्यधिक सब्सिडी दे कर सरकार द्वारा पालन पोषण किया जा रहा है या सरकार समर्थित प्रत्यक्ष लाभार्थी हैं.

मुस्लिम राजनेताओं की चुप्पी साफ साफ़ दिखाई दे रही है, वे चुप है क्योंकि वे ज्यादातर अशराफ (ऊंची जाति) मुस्लिम पृष्ठभूमि से आते हैं, उन्होंने हमेशा पसमांदा की दुर्दशाओं को उपेक्षित किया है. इन हिंसओं के कारण वे सीधे राजनीतिक और वित्तीय लाभ प्राप्त करते हैं. इस स्थिति को बहुजन-पसमांदा मुद्दे के रूप में समझा जाना चाहिए, न की केवल मुस्लिम या दलितों का मुद्दा के रूप में.

[लेख के मसौदे की प्रतिक्रियात्मक समीक्षा और इनपुट प्रदान करने के लिए प्रोफेसर शफीउल्ला अनीस, ग्लोकल विश्वविद्यालय के लिए विशेष धन्यवाद]

[यह लेख सबसे पहले अंग्रेजी में www.roundtableindia.co.in पर यहाँ प्रकाशित हुआ था]

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सन्दर्भ सूची

1. Ghotge N, Gáspárdy A (2016) A Socio-Economic Pilot Study on Indian Peri-Urban Dairy Production†. Int J Agricultural Sci Food Technology 2(1): 028-034. DOI: 10.17352/2455-815X.000011
2. Source: FAS/USDA (Head)
7. Ramkrishna Mukherjee, Economic and Political Weekly, Vol. 34, No. 27 (Jul. 3-9, 1999), pp. 1759-1761
19.  now undone after the damage has been done as violence against the bahujans in beef, dairy and leather work continue unabated.
20.  “Ghani, Ejaz; Kerr, William R.; O’Connell, Stephen D.. 2013. The Exceptional Persistence of India’s Unorganized Sector. Policy Research Working Paper;No. 6454. World Bank, Washington, DC. © World Bank. https://openknowledge.worldbank.org/handle/10986/15593 License: CC BY 3.0 IGO.”
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नाज खैर 1993 से हाशिए पर पड़े वंचित समुदायों और समूहों के साथ काम कर रहे एक Development Professional हैं. उन्होंने पिछले 17 वर्षों में बच्चों की शिक्षा परियोजनाओं का मूल्यांकन और मुस्लिम शिक्षा से संबंधित बहुत कुछ अध्ययन किया है. वर्तमान में, वह सम्पूर्णतया पसमांदा-बहुजन परिप्रेक्ष्य में विकास के मुद्दों को उठा रही है

अनुवादक: डॉ जयंत चन्द्रपाल

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