Deepak Kumar
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दीपक कुमार (Deepak Kumar)

Deepak Kumarवर्तमान समय में जिस तरीके से प्रगतिशील विमर्श पर हमले किये जा रहे है, वह हमारे शैक्षणिक जगत में एक संवाद की संभावना को खत्म करने की कोशिश को प्रदर्शित करता है। वैसे तो हमेशा से ही शैक्षणिक जगत में एक खास तरीके की शिक्षा प्रद्धति का वर्चस्व रहा है, जो कहीं न कहीं प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक विद्यमान रही है। आधुनिक समय में संवैधानिक प्रावधानों के कारण शिक्षा तक सभी जाति, वर्ग, और लिंगों की पहुँच से रूढ़िवादी और अभिजात वर्गों की प्रभुसत्ता को एक चुनौती का सामना भी करना पड़ा है।

प्राचीन समय में शिक्षा जब कुछ ही वर्णों एवं जातियों तक सीमित थी, तब ज्ञान और विमर्श के क्षेत्र में एक खास तरह की शैक्षणिक शैली विद्यमान थी, जो अधिकतर ब्राह्मणों के द्वारा स्थापित नैतिक और मौलिक आदर्श स्थापित करती थी। शिक्षा को एक सामाजिक प्रतिष्ठा और शोषण की विषय वस्तु तक ही सीमित रखा गया । परन्तु औपनिवेशिक आधुनिकता के आगमन ने भारत में विभिन्न वर्गों को शिक्षा के क्षेत्र में पहली बार प्रवेश का मौका दिया जो कालांतर में संवैधानिक रूप से स्वतंत्र भारत में वंचित और शोषित तबकों को भी शिक्षा का अधिकार के रूप में प्रकट हुए। सामाजिक और राजनीतिक सुधार की प्रक्रिया जो स्वतंत्रता संग्राम में शुरू हुई वह आगे चल कर शैक्षणिक विमर्श में एक विरोधाभास की स्थिति पैदा करती है। उसको हम कांचा इलैय्या के पुस्तकों के माध्यम से ऐतिहासिक रूप से समझने की कोशिश करते हैं कि किस प्रकार से हिंदु सामाजिक पद.सोपानिक व्यवस्था भारत की मूल दलित और आदिवासी जनसमुदाय पर एक प्रभुत्व कायम कर पायी। भारत में जाति व्यवस्था के माध्यम से किस तरीके से महज कुछ जातियों का ही शक्ति के सारे संसाधनों पर कब्जा स्थापित हो गया। इसी के साथ-साथ किस तरीके से हिन्दू रहने के हिन्दुओं में ही एक वर्ग के साथ अछूतों जैसा  अमानवीय व्यवहार या बर्ताव किया गया।

इन कुछ मूलभूत प्रश्नों को उठाते हुए कांचा इलैय्या अपनी तीन पुस्तकों ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’ (Why I am not a Hindu), ‘बफैलो नेशनलिज्मः अ क्रिटिक ऑफ स्प्रिचुअल फासिज्म’ (Buffalo Nationalism: A Critique of Spiritual Fascism) और पोस्ट हिन्दू इंडिया (Post Hindu India) जिनको हाल ही में दिल्ली विश्वविद्यालय के अकादमिक कांउसिल जो पाठ्यक्रम से संबद्ध निर्णय लेने की प्रशासनिक इकाई है जिसके द्वारा इन पुस्तकों को प्रतिबंधित करने की अनुसंशा की गई है। जिससे परिलक्षित होता है कि वर्तमान प्रशासन और विश्वविद्यालय में उच्च पदों पर बैठे हुए लोग बहुजन विमर्श से किस तरीके से भयभीत हैं। भारतीय इतिहास के लेखन के लिए जो पद्धति अपनाई गई, वह मुख्य रूप से दो मतों में अपना चिंतन व्यक्त करती है। जिनमें वामपंथी एवं राष्ट्रवादी पद्धति के माध्यम् से ही इतिहास को समझने एवं विवेचन करने पर जोड़ दिया गया है। परन्तु, वर्तमान समय में दक्षिणपंथी ताकतें भी इतिहास लेखन को अपने अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने की कोशिश में लगी हुई है। 

kancha Illaiha Sir Books

ज्ञान और शक्ति

प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों तक एक खास तरीके विमर्श को प्रस्तुत किया गया है। यह मुख्यरूप से दलित-बहुजन विमर्श को दरकिनार करता है। और उन पर ऐतिहासिक बोध को पीछे धकेलता है। सदियों से सताये हुए, इस वर्ग को हाशिये पर रखने की कोशिश ना सिर्फ ब्राह्मणवादी समाजिक व्यवस्था करती आयी है। लेकिन, स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान हमारे राष्ट्रनिर्माताओं के बीच जो सामाजिक और राजनैतिक सुधारों को लेकर विरोधाभास पैदा हुए। वह मुख्य रूप से गांधी और अम्बेडकर के संवाद में जहां एक तरफ गांधी जी राजनैतिक स्वतंत्रता को लेकर बेचैन थे वही डॉ. अम्बेडकर सदियों से सताये उस समाज के समाजिक उत्थान को लेकर चिंतित थे। 

स्वतंत्र भारत ने जब अपना संविधान अंगीकृत किया तो इसमें हर वर्ग को अपने स्वतंत्र विमर्श को आगे बढ़ाने की मुखालफत की गयी। संवैधानिक उपचारों के माध्यम से ही जो वर्ग ऐतिहासिक रूप से शोषित रहे उनके लिए विशेष प्रावधानों की अनुसंशा की गयी तथा इनके उत्थान की संभावना आधुनिक संस्थानों के माध्यम से हमारे संविधान निर्माताओं ने की थी। आधुनिक संस्थानों की कल्पना जिन मुल्यों के आधार पर की गई थी। उनमें प्रतिनिधित्व का सिध्दांत एक मूल सिध्दांत था। परन्तु बहुत सारे आँकड़े दर्शाते है कि भारतीय विश्वविद्यालय में जिस तरह से एक खास जाति और वर्ग के लोगों का आधिपत्य रहा है। अस्सी और नब्बे के दशक में जिस तरह से बहुजन राजनीति ने जो दावेदारी भारतीय राजनीति में प्रस्तुत की है। उस से अकादमिक विमर्श की धारा में भी परिवर्तन परिलक्षित हुआ। नब्बे के दशक में मंडल आंदोलन के तहत भारत के विभिन्न शिक्षा संस्थानों एवं विश्वविद्यालयों में बहुजन विमर्श को गति प्रदान की और उनके प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की मांग को तेज किया। 

दलित बहुजनों के द्वारा अपने प्रधिनिधित्व के मांग से लेकर विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों एवं विमर्श में भी एक असहजता महसूस की गई। इस दौर में शोधरत दलित बहुजन बहुधा एक खास तरीके की शिक्षा पद्धति एवं पाठ्यक्रम से अपने आपको अलग-अलग पाते थे और उनके अनुभव को इस खास तरीके के ज्ञान के उपार्जन में कोई जगह नही मिलती थी। परन्तु, जब इस तबके के लोगों को विश्वविद्यालय में अध्यापको एवं प्रशासकों की भूमिका में कार्य करने का मौका मिला। तब उन्होंने अपनें दौर में जो कठिनाईया महसूस की उनका हल निकाल कर नई शिक्षा पद्धति के आधार पर पाठ्यक्रम निर्मित किया। 

शिक्षा के क्षेत्र में पुस्तकों की महत्ता को किसी भी प्रकार से नकारा नहीं जा सकता है। पारम्परिक रूप से पढ़ाये जा रहे पुस्तकों के प्रभाव को हम समाज के उपर देख सकते है। जिसने समाज के शोषणकारी, दमनकारी और अंधविश्वासी बना दिया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सदियों से शिक्षा से दूर किये गये और हाशियें पर के लोग इस क्षेत्र में अपनी जगह बनाने लगे है। दलित और पिछड़े जाति वर्ग से आने बाले ये लोग पारम्परिक रूप से चले आ रहे शिक्षा के स्रोत पर प्रश्न करना शुरू कर दिया है। जिससे मुख्यधारा के शिक्षाविदों के समाने समस्या उत्पन्न हो गई है। दलित वर्ग के लोग अपने ही समाज के चिंतकों को पढ़ना शुरू कर दिया है, जिन्होने न सिर्फ जाति, धर्म, लिंग के आधार पर हो रहे शोषण के बारे में लोगों को जागरूक किया बल्कि इसे कैसे दूर किया जा सकता है उससे भी समाज को अवगत कराया है। शक्ति और ज्ञान के इस बदलते हुए स्वरूप से परम्परावादी शिक्षाविद हताश होकर दलित वर्ग के शिक्षाविदों को दरकिनार करने के जद्दोजहद में लगे है। इसी का परिणाम है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में दलित शब्द के प्रयोग और कांचा इलैय्या के पुस्तकों को पाठ्यक्रम से बाहर करने का प्रस्ताव रखा गया है।

वैकल्पिक शिक्षा के स्रोत और दलित शब्द पर प्रतिबंध का प्रस्ताव

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के प्रोफेसर एन. सुकुमार ने के द्वारा स्नातक स्तर पर वैकल्पिक विषय के रूप में दलित बहुजन पॉलिटिकल थॉट विषय को छात्रों के अध्ययन के लिए शैक्षणिक परिषद् के स्वीकृति के पश्चात् लाया गया। जिसके तहत आज तक सामाजिक रूप से पिछड़ी जातियों से आने वाले और उनके बारें में बात करने वाले विचारकों के विचार को पढ़ाया जाता है। मुख्य रूप से ये विचारक है, बुद्ध, कबीर, रविदास, ज्योतिबा फूले, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर, पेरियार, ताराबाई शिन्दे एवं कांशी राम। इन सभी विचारकों को कभी भी भारतीय शिक्षण व्यवस्था में अध्ययन हेतु स्थान नहीं दिया गया। मुख्यतः ऐतिहासिक रूप से चली आ रही मान्यताओं का समर्थन करने वाले विचारकों को ही पढ़ाया जाता रहा है, जैसेः महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद आदि। दलित विचारकों ने सदियों से चली आ रही मान्यताओं के खिलाफ अपने विचार रखें है। भारत में जातिगत व्यवस्था के तहत दलित, पिछड़े व महिलाओं को हमेशा से दबा कर रखा गया है। उपरोक्त विचारक न सिर्फ जातिगत व्यवस्था बल्कि धार्मिक अंधविश्वास पर भी प्रहार करते है।

Kancha Sir Addressing Youth in DU

कांचा इलैय्या दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक प्रोटेस्ट को सम्बोधित करते हुए

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग में पढ़ाये जाने इस पाठ्यक्रम में कांचा इलैय्या के पुस्तकों व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू (Why I am not a Hindu) और पोस्ट हिन्दू इंडिया (Post Hindu India) को शामिल किया गया है। जिसे शैक्षणिक परिषद् एवं स्थायी समिति के द्वारा पाठ्यक्रम से बाहर करने का सुझाव दिया गया है। इस तरह का सुझाव यह दर्शाता है कि किस प्रकार से शिक्षा के क्षेत्र में ब्राह्मणवादी प्रथा को कायम रखने की कोशिश की जा रही है। वही दुसरी तरफ वैकल्पिक विमर्श को शिक्षा के क्षेत्र में आने से रोका जा रहा है।  

इस संबंध में प्रो. एन. सुकुमार कहते है कि विभाग में भारतीय राजनीतिक चिंतन विषय को पढ़ाया जाता है। जिसमें स्वतंत्रता, न्याय जैसे अवधारणाओं के साथ-साथ कुछ खास चिंतकों पर जोर दिया जाता है, जैसेः मनु, कौटिल्य, रविन्द्रनाथ टैगोर, मोहनदास करमचंद गांधी, वीडी सावरकर और जवाहरलाल नेहरू को पढ़ाया जाता है। इस समय कुछ खास चिंतकों को नजरअंदाज करने का प्रचलन है। जिसकी वजह से हमने डॉ. बी. आर. अम्बेडकर को पाठ्यक्रम में शामिल किया। लगभग पाँच साल पूर्व विभाग में कुछ नये साथी जुड़े जो भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद जैसे विषय पढ़ाना चाहते थे। नये पाठ्यक्रम में उन्होंने वेद को भी शामिल किया है। इसलिए मैंने भी दलित-बहुजन पॉलिटिकल थॉट विषय को पढ़ाना प्रारंभ किया। इस वर्ष भी हम इस विषय को पढ़ा रहें है, जिसे करीब 90 छात्रों ने वैकल्पिक विषय के रूप में चुना है। जिसमें बुद्ध और राजनीतिक विमर्श को कांचा अइलैय्या ने अपने पुस्तक गॉड एज ए पॉलिटिकल फिलॉसफर में इसका उल्लेख किया है। वहीं इनकी दुसरी पुस्तक व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दु, हिन्दु धर्म और हिन्दुत्व और क्या दलित सही में हिन्दु समाज का हिस्सा है? वहीं उनकी तीसरी पुस्तक गॉड एज ए पॉलिटिल फिलॉसफर धार्मिक और अध्यात्मवाद। एक अन्य पुस्तक पोस्ट हिन्दु इंडिया ग्रामीण इलाके के अध्ययन पर आधारित है।

SuKumar Sir Speaking in JNU

प्रो. सुकुमार जे एन यू में पोस्ट डिनर टॉक में इस विषय पर बात करते हुए

यह पुस्तक सदियों से चली आ रही ज्ञानोपार्जन यानि ज्ञान अर्जित करने के स्रोत को चुनौती देती है। इसलिए विश्वविद्यालय की शैक्षणिक परिषद् ने न सिर्फ इन पुस्तको प्रतिबंधित करने की अनुसंशा की है बल्कि दलित शब्द के प्रयोग पर भी आपत्ति दर्ज की है। क्योंकि दलित शब्द का प्रयोग हाशियें लोगों के लिए अब शक्ति के रूप में कार्य करता है।

सारांश

वर्तमान समय में शिक्षा के क्षेत्र में दलित चिंतकों के बढ़ते दबदबे से परम्परावादी शिक्षाविद घबराने लगे हैं। इसलिए इस क्षेत्र में दलित समुदाय के शिक्षक और छात्रों के शिक्षा को स्रोत एवं शिक्षण संस्थानों सो दूर करने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। किन्तु, यह दलित समुदाय वर्तमान का जागरूक समाज है जो इन परम्परावादी शिक्षा-शास्त्रियों के द्वारा किये जा रहे हर साजिश का पर्दाफाश अपने तर्कों के माध्यम से को करने तैयार है।

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संदर्भ सूची

Chowdhury, Shreya Roy. “DU Professor Explains Why ‘University Dronacharyas’ Want Kancha Ilaiah’s Books Dropped from Syllabus.” Scroll.in, Scroll.in, 26 Oct. 2018, scroll.in/article/899691/interview-du-professor-on-why-university-dronacharyas-want-kancha-ilaiahs-books-from-syllabus.

Sukumar, N. “Why I Introduced Kancha Ilaiah’s Books in the DU Political Science Course.” The Wire, 26 Oct. 2018, thewire.in/education/delhi-university-political-science-kancha-ilaiah-dalit.

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Shankar, Aranya. “DU Political Science Dept to Continue with Kancha Ilaiah’s Books, Academic Council to Take Final Call.” The Indian Express, The Indian Express, 1 Nov. 2018, indianexpress.com/article/education/du-political-science-dept-to-continue-with-kancha-ilaiahs-books-academic-council-to-take-final-call-5430204/.

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दीपक कुमार दिल्ली यूनिवर्सिटी विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ़ पोलिटिकल साइंस में पी.एच.डी  स्कॉलर हैं।

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