Dhamma
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धम्म दर्शन निगम (Dhamma Darshan Nigam)

Dhammaहाथ से मैला साफ़ करने वालो का जीवन जातिगत छुआछूत, महिलाओं पर अत्त्याचार, गन्दगी और अपमान से भरा हुआ है। जो खुद को “ताकतवर” समझने लगते हैं जब राजनेता उन्हें वोट बैंक के रूप में देखते हैं। लेकिन, मैला साफ़ करने वालों के जीवन, अभिलाषाओं, और उनके रहन-सहन को सही मायनों में समझे बिना, कोई भी सरकार उनकी ज़िंदगियों को समर्थ बनाने और बदलने की योजनायों का वादा कैसे कर सकती है?        

मेरे इलाके में वो पांच साल में एक बार आते हैं, उनके हाथ जोड़े, मेरे वोट की भीख मांगने। मेरे इलाके की वो संकरी गलियों से गुजरते हैं, मेरे घरों में झांकते हैं, सड़क की हालत देखते हैं, कूड़े के ढेर पर नज़र फेरते हैं, और खुले नाली-नालों को देखकर शर्मिंदगी महसूस करते हैं। वे उनके भाषणों और घोषणापत्र में वही पुराने वादों की लम्बी सूची गिनाते हैं, और वह भी पांच सालों में एक बार ही बाहर निकलती है। चुनावों के बाद अगले पांच साल के लिए, वे मुझे और मेरी गलियों को उनकी याददाश्त से एकदम से मिटा देते हैं। कभी-कभी दिलासा देने के लिए वे, मेरे इलाके के हालात जानने के लिए अलग-अलग समितियों का गठन करते हैं, और सामाजिक-आर्थिक और शैक्षणिक तरक्की के लिए अलग-अलग योजनाओं की शुरूआत करते हैं। यधपि, इसके बाद वे कभी ध्यान नहीं देते कि उन समितियों और योजनाओं का क्या हो रहा है। जिनके लिए ये बनाई गई हैं उन तक पहुँच भी रहीं है या नहीं? और अगर ये पहुँच भी रहीं हैं तो क्या लोगों को इन योजनाओं से फायदा मिल भी रहा है या नहीं? कोई भी वही इलाके में दोबारा कभी नहीं आता जहाँ वे एक बार हाथ जोड़े वोट मांगने आये थे, और उनका दुःख व्यक्त किया था घर, गली, खुली नाली-नालों के हालात पर। 

उनके राजनीति के पूरे जीवन में उन्हें ये कभी नहीं लगता कि पता करें कि मैं जीवन-यापन के लिए क्या करता हूँ—वह काम, जो मुझ पर थोपा जाता है—दिन-प्रितिदिन, साल दर साल, और आने वाली पीड़ियों तक। बिना मेरे काम को देखे-जाने, वे मेरे और मैला साफ़ करने वाले दूसरे लोगों के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक विकास के लिए कैसे प्रभावी योजनायें बना सकते हैं? क्या उन्हें गटर या मैनहोल की गहराई भी मालूम होती है जिसके अन्दर मैं पूरे शहर की टट्टी और गन्दगी साफ़ करने जाता हूँ? वे मुझे, इंसानी मल में डूबे मेरे पूरे शारीर को बिना देखे, मेरी परिस्थिति की कल्पना कैसे कर सकते हैं? बिना मेरी माँ और बहन को कच्चे शौचालय साफ़ करते देख, बिना उन्हें पाखाना से भरा, चूता टोकरा उठाये देख, वे उनकी परिस्थिति की कल्पना कैसे कर सकते हैं? 

क्या उन्हें मालूम है कि हर मानसून से पहले मैं इतना जरुरी क्यों हो जाता हूँ—मैनहोल और गटर में कूद कर उन्हें साफ़ करने के लिए? क्या वे वह अपमान महसूस कर सकते हैं, जो मैं सुबह जागने से रात के सोने तक सहता हूँ? वह अपमान जो मैं सिर्फ यह घिनौना काम करते नहीं सहता, बल्क़ि जब मैं सड़क पर चलता हूँ, या किसी दूकान पर कुछ सामान लेने जाता हूँ, हर जगह अपमानित किया जाता हूँ। यह अपमान मेरे जीवन के हर क्षण हर हिस्से में शामिल है। यह ऐसा है जैसे किसी पेशवा का भूत अभी भी मेरा पीछा कर रहा है, मुझे डरा रहा है।

बड़ी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों के बड़े-बड़े नेता लगातार महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं, लेकिन यह बातें मैला साफ़ करने वाली महिला की बात आने पर एकदम मुर्दा शांति से भर जाती हैं। वे मैला साफ़ करने वाली महिलाएं के अत्त्याचार और अपमान के नाम पर गूंगे, बहरे, और अंधे हो जाते हैं। क्या यह इसलिए होता है कि ये महिलाएं, महिलाएं नहीं हैं या फिर इंसान ही नहीं है? वे हमेशा जाति प्रथा के चलते मैला साफ़ करने वालों के उत्पीड़ित जीवन से बेख़बर बने रहते हैं। और तो और मैला साफ़ करने वाली महिलाएं जातिवाद, पित्रसत्ता, और आर्थिक रूप कमजोर और निर्भर होने की वजह से ज्यादा प्रताड़ित रहती हैं, जिस पर किसी नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, या आमतौर पर नागरिकों के अधिकारों की बात करने वाले किसी भी इंसान का कभी भी कोई ध्यान नहीं जाता। यह कोई काम नहीं है. जो हमसे कराया जाता है। यह हमारे दिमाग और शरीर पर एक अत्त्याचार है। आजकल लोगों को स्वस्थ और सफाई का जुनून है, साफ़ हवा लेने के लिए सुबह जल्दी उठते हैं, बागों में, पार्क में लम्बा चलते हैं, लेकिन दूसरी तरफ मैं और मेरे लोग, ख़ासतौर पर हमारी महिलाएं, गंदे, अपमानित, और जहरीले संसार में घुसने के लिए सुबह जल्दी उठती हैं। यह दुनिया का सबसे ज्यादा कभी भी कल्पना में ना आने वाला काम है, जहाँ साफ़ हवा का विचार भी नहीं होता।

एक सड़ी हुई और बदबूदार कल्पना 

यह गन्दा और मैला संसार कभी भी हमारे नेताओं को कल्पना में भी नहीं दिखता, क्योंकि इसे हम लगातार उनके लिए साफ़ कर रहे हैं। इन नेताओं को दिखती है तो बस मेरे लोगों की जातिगत पहचान, वो भी एक ठोस वोट बैंक के रूप में। 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने मैला प्रथा पर ही एक फैसला सुनाया था कि, “1993 से उन लोगों के परिवारों को पहचाना जाए जो सेप्टिक टैंक और मैनहोल की सफाई के दौरान मरे हैं और उन्हें हर एक ऐसी मौत पर 10 लाख रूपये का मुआवजा दिया जाए”।     

हालाँकि यह एक बहुत अच्छा फैंसला था, लेकिन आज अलग अलग राज्य की सरकारें यह कह रहीं हैं कि सीवर में मरे लोगों के परिवारों को देने के लिए उनके पास इतना पैसा ही नहीं है। हमारे साथ यह क्या खेल हो रहा है? एक सरकारी संस्था मुआवजा देने के लिए कहती है, तो दूसरी तरफ सरकारी लोग मुआवजा देने से ही साफ़-साफ़ मना कर देते हैं। क्या हम लोग इसी तरह दूसरों कि टट्टी साफ़ करने के लिए उसमे  मरने के लिए पैदा हुए हैं?

जिस तरह मैला प्रथा के काम से बदबू उठती है, उसी तरह से सरकारी योजनायें और ये योजनायें बनाने वालों से जातिवाद का धुआं उठता दिखता है। एक तरफ, भारतीय रेलवे, जो देश की जीवनरेखा के रूप में देखी जाती है, लगातार लोगों से मैला साफ़ करा रही है, और दूसरी तरफ, मैला प्रथा के खात्में और इसमें लिप्त लोगों के पुनर्वास की बात की जाती है। अगर मैला प्रथा को ख़त्म करना सही में भारत सरकार का लक्ष्य है तो, एक कानून पहले से बना हुआ है जिसे भारत सरकार को पूर्ण रूप से लागू करना चाहिए। एक ज़िन्दगी की कीमत पैसे नहीं हो सकती। मैला प्रथा को ख़तम करने के लिए नए कानून, संशोधन, या फैसलों की नहीं, इच्छाशक्ति की जरुरत है। जरुरत है तो पहले से मौजूद कानून को मजबूती से लागू करने की। आप मुझे सिर्फ कमी निकालने वाला या निराशावादी ना समझे, कि जो बस शंका कर रहा है कि इन परिवारों को ये तय किया हुआ मुआवजा मिलेगा या नहीं। मुझे विश्वास है कि सभी परिवार जिन्होंने अपने सदस्य गवाएं हैं उन्हें यह मुआवजा जल्दी मिलेगा, और ये परिवार अपना जीवन यापन बेहतर कर पाएंगे।       

हालाँकि, मुआवजा ही सब कुछ नहीं है। यह हम पर हो रहे इस अत्त्याचार को ख़तम नहीं कर देता। अगर किसी दिन मैं किसी मैंनहोल, गटर, या सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए मरता हूँ तो, मैं नहीं चाहता कि मेरे परिवार को एक रुपया भी मिले। इसके बदले मैं चाहूँगा कि मेरे बच्चों को बेहतर शिक्षा और काम दिया जाए। लेकिन फिर से, मैं नहीं चाहूँगा कि, सिर्फ नाम करने के लिए मेरी बेटी को किसी नगर निगम के स्कूल में भर्ती करवा दिया जाए, जहाँ कोई पढ़ाई नहीं होती, या मेरे बेटे या बीवी को मेरे बदले उसी काम में लगा दिया जाए।

बिना मुझे और यह काम जाने, वे मेरी पूरी तरक्की के लिए योजना बनाने का दावा नहीं कर सकते। वे अलग-अलग समीतियाँ और योजनायें यह दिखाने के लिए बनाते है कि वे सब को साथ ले कर चलते है। जबकि, उनके लिए, ऐसी कोई वजह नहीं है कि वे मेरी राजनीतिक-सांस्कृतिक स्थिति पर कोई भी चिंता जताएं। उन्हें डर है कि अगर मैं इस सांस्कृतिक राजनीति को समझ गया तो, मैं सही-गलत, अच्छा-बुरा, तार्किक-अतार्किक, स्वच्छ-अस्वच्छ, समानता-असमानता, धार्मिक कट्टरता-धर्म निरपेक्षता, और सबसे महत्वपूर्ण, खुद की आजादी और तरक्की के लिए मुझे किसे अपना वोट देना चाहिए और किसे नहीं, पर विचार करना, उसका कारण जानना शुरू कर दूंगा। वे डरते हैं कि मैं सवाल करना शुरू कर दूंगा कि लगातार इतने सालों तक एक ही राजनीतिक पार्टी का समर्थन और उसे वोट देने के बावजूद, मैं इसी एक ही काम को करने को क्यों विवश हूँ।

इस राम-राज्य में, मुझसे अपेक्षा की जाती है मेरे भाग्य से मुझे जो काम मिला है मैं उसमे खुश रहूँ—मैं मैला प्रथा में खुश रहूँ। एकदम आसान शब्दों में कहा जाए तो मुझे नफरत है ऐसे राम-राज्य से। मुझे नफरत है ऐसे विचारों से जहाँ यह पढ़ाया जाता है कि इस जन्म में यह काम करते रहो, अगले जन्म में अच्छा जीवन मिलेगा। मुझे नफरत है ऐसे धार्मिक ग्रंथों से जो वास्तविकता से ज्यादा काल्पनिकता में जीना सिखाते हैं। मुझे इस धुंध में फसे रहने से नफरत है। मुझे ब्राह्मणवाद के मकड़जाल में फसे रहने से नफरत है। यह एक ऐसी दलदली ज़मीन की तरह है, जिससे मैं जितना बाहर निकलने की कोशिश करता हूँ, उतना ही उस दलदल में खुद को फसा हुआ पाता हूँ।

मेरा वोट 

तब भी वे मुझसे आशा रखते हैं कि, अपने पूरे दिन का मेहनताना छोड़ कर, घंटों लाइन में इंतजार करने के बाद, भूख से जलते हुए पेट के साथ, मैं उनके लिए वोट करूँगा। क्या वे जानते हैं कि अगर मैं एक दिन का काम छोड़ दूँ तो शाम को मेरे पास पैसे नहीं होते खाना खाने के लिए? मुझे खाली पेट सोना पड़ता है। तो मैं अपने एक दिन का वेतन क्यों छोड़ू, जब मुझे मालूम है कि मुझे शाम को खाना तभी मिलेगा जब मैं दिन में काम करूँगा। मुझे अपने आप को एक दिन ले लिए भी भूखा क्यों रखना चाहिए?

पर, मुझे मालूम है अगर मैं भूखा रहूँ तो मैं मरूँगा नहीं। मैं दो से चार दिन तक भूखा रह सकता हूँ। मैं वो मजदूर हूँ जिसे दर्द नहीं होता—एक मोटी खाल वाला मैला साफ़ करने वाला। मैं रोज जहर, गन्दी गंध, और अपमान के बीच जीता हूँ। मैं दिन के उजाले में तो कम से कम इतनी आसानी से मरने वाला नहीं हूँ, लेकिन शायद अँधेरे गटर में, बदबूदार और जहरीली गैस के बीच, बिना दिखे-बिना सुने मारा जाऊं।       

लेकिन यह भूख का एहसास मुझे बार-बार याद दिलाता है कि मेरा एक वोट बहुत महत्वपूर्ण है, जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सकता। मैं पूरे दिन जलाने वाले सूरज के नीचे खड़े होकर वोट देना चुनता हूँ क्योंकि यह मुझे लगातार मेरे वोट डालने के संवैधानिक अधिकार को  याद दिलाता है। यह मेरा अकेला अधिकार है जो मैं इस्तेमाल कर पाता हूँ। इसलिए, मुझे बहुत ध्यान से राजनीतिक पार्टी और उम्मीदवार को चुनना है। और झूठे वादों और झूठे प्रतिनिधियों से बचना है। मैं खुद को बस एक वोट बैंक मात्र होने से नकारता हूँ। वोट ही एक ऐसा समय है जब मैं खुद को लोकतंत्र का हिस्सा समझ पाता हूँ, बाकी समय तो मैं कोई दूसरा हिस्सा सा होता हूँ।

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धम्म दर्शन निगम ‘सफाई कर्मचारी आन्दोलन’ के सक्रिय सदस्य हैं, लेखक हैं. उनसे ddnigam@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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