
विजेता कुमार (Vijeta Kumar)
10 दिसंबर 2018 की शाम, दिल्ली में विश्व युवा केंद्र के किसी छोटे से सभागार में गायिका मालतीराव बौद्ध बड़े ही निश्चिन्त भाव से हिन्दू धर्म का निराकरण कर रही हैं. (हिन्दू धर्म- एक जीने की पद्धत्ति अथवा गाय हमारी माता है, हमको कुछ नहीं आता है, वगैरह-वगैरह. आप जो भी समझना चाहे.)
मालतीराव की जोरदार आवाज़ सुनने वालों के कानों पर जैसे प्रहार करती है. मगर मुझे जो सुनाई दे रहा है वो समझ भी आ रहा है. शायद इसलिए मैं स्तब्ध हूँ. इनकी कहानी सुनकर मेरी स्तब्धता एक सूखे स्पोंज के जैसे मालतीराव की हरेक बात को अपने अंदर सहेज लेना चाहती है.
हमलोग नेशनल कैंपेन ऑन दलित ह्यूमन राइट्स (NCDHR) की बीसवीं सालगिरह के लिए इकठ्ठा हुए हैं और सुबह से काफी कुछ हो चुका है. जैसे कि– पैनल चर्चाएं, भाषणबाजी, घोषणाएं इत्यादि.
अम्बेडकर,राजनीति और क्रांति… सबने इनके बारे में कुछ ना कुछ कहा मगर आशा जेक, महासचिव आल इंडिया दलित महिला मंच (AIDMAM) की माने तो, “मालतीराव बौद्ध की आवाज से बढ़कर कोई और क्रांति है नहीं.”
मंच पर मालतीराव बेखौफ खड़ी हैं. उनका गुलाबी दुपट्टा कभी भी उनके कंधे से सरकता नहीं है. वो चल रही हों, नाच रही हों, इशारे कर रही हों… ये सब वो लगातर कर रही हैं. मुझे नहीं लगता ये बस सेफ्टी पिंस की मेहरबानी है. असल बात कुछ और ही है.
उनके पीछे बैठे तीन आदमी हारमोनियम, ढोलक, और एक बैंजो से उनका साथ दे रहे हैं. मालती राव उनके ताल से सुर मिलाकर एक जश्न का आगाज़ करती हुई नज़र आती हैं. उन्होंने हम सबको उनके इस जश्न में शामिल होने का न्योता दिया है-
कर सको तो अपनी वादी में वो होनहार पैदा करो
और रुख हवाओं का बदल दो- वो अस्त्र पैदा करो
गर जीना है इस दुनिया में, अरे! इंसान की जिंदगी
तो हर घर में एक-एक अम्बेडकर पैदा करो.
जैसे एक माँ अपने बेटे की प्रशंसा करने से गर्व महसूस करती है, मालतीराव उसी भाव से अम्बेडकर के लिए गाती हैं.
और जैसे ही मालती राव गाती हैं-
क्यूँकि हमारे भीम ने ऐसा संविधान दिया है,
धरती कभी झुकती नहीं आसमान के आगे,
और कोई दूसरा रस्ता नहीं शमशान के आगे,
अरे आखिर राम का भी फैसला आ गया कोर्ट में,
क्यूँकि राम को भी झुकना पड़ा संविधान के आगे.
मुझे दुनिया के किसी दूसरे कोने में नारंगी-मर्द ज़मीन पर लोट-लोटकर रोते-बिलखते दिखते हैं.
आप को जरा भी आभास ना होगा कि आप क्या महसूस करने वाले हैं जब तक आप मालतीराव की कहानी इनकी जुबानी नहीं सुनते.
शुरआती लाइनें इनके गानों में बॉलीवुड के मशहूर गानों की है. आपको कभी पता नहीं चलेगा कि, ” हमें तो लूट लिया मिल के हुस्न वालों ने” गाने के बाद वो खिलखिला पड़ेंगी ये कहकर की– “हमें तो लूट लिया देखो चायवाले ने.”
मालती राव बौद्ध और उनके गानों पर थिरकते बहुजन
उनके गीतों के बोल आपको चोट पहुंचाते हैं, आपसे रुकने को कहते है और कई सवाल पूछते हैं. ये सब बस एक लाइन में हो जाता है.
जब मालतीराव सावित्री माई के लिए गाती हैं तो उनके आंसू-पसीने सब सावित्री माई की नजरअंदाज कर दी जाने वाली कहानी को चीख-चीखकर बताते हैं.
मेरे चारों ओर औरत-आदमी, बच्चे-बूढ़े सब इस दिल्ली की सर्दी में अपना शॉल और स्वेटर हटाकर जोर-जोर से तालियाँ बजा रहे हैं. मालतीराव के सामने दिल्ली की सर्दी भी फीकी पड़ रही है.
यहाँ ये कहना बिल्कुल जायज़ होगा कि ये ‘ऊपर’ जात वाले हमारे पढ़ने-लिखने से जलते हैं. इनके अहंकार और दवाब के विरुध जाकर सावित्री माई ने ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर लड़कियों के लिए एक विद्यालय की स्थापना की.
सावित्री माई एक टीचर हैं. वो हर रोज काम पर जाती हैं. जैसे आप और मैं अपने-अपने काम पर जाते हैं. मगर हर रोज सावित्री माई के साथ कुछ ऐसा होता था जो कि आपके या हमारे साथ हर रोज नहीं होता.
ये ‘ऊपर’ जात वाले सावित्री माई के आने-जाने वाले रास्ते में गोबर लिए खड़े रहते थे. सावित्री माई को गोबर से मारने के लिए. उनका मनोबल गिराने के लिए. उन्हें हतोत्साहित करने के लिए.
मालतीराव बताती है कि- सावित्री माई ने कभी वापिस गोबर उठाकर उनपर फेंकने में समय जाया नहीं किया. ना ही सावित्री माई ने अपना रास्ता बदला. और ना ही वो उस गोबर से कभी भागी. अपने बैग में सावित्री माई एक और साड़ी हमेशा रखती. विद्यालय पहुंच कर वो कपड़े बदलती और फिर पढ़ना-पढ़ाना.
जब काम खत्म हो जाता, वो वापिस से वही गोबर वाली साड़ी पहनती और उसी रास्ते से वापिस घर जाती जिस रास्ते से आप और हम काम खत्म कर वापिस घर को लौटते हैं. बस आपके लिए कोई प्रेमी अपने हाथों में गोबर लिए खड़ा नहीं होता.
सावित्री माई को बस पता था कि वो मूर्ख अपने हाथों में गोबर लिए उनका इंतजार कर रहे होंगें.
शायद ही कोई शब्द मेरे अहसास को बयां कर सकता है. सावित्री माई की ये कहानी सुनकर मुझे जो महसूस हुआ वो शब्दों से परे था. ये कहानी एक तमाचा थी. आप पर और मुझ पर.
मुझे कोई जवाब मिल गया था. मालतीराव की कहानियां जैसे रस्ता दिखा रही हों.
आखिर कब तक, हम और हम सब, अपने काम को बचाते रहेंगे? कभी-कभार ऐसा लगता है जैसे हमारा काम ही है अपने काम का बचाव करना. और अगर आप दलित बहुजन आवर्ण से शिक्षा में हैं तो आपका पूरा दिन बस इसी में निकल जाता है. अपने काम को बचाओ, अपनी राइटिंग को, अपने रिजर्वेशन को, अपने कोर्स को, अपने डिपार्टमेंट को, अपनी क्लासेज को, अपने आप को. मगर किस से? वो जरूरी नहीं है.
“रुकिये जरा मैं अपनी गोबर वाली साड़ी बदल लूँ.”
मुझे कभी ये ख्याल नहीं आया कि चुपचाप चलते रहना और एक साड़ी साथ रखना भी जवाब हो सकता है.
जवाब खुद से थोड़ी ज्यादा मोहब्बत में हो सकता है. कब तक गोबर वापिस उठाकर फेंकने के चक्कर मे मैं खुद को जाया करूँगी?
मालतीराव को मंच पर देखना जैसे इश्क़ को महसूस करने जैसा है. इश्क़ और मोहब्बत दो अलग चीजें है मगर जज़्बात एक ही है.
हम दलितों को अपनी जिंदगी से प्यार करना बहुत अच्छे से आता है.
अगली सुबह, हमें एक राइटिंग कार्यशाला का आयोजन कराना है. AIDMAM (आल इंडिया दलित महिला अधिकार मंच) की महिला कार्यकर्ताओं के लिए.
मालतीराव बौद्ध बताती हैं कि वो गाज़ियाबाद के अम्बेडकर कॉलोनी में दाई हैं. उन्हें कम से कम बारह बार बर्खास्त किया गया है और चार बार ये दाएं-विंग वाले गुंडों ने उनकी जान लेने की कोशिश की है.
आखिरी हमले में एक बुलेट उनके कान को छूकर निकली थी. उनके पति इस हमले में जख्मी हुए थे और उन्हें कई महीनों तक अस्पताल में रहना पड़ा.
आप चाहे कितना भी पूछ लें आखिरी तीन हमलों के बारे में मालतीराव बौद्ध बस इतना कहेंगी– “कुछ नहीं हुआ.”
सूत्रों के अनुसार पहली दो बार उन्हें मंच पर ही मारने की कोशिश की गई. तीसरी बार ये गुंडे उनके घर जा धमके. उन्हें मारने की जल्दबाजी में उन्होंने गोलाबारी मालतीराव को कार में देखते ही शुरू कर दी. उन्होंने अपनी सारी गोलियाँ देखते ही देखते खत्म कर दीं.
उनका ऐतिहासिक गोबर और गोलियाँ दोनो बेजान पड़े हैं और मालतीराव आज भी ज़िन्दा हैं.
इसी बीच कोई उनसे पूछ गया कि उन्हें इतनी बार काम से क्यूँ बर्खास्त किया गया?
वो गाज़ियाबाद के उन कायर पंडितों के बारे में बताती हैं जो उन से और उनकी हिम्मत से डरते हैं. ये पंडित उन्हें काम करने में बाधा पहुंचाते हैं.
ऐसा जब आखिरी बार हुआ था तो मालती राव ने सड़क के अंत तक जाकर उस पंडित को पकड़ा और मालती राव के शब्दों में– “पटक पटक के मारा.”
उन्होंने इस पूरे तमाशे की तस्वीरें दिखाई और सब ने पागलों जैसे तालियाँ बजायीं.
“आपको डर नहीं लगता?”
“-अरे! डर किस बात का? मरेंगे तो मंच पे मरेंगे. गाना गाते-गाते.”
मालतीराव बौद्ध का जवाब उस सवर्ण दर्शकों के लिए जो उनको सुनते हैं, देखते हैं, चेहरे बनाते है, जिन्हें लगता है कि दुनियादारी बस वो ही समझते हैं. जो प्रहार करने के लिए गोली, गोबर या गाली का इस्तेमाल नहीं करते.
वो कहती है, “मुझे ये डाउट है दिल में कि ऐसे लोग हमसे बहुत डरते हैं.”
तो हमें क्या करना चाहये? गोली, गोबर या गाली का इस्तेमाल नहीं करने वालों से कैसे निपटा जाए?
“-अरे! अपने शब्दों से मारो उनको.”
इतने सारे जवाब!!
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विजेता कुमार सेंट जोजेफ’ज़ कॉलेज, बैंगलोर में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं.
राहुल पासवान मूल रूप में अंग्रेजी की इस रचना के अनुवादक हैं. वे एक कहानीकार हैं.