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सतविंदर मदारा (Satvendar Madara)

satvendra madaraहाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों ने बहुजन राजनीति को असमंजस में डाल दिया है। एक ओर तो संविधान विरोधी RSS-BJP का सफाया होने से ST, SC, OBC और अल्पसंख्यकों ने राहत की साँस ली है, वहीं कांग्रेस की जीत ने “बहुजन समाज” के अपने राजनीतिक दलों की भूमिका पर भी कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

बाबासाहब अम्बेडकर ने 1936 में Independent Labour Party (स्वतंत्र मज़दूर पार्टी) की स्थापना कर महाराष्ट्र से राजनीति में कदम रखा था। लेकिन 6 दिसंबर, 1956 को उनके महापरिनिर्वाण के बाद, उनका अपने समाज को देश का हुक्मरान बनाने का सपना, उनके अनुयायी पूरा न कर सके। खुद बाबासाहब ने आगरा के ऐतिहासिक भाषण में इस बात पर दुःख जताया था कि मुझे ऐसा कोई भी नज़र नहीं आता, जो मेरे बाद इस कारवाँ को आगे ले जा सके। उनकी यह बात सच साबित हुई।

1960 के दशक में साहब कांशी राम पूना के DRDO में नौकरी कर रहे थे। उनके अनुसार, उन्होंने बाबासाहब की मूवमेंट(आंदोलन) को खुद अपनी आँखों से खत्म होते देखा। उन्होंने कई बार इसके बारे में बताया कि वो तो फुले-शाहू-अम्बेडकर की विचारधारा से प्रभावित होते जा रहे थे, लेकिन इसको चलाने वाले लोग एक-एक कर इसे छोड़ इधर-उधर भाग रहे थे, जिनमें ज़्यादा संख्या कांग्रेस में जाने वालों की थी। जब वो उनसे पूछते थे कि भई आप लोग बाबा के मिशन को छोड़कर क्यों जा रहे हैं ? उनका जवाब होता था कि “बाबा की विचारधारा तो चांगली(अच्छी) है, लेकिन होउ शकत नाही(हो नहीं सकता)। इस विचारधारा पर चलकर हम राजनीति में MLA-MP नहीं बन सकते। जब हम MLA-MP नहीं बनते हैं, तो हमारा समाज भी हमारी कदर नहीं करता, इसलिए हम बाबा को छोड़कर बापू के चरणों में जा रहे हैं।

साहब इस नतीजे पर पहुँचे कि अगर हमें इस विचारधारा को राजनीति में आगे बढ़ाना है, तो फिर अपने लोगों को MLA-MP बनाकर विधानसभा और लोकसभा में भेजना ही होगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर इतिहास अपने को दोहराएगा। जिस तरह से RPI को छोड़कर बाबा के लेफ्टिनेंट(अनुयायी) बापू के चरणों में गए; ठीक उसी तरह आज के हमारे नेता भी इस मूवमेंट को छोड़कर भाग खड़े होंगे। 

14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी बनाने के शुरुआती दिनों से ही उनका पूरा ज़ोर चुनावी रिजल्ट(नतीजों) पर था। उन्होंने नारा दिया कि पहला चुनाव हारने के लिए, दूसरा हराने के लिए और तीसरा जीतने के लिए लड़ा जायेगा। लेकिन वो इससे भी एक कदम आगे निकल गए। 1985 में लड़े पहले पंजाब विधान सभा चुनावों में उन्होंने कांग्रेस को हरवा डाला और 1989 को लड़े दूसरे चुनाव में उन्होंने 3 सांसद और उत्तर प्रदेश में 13 विधायक जितवा लिए।

kanshiram and mass

इसके बाद तो उन्होंने पुरे उत्तर भारत की राजनीति में तूफान ला दिया। जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़(उस वक्त मध्य प्रदेश का हिस्सा), बिहार जैसे राज्यों में फुले-शाहू-अम्बेडकर का कारवां, एक बार फिर सही पटरी पर आ अपनी मंज़िल को और तेजी से बढ़ने लगा।

1999 के लोक सभा चुनावों में वो बसपा को देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बना चुके थे। अब उनका निशाना अगले साल 2004 में होने वाले लोक सभा चुनावों में इसे पहले नंबर की पार्टी बना, बहुजन समाज को देश का हुक्मरान बनाना था। लेकिन 15 सितम्बर 2003 को ट्रेन में चंद्रपुर, महाराष्ट्र से हैदराबाद जाते वक्त सख्त बीमार पड़ गए और फिर अपने परिनिर्वाण तक राजनीति में वापसी न कर सके। 

यहीं से बहुजन राजनीति की दिशा बदली और वो लगातार ऊपर जाने की बजाय नीचे फिसलना शुरू हुई। साहब का सपना अधूरा रह गया और चुनावी असफलताओं का दौर शुरू हुआ। 2014 में 1989 के बाद पहली बार बसपा अपना एक भी सांसद लोकसभा में नहीं भेज पायी।

अभी हुए पांचों राज्यों के चुनाव में से तीन – मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान न सिर्फ उत्तर प्रदेश से सटे हुए हैं बल्कि किसी समय वहाँ बसपा का एक मज़बूत आधार होता था। मध्य प्रदेश तो किसी समय उत्तर प्रदेश के बाद बसपा का दूसरा अहम सूबा हुआ करता था, लेकिन वहाँ उसकी सीटें 4 से घटकर सिर्फ 2 रह गयी। छत्तीसगढ़ में अजित जोगी के साथ समझौता कर तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयोग भी विफल हुआ, कांग्रेस वहाँ भारी बहुमत से जीती और बसपा यहां भी सिर्फ 2 सीटें ही जीत पायी। राजस्थान में उसे 200 में से सिर्फ 6 सीटें मिली और वो सरकार बनाने में कोई भूमिका नहीं निभा पाई।

इस सबका रोष सोशल मीडिया पर दिखा और बहुत सारे बहुजन युवाओं ने इस पर अपनी प्रतिक्रियायें दी। कुछ ने इसके लिए बहनजी के नेतृत्व पर सवाल उठाया तो कुछ ने इसके लिए उत्तर प्रदेश से सभी राज्यों में भेजे जाने वाले प्रभारियों को कोसा। कुछ ने “बहुजन हिताये, बहुजन सुखाये” की जगह किये गए “सर्वजन सुखाये, सर्वजन हिताये” और “हाथी नहीं गणेश है; ब्रह्मा, विष्णु, महेश है” की विचारधारा को जिम्मेवार ठहराया तो कुछ ने और कारण बताये।

तो क्या हम साहब कांशी राम के दिखाए रास्ते से भटक गए हैं? क्या बहन मायावती के नेतृत्व में कमी है या फिर उत्तर प्रदेश से लगातार दूसरे राज्यों में भेजे जा रहे प्रभारी बाबासाहब अम्बेडकर और साहब कांशी राम के “मिशन” को “कमीशन” में बदल चुके हैं? ऐसे कई और सवाल पूरे बहुजन समाज को घेरे हुए हैं।

आज बहुजन राजनीति एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां से वो अब किस ओर जाये, इस उलझन में है। ऐसा लगता है कि बाबासाहब के वचन, “जाओं अपनी दीवारों पर लिख लो की एक दिन हम इस देश के हुक्मरान होंगे” कहीं सिर्फ दीवारों पर ही न लिखे रह जाये।

बर्तानिया के मशहूर नेता और प्रधानमंत्री रहे, सर विंस्टन चर्चिल ने कहा था कि “However beautiful the strategy, you should occasionally look at the results.”(रणनीति कितनी भी सुंदर क्यों न हो, आपको नतीजों को भी देखते रहना चाहिए)

साहब कांशी राम ने भी हमें चेताया था कि, “मैं तो असलीयत से कभी मुँह नहीं मोड़ता हूँ, अगर असलीयत से हम मुँह मोड़ ले, तो हर मोड़ पर असलीयत हमारे सामने आ जाएगी। मुँह मोड़ कर कहा जायेंगे ?” उम्मीद है पूरा बहुजन समाज अब इस असलीयत से और मुँह नहीं मोड़ेगा और एक दूसरे की टांग-खिचाई करने की जगह पूरी हिम्मत से इन सवालों का सामना करते हुए सही रास्ते ढूंढने में लग जायेगा।

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सतविंदर मदारा पेशे से एक हॉस्पिटैलिटी प्रोफेशनल हैं। वह साहेब कांशी राम के भाषणों  को ऑनलाइन एक जगह संग्रहित करने का ज़रूरी काम कर रहे हैं एवं बहुजन आंदोलन में विशेष रुचि रखते हैं।

 

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