
पायल श्रीवास्तव (Payal Srivastava)
यदि व्यक्तिगत तौर पर कभी मुझे इसका जबाब देना पड़े, तो मैं यही चाहूँगी कि मैं कायस्थ न रहूँ. मुझे भलीभांति यकीन है कि जाति सच नहीं है, जाति जैसा कुछ नहीं होता. मैं स्वयं मनुस्मृति जलाकर फेंक देना चाहती हूँ. मैं एक लड़की हूँ जो थोड़ी सी नास्तिक है और जिसने थोड़ा सा विज्ञान पढ़ा है. मेरा मानना है कि स्वयं को कायस्थ मानना मूर्खता की पहली निशानी है.
ये जो मैंने ऊपर कहा है हर एक तथाकथित जाति-विहीन व्यक्ति यही बोलता है किन्तु पंडित (ब्राह्मण) के आते ही झुक जाता है, शादी के लिये अपनी ‘जाति’ के दायरे से बाहर जाकर सोच नहीं पाता और आरक्षण को देश की सबसे बड़ी समस्या बताता है.
मैं चाहूँ या ना चाहूँ किन्तु सच यही है कि मेरा सम्बन्ध एक कथित उच्च जाति से है क्योंकि मुझे कभी अपनी जाति जाहिर करने में शर्म नहीं आती. सच तो यह है कि जाति जानने के बाद लोग मुझे पहले से अलग एक सम्मान की नजर से देखने लगते हैं. मुझे पता है कि मेरे शिक्षकों ने मेरे साथ कोई भेद-भाव नहीं किया होगा बल्कि प्रयोगात्मक परीक्षाओं में शायद एक-दो नंबर ज्यादा ही मुझे दिया होगा.
मुझे कभी किसी ‘लोअर कास्ट’ लड़के ने पसंद किया हो तो उसने कभी खुलकर बोला नहीं होगा. हिम्मत नहीं हुई होगी. मुझे याद नहीं कि मेरे साथ कभी कोई जबरदस्ती हुई हो जिसमें जाति की वजह से मेरा शोषण हुआ हो.
तो, इन वजहों से, मेरी जातिगत पहचान मेरे हक़ में जाती है, एक विशेषाधिकार के रूप में मेरे पक्ष में काम करती है और इस तरह मेरे द्वारा इस पहचान को नकारे जाने के बावजूद मैं कायस्थ हूँ. और चूँकि मैं कायस्थ होकर इस पहचान से होने वाले फायदे ले रही हूँ तो जाहिर सी बात है कि मैं किसी न किसी का हक़ भी मार रही हूँ क्योंकि जो साधन हैं जो संसाधन हैं वो तो सीमित ही हैं किन्तु अपने जातिगत विशेषाधिकार के चलते मैंने उन संसाधनों को अनुचित मात्रा में कब्ज़ा रखा है.
यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि ये संसाधन महज आर्थिक या पूंजीगत नहीं हैं बल्कि सामाजिक एवं सांस्कृतिक भी हैं. तो, यदि सीमित संसाधनों का न्यायपूर्ण वितरण नहीं हुआ और बहुत से लोगों को यदि संसाधन नहीं मिल पाए तो इसलिए कि मैंने (उच्च जातियों ने) उन संसाधनों को उनके पास नहीं पहुँचने दिया.
यहाँ एक बात मैं स्पष्ट रूप से जाहिर कर देना चाहती हूँ कि मेरे बहुत सारे मित्र हैं जो दलित या पसमांदा हैं, उनके लिए लिख कर मैं कुछ महान कार्य नहीं कर रही हूँ. मैं यहाँ पर वही कह रही हूँ जो किसी भी न्यायप्रिय व्यक्ति को कहना चाहिए. मेरे कई मित्र सवाल करते हैं कि एक ‘उच्च जाति’ की लड़की उनके (दलित-पसमांदा) द्वारा उत्पादित ज्ञान को आधार बनाकर क्यों लेखन करती है (हड़पना, एप्रोप्रियेशन) और इस प्रयास को पसंद नहीं करते तो वे सही होते हैं. यह बात समझने के लिए बहुत उदार होने की जरूरत नहीं है, यह बहुत तार्किक बात है.
कक्षा का मॉनिटर जब पीछे बैठे बच्चों की मदद करता है तो वाहवाही मॉनिटर की होती है और उसे अगली कक्षा में भी मॉनिटर बना दिया जाता है जबकि होना तो ये चाहिए था कि अन्य बच्चों को भी समान मानते हुए उन्हें भी मॉनिटर बनने का अवसर दिया जाता. ये सोच लेना कि हम ही लीडर हैं, हम ही मसीहा हैं, यह हमारी सबसे बड़ी भूल है.
इस सबके बावजूद, बहुजन पसमांदा आन्दोलन मेरा भी है, इसमें मेरी भी भूमिका है. यह बात मुझे मेरे टीचर ने समझाई थी कि मुझे जाति व्यवस्था के खिलाफ़ लिखना चाहिए. सरल सी बात है कि यदि मुझे समानता चाहिए तो मुझे अपने विशेषाधिकारों को छोड़ना पड़ेगा. जाति को समाप्त करने की दिशा में ईमानदारी से मैं तभी सोच पाऊँगी जब जाति मेरे (विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के) लिए एक बोझ बन जाए, परेशानी का सबब बन जाए, जब इससे फायदे की जगह नुक्सान होने लगे. विशेषाधिकारों को छोड़े बिना खुद को जातिविहीन घोषित कर लेना जाति व्यवस्था को मौन स्वीकृति देने जैसा है.
हालाँकि जाति व्यवस्था के खिलाफ लिखने का आशय यह भी नहीं है कि अब अपनी पहचान और अवसर अन्यत्र खोजे जाएँ. बशर्ते हम समझें, अपनी इसी पहचान के बावजूद, जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए हमारे पास पर्याप्त अवसर हैं, इसके लिए हमें अपनी लोकेशन बदलने की जरूरत नहीं है. यह सच है कि यह अपेक्षाकृत मुश्किल काम है. इसलिए सवर्णों की भूमिका अपने जातिगत विशेषाधिकारों के प्रति सजग रहकर सार्थक रूप से जाति व्यवस्था के खिलाफ़ होने में है न कि खुद को किसी अन्य पहचान अथवा विचार से जोड़कर या फिर उसे हथिया लेने में.
मैं जानती हूँ कि बहुत से लोग मेरे इस दृष्टिकोण को नहीं समझ पायेंगे किन्तु मैं चाहती हूँ कि कुछ बातें स्पष्ट रहनी चाहिए. वो हर लड़ाई जो बराबरी के हक़ के लिए है, वो मेरी भी है. कोई मुझे उस पर लिखने से रोक नहीं सकता.
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पायल श्रीवास्तव जाति के डिस्कोर्स में रुचि रखती हैं और उसे अपनी पृष्ठभूमि से पटल पर रखने वाली युवा लेखिका हैं.