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लेनिन मौदूदी (Lenin Maududi)

उपन्यास का नाम : कुठाँव
लेखक  : अब्दुल बिस्मिल्लाह 
प्रकाशन : राजकमल, 2019
मूल्य :  199 रू

इद्दन जब पहली बार लोहे के तसले को अपनी बगल में दबाकर ‘कमाने’ निकली तो मोहम्मद अफ़ज़ल खां के घर के भीतर बनी खुड्डी में जाकर वह क्या देखती है कि वहां पीले-पीले गू के दलदल में कुछ कीड़े कुलबुला रहे हैं. नमरूदी कीड़े !…… असलम को एक चीख सुनाई पड़ी : ‘उई अल्लाह! सांप! असलम ने पूछा कहाँ है सांप ?  इद्दन ने खुड्डी की ओर इशारा करते हुए कहा “हुआ ! खुड्डी में ! एक नहीं, दुइ दुइ साँप. साँप भी नहीं, संपोले . साँप के बच्चे. रंग एक दम सुपेद… असलम खुड्डी में गया वहां भयंकर बदबू थी. उसने अपनी लुंगी उठा कर उसके एक कोने से नाक को  दबाया  फिर वह डरता हुआ-सा गौर से देखने लगा. खुड्डी में कोई खिड़की नहीं थी, मगर खपरेल के टूटे हुए हिस्से से सूरज की रौशनी अंदर आ रही थी. उसी रौशनी में असलम ने देखा कि खुड्डी में रखी दो ईटों के बीच में ढेर सारा पख़ाना पड़ा हुआ था और सफ़ेद रंग के दो लम्बे-लम्बे कीड़े उसमे कुलबुला रहे थे. 

क्या ये पढ़ते हुए आप को घिन आ रही है ? तो सोचिये जो ये काम करते थे उनकी मानसिक स्थिति क्या रही होगी? कैसे एक पूरी जाति को जन्म के आधार पर इस गलीज़ काम में लगा रखा है. ‘कुठाँव’ उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि ये आप को सोचने पर मजबूर कर देती है कि एक अमानवीय स्थिति में कैसे एक जाति जीवित रही है? ये उपन्यास विशेषत: हेला (हलालखोर) समाज की औरतों की दशा को बयान करता है जो दलितों में भी दलित हैं. आम घरों के पाखाने इन्हे ही साफ़ करने होते थे क्योंकि आमतौर से खुड्डी ज़नानांखाना में होती थी जहाँ बाहरी मर्दों का जाना वर्जित था. इसीलिए इनकी  सफाई की ज़िम्मेदारी हेला औरतों पर थी. इस जाति का वस्तुकरण इस हद तक कर दिया गया था कि इस जाति के लोगों का अच्छा नामकरण करने की भी ज़रूरत महसूस नहीं होती थी. ईद के दिन पैदा होने के कारण नाम “इद्दन” पड़ गया. शबेबरात में जो पैदा हुआ उसका नाम ‘सुबराती’ हो गया. ‘कुठाँव’ ‘कौम’ के बनाए उस मिथ को भी तोड़ती है जहाँ सब बराबर हैं, सब अच्छा है, कोई भेदभाव नहीं है इस्लामी मसावात के इस झुनझुने की हकीकत बयान करती है ये किताब कि कैसे  ‘दलितों को इस्लाम के मसावात का झुनझुना थमाया गया है ‘? जिससे खेलते हुए वह कौम के ढांचे में बने रहें और अपनी यथास्थिति के विरुद्ध विद्रोह न कर सकें. ‘कौम’ के नाम पर सिर्फ अशराफों की बात की जाती है. ये काम सिर्फ हमारे धार्मिक-राजनैतिक रहनुमाओं ने ही नहीं किया बल्कि इसमें शायरों और लेखकों का भी बहुत बड़ा हाथ है. पूरे हिंदी और उर्दू साहित्य में पसमांदा समाज हाशिए पर भी नज़र नहीं आएगा. आप उर्दू के 15-20 बड़े शायरों में से किसी की भी एक ग़ज़ल नहीं सुना सकते जिसका केंद्रीय विषय पसमांदा जातिया हों, या पसमांदा समाज के हालात हों. ‘कौम’ के नाम पर जो कहानियां और ग़ज़लें आजतक लिखी गईं वह दरसल अशराफ जातियों की कहानिया और गज़ले हैं. अजमल कमाल साहब कहते हैं कि अशराफ़ शायरों और लेखकों के ज़ेहन में ‘कौम’ का मतलब सिर्फ अशराफ़ जातियों से ही था, पसमांदा समाज को वे ‘कौम’ का हिस्सा नहीं मानते थे. आज भी देहातों में जा के अगर आप पूछेंगे कि मियाँ (मुसलमान) का घर कौन सा है तो वह कुछ अशराफ़ जातियों का घर दिखा देंगे, ऐसा न सिर्फ हिन्दू करेंगे बल्कि मुस्लिम पसमांदा जातियाँ भी करती हैं. इससे ये समझ में आता है कि कुछ खास शब्दों का प्रयोग कुछ ख़ास जातियों के लिए होता था. ‘कुठाँव’ पढ़ते हुए आप को इस बात का एहसास हो जाएगा. यही वजह है कि ‘कुठाँव’ उपन्यास एक दस्तावेज़ के रूप में ज़रूरी और सार्थक कदम है.  

‘कुठाँव’ की मूल कहानी पर आने से पहले आप ये समझ लें कि ‘कुठाँव’ जिस्म के उस हिस्से को कहते हैं जहाँ चोट लगने से सबसे ज़्यादा तकलीफ होती है. ऐसी तकलीफ हमारे मुस्लिम समाज को तब होती है जब आप  ‘मुस्लिम समाज’ में मौजूद जाति व्यवस्था’ पर बात करते हैं. ‘कुठाँव’ न सिर्फ ये बताती है कि मुस्लिम समाज भी हिन्दू समाज की तरह सैकड़ों जातियों में बंटा हुआ है बल्कि ये भी बताती है कि हिन्दू समाज की तरह मुस्लिम समाज में भी छुआछूत मौजूद है. यहाँ मस्जिदों के आगे की सफें भी अशराफ जातियों के लिए आरक्षित है. यहाँ भी हलालखोर का छुआ पानी नहीं पिया जाता. जहाँ एक तरफ ये रंडियों के इस्लाम धर्म में धर्मांतरण की बात करती है वही दूसरी ओर ‘हिजड़ों’ की जाति खोजने का भी काम करती है.

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यहाँ इस बात को भी समझना ज़रूरी है कि मुस्लिम समाज में ज़ात-पात की बिमारी दरअसल मुस्लिम अशराफ तबकों की देन है जैसाकि एड0 नुरुल ऐन ज़िया मोमिन लिखते हैं, “यह तो बहुत हद तक सत्य है कि सवर्ण (ऊंची ज़ात के हिन्दू) जो इस्लाम में दाखिल हुए उनमें से अधिकांश का मुख्य उद्देश्य मात्र अपनी (राजनैतिक व धार्मिक) शासन सत्ता बनाये रखना था. चूंकि उनको अपनी शासन सत्ता भर से मतलब था इसलिए उनको न तो इस्लाम से कोई मतलब था न इस्लाम में मौजूद मसावात के सिद्धांत से. उनका उद्देश्य मात्र शासन सत्ता में बने रहना था. इसका सबूत यह भी है कि इसमें से बहुतों ने अपनी जातिसूचक शब्दों (किचलू, बट्ट, चौधरी, राजपूत आदि) को अपने नाम के आगे बचाये रखा या फिर अशराफ वर्ग की जाति सूचक शब्दों (खान, सैयद, सिद्दीकी, शेख आदि) को अपना लिया. सवर्ण हिन्दुओं की ही भांति लगभग-लगभग तमाम अशराफ मुस्लिम शासकों को भी इस्लामी सिद्धांत अथवा न्याय से नहीं बल्कि अपनी शासन सत्ता भर से मतलब था. इसलिए तमाम मुस्लिम शासकों ने बहुजनों (शूद्रों, अछूतों) पर धर्म के नाम पर हो रहे अत्याचार को न तो रोकने का कोई प्रयास किया, न भारतीय सामाजिक संरचना आदि को सुधारने का और न ही उनकी दशा बदलने हेतु कभी कोई कदम उठाया, उनके साथ न्याय करने की बात तो दूर है ….जबकि शूद्र-अछूत समाज मात्र मसावात/ समानता व मानवीय अधिकारों को पाने के उद्देश्य से इस्लाम में दाखिल हुआ था. अब आप खुद सोचें, इन्सान जिस हालात (परंपरा/ नियम) से बचने के लिए धर्म या जगह बदलेगा वह उन परंपराओं, नियमों को क्यों मानेगा? या वही परम्परा और नियम खुद अपने साथ ले कर नयी जगह या नए धर्म में क्यों जाएगा? क्या ये बात किसी भी तरह काबिले-कुबूल है कि शूद्र-अछूत आगे भी शूद्र-अछूत बने रहना चाहते थे इसलिए हिन्दू धर्म की उन परम्पराओं के साथ इस्लाम में दाखिल हुए?”

अब ‘कुठाँव’ की कहानी पर आते हैं. ये कहानी मिर्ज़ापुर के एक गांव गोपालगंज की एक हलालखोर लड़की और एक खां साहब के लड़के के बीच पनपते सम्बन्ध की है. एक संपन्न और दबंग परिवार का लड़का नईम खान नया-नया जवान हुआ है. उसने एक मेले में 13-14 साल की हलालखोर जाति की लड़की सितारा के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना लिया है. अब वह सितारा के घर के आगे पीछे इसलिए चक्कर लगा रहा है ताकि अपनी जिस्म की भूख और शांत कर सके. ये बात सितारा की माँ इद्दन समझ रही है पर वह अपनी हलालखोर जाति से इतनी शर्मिंदा है कि वह चाहती है कि उसकी बेटी की शादी तथाकथित ऊंची जाति में हो जाए. इसके लिए वह अपनी बेटी की इज़्ज़त को भी दाव पर रख देती है. क्या सितारा की शादी ऊँची जाति में हो पाती है ये आप किताब पढ़के खुद जान लीजिएगा. ‘कुठाँव’ पढ़ते हुए ऐसा आभास होता है कि कहानी एक हलालखोर लड़की ‘सितारा’ और उसकी माँ की नज़र से सुनाई जा रही है पर गहराई से देखने पर पता चलेगा कि ये पूरी कहानी अशराफों की नज़र से सुनाई जा रही है.

कहानी का मुख्य किरदार नईम मियाँ मानने से इंकार करते रहते हैं कि मुस्लिम समाज में जाति व्यवस्था मौजूद है और पूरा उपन्यास एक अशराफ को मुस्लिम समाज में मौजूद जाति व्यवस्था के बारे में समझाने में लगा हुआ है. चलो, अगर अम्बानी ये मान ले कि उसके कर्मचारी का वेतन उसके वेतन से लाख गुना कम है तो इससे कर्मचारी पर क्या फर्क पड़ेगा? लेकिन अगर कर्मचारी इकठ्ठा हो कर अम्बानी के खिलाफ मोर्चा खोल दें तो शायद उनके हित में कुछ भला हो जाए. वैसे ही अगर अशराफ अपने मुंह से ये बोल दे कि मुस्लिम समाज में जाति प्रथा मौजूद है तो इससे क्या फर्क पड़ेगा? क्या ब्राह्मणों के मान लेने मात्र से कि हिन्दू धर्म में जातिय भेदभाव और छुआछूत मौजूद है इससे दलितों की स्थिति बदल गई? बाबा साहब अम्बेडकर कहते हैं कि “स्वतंत्रता किसी को उपहार में नहीं मिलती, उसके लिए संघर्ष करना होता है. आत्म-उत्थान अन्य लोगों की कृपा से नहीं अपने ही प्रयत्नों, संघर्षो और मेहनत से होता है.“  क्या कभी दो विरोधी वर्गों के हित सामान हुए हैं जो अब होंगे? क्या यही वजह नहीं  है जो कार्ल मार्क्स ने ‘दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ’ का नारा दिया कि ‘दुनिया के इंसानो एक हो जाओ’ का. नईम मियाँ को जाति व्यवस्था समझने के लिए पसमांदा कार्यकर्ता टाइप के लोग बार-बार उनके दरवाज़े पर जाते हैं और नईम मियां बार-बार उन्हें ज़लील कर के भगा देते हैं . ये पसमांदा कार्यकर्ता टाइप के लोग पसमांदा समाज को जाग्रत क्यों नहीं कर रहे? बार-बार ये खान साहब के शहज़ादे का तलवा क्यों चाट रहे हैं? क्यों नहीं ये कार्यकर्ता सितारा की माँ को समझा रहे हैं कि अम्मा तुम्हारा जन्म मेहनतकश जाति में हुआ है इसीलिए तुम्हरी जाति का नाम हलालखोर है. जो जातियां खुद मेहनत नहीं करती जो दूसरों की मेहनत पर जीती  हैं, वे जातियां हरामखोर होती हैं. तुम्हारा जन्म हरामखोर जाति में नहीं हुआ है तो तुम क्यों अपनी जाति पर शर्मिंदा हो?

एक जगह ‘हेला’ (हलालखोर) जाति की औरतों की तुलना रंडियों से की गई है. क्या वाकई ये तुलना की जा सकती है? हाँ, लेखक के अनुसार की जा सकती है क्योंकि हलालखोर जाति की लड़कियों की छाती जब खान साहब दबाते हैं तो उनको बड़ा मज़ा आता है. जैसे कहानी मे एक प्रसंग है कि पसियाने की एक लड़की की चहचहाहट का राज़ इद्दन पूछती है तो वह लड़की बताती है कि ‘आज मै खान साहब के दरवाज़े से गुज़री तो असलम भाई ने मुझे आवाज़ दे कर अंदर बुलाया फिर उन्होंने मेरे सीने पर हाथ रखा और बोले, बुरा न मानो होली है’. क्या वाकई पसमांदा औरतों  का आत्मसम्मान इतना गौण है?  फिर एक जगह दलित मुस्लिम लड़की ‘हुमा’ का वर्णन कुछ इस तरह किया गया है :- जिसका चेहरा चौड़ा था. आँखें फैली-फैली सी थी. होंठ बर्फी के तराशे हुए टुकड़ों की तरह. छातियों पर अमरुद जैसी कुछ आकृतियां उभरी हुई थी. नाक ऐसी जैसे किसी कीड़े ने काट लिया हो मतलब कि ऐसी शक्ल सूरत की लड़कियां बदसूरत होती हैं. ये सोच पुरे तरीके से रंग भेदी है जहाँ गोरी नस्ल की जिस्मानी खासियतों को सुंदरता का मापदंड माना जाता है. हमारी सुंदरता की समझ अशरफिया ही क्यों है? खां साहब के घर की लड़की ‘ज़ुबैदा’ तथकथित खूबसूरत लड़की है. अरे सितारा भी तो खूबसूरत ही है पर वह तो हलालखोर यानि हेला है. खा गए न धोखा दलित लड़की खूबसूरत कैसे हो सकती है? क्या सितारा का बाप एक अशराफ था…?

उपन्यास मे दलित मुसलमानों की मुक्ति का एक मात्र रास्ता ‘दलित आरक्षण’ को ही दिखाया जाता है. ये सच है कि जब भी दलित आरक्षण का मुद्दा उठता है तो अशराफ रहनुमा और बुद्धिजीवी उसे ‘मुस्लिम आरक्षण’ से बदल देते हैं. इस हिसाब से ये मुद्दा उठाना एक सार्थक कदम है. पर ये भी सच है कि जैसे-जैसे पसमांदा आंदोलन मज़बूत होता जा रहा है, हमारी अशराफिया ‘मुस्लिम दलित’ के आरक्षण पर मुखर होती जा रही हैं क्योंकि ‘कौम’ के मिथ को बनाए रखने के लिए उन्हें ये दिखाना होगा कि वह दलित मुसलमानों के सबसे बड़े रहनुमा हैं. ऐसा वह बड़ी चालाकी से करते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि अनुच्छेद 341 का मुद्दा धर्मपरिवर्तन से जुड़ा है. मुस्लिम दलितों को आसानी से ये अशराफ रहनुमा हिन्दू दलितों के खिलाफ खड़ा कर सकते हैं और पसमांदा-बहुजन समीकरण को बनने से पहले ही तोड़ सकते हैं. ऐसा करते हुए वह दुबारा पसमांदा समाज को अपनी हिन्दू-मुस्लिम राजनीति में फंसा देंगे. जैसे दलित आरक्षण दलित आंदोलन का सिर्फ एक पड़ाव था. उसी तरह अनुच्छेद 341-3 को हटा कर दलित मुसलमानों को आरक्षण दिलाना ही पसमांदा आंदोलन का एक मात्र लक्ष्य नहीं है.

इस आंदोलन का एक व्यापक परिप्रेक्ष्य है जो धर्म, साहित्य, समाज की नई व्याख्या प्रस्तुत करेगा जैसे दलित आंदोलन ने पेश की है और कर रही है. पसमांदा कार्यकर्ता टाइप के लोग एक शोधछात्र के पास जाते हैं. वह शोधछात्र भी उनको दुत्कार कर भगा देता है ये कहते हुए कि “तुम लोग ऐसी स्थिति में भी नहीं हो कि चुनाव जीत कर किसी प्रान्त में राज कर सको”. इस बात पर हमारे गंवार पसमांदा कार्यकर्ता टाइप के लोग कुछ बोल नहीं पाते. वह यह भी नहीं बोल पाते कि मुस्लिम समाज में 85% आबादी पसमांदा मुसलमानों की है. मतलब 12 करोड़ से ज़्यादा पसमांदा इस लोकतंत्र में मौजूद हैं जो यादव और कुर्मी की संख्या से कहीं ज़्यादा हैं जिनकी राज्यों में सरकार है. राजनीतिक चेतना न होने कि वजह से पसमांदा समाज आज तक सिर्फ अशराफों का ‘वोट बैंक’ बनता आया है. हमारा मानना ये है कि जब तक “फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम” मौजूद है संख्या बल में छोटी जातियों को लोकतंत्र में न्याय नहीं मिल पाएगा. ऐसी सैकड़ों जातियों को न्याय दिलाने के लिए चुनाव में सुधार कर के “आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली” लाने की आवश्यकता है. इस शोधछात्र की बात से हमें ये भी समझ में आता है कि मुम्किन है पसमांदा-दलित किसी के लिए रिसर्च का एक टॉपिक मात्र हो या किसी के लिए कहानी-उपन्यास लिखने का मसालेदार थीम, जिस पर काम करके वह अकादमिक जगत में अपना नाम बना सकता है. इसके अतिरिक्त पसमांदा-दलित समाज उनके लिए मायने नहीं रखता. बाबा साहब अम्बेडकर के दलित लेखन और M.S श्रीनिवास के लेखन में यही फर्क है. मुम्किन है कि इनके रिसर्च से आने वाले वक़्त में पसमांदा-दलित समाज को लाभ मिले जैसे अंग्रेज़ों द्वारा किए गए रिसर्च से आज भारतीयों को लाभ मिल रहा है. क्या खूब लिखा है याकूब कवि ने-

आपको यकीन तो न आए शायद
लेकिन हमारी समस्याओं का सिरे से कहीं ज़िक्र ही नहीं
अभी भी, एक बार फिर से, उनकी दसवीं या ग्यारहवीं पीढ़ी
जिन्होंने खोई थी अपनी शानो-शौकत
बात कर रही है हम सब के नाम पर
क्या इसी को कहते हैं अनुभव की लूट?

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लेनिन मौदूदी लेखक हैं एवं  DEMOcracy विडियो चैनल के संचालक हैं, लेखक हैं और अपने पसमांदा नज़रिये से समाज को देखते-समझते-परखते हैं.

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