ravi singh khalsa
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रवि सिंह खालसा (Ravi Singh Khalsa)

ravi singh khalsaदोस्तों, क्षमाप्रार्थी हूँ… आज कोई जज्बाती कहानी नहीं बल्कि जज्बातों के समुन्दर से एक ऐसा कतरा  साँझा करने जा रहा हूँ जिसने ऐशप्रस्ती का जीवन जी रही मेरी मानसिकता को ऐसा झकझोरा कि आज वही मानसिकता सरबत (समस्त मानवता) के भले की गठरी उठाये बिपदा के मारे हर इंसान के आँगन में रब का रूप बनकर पहुँच रही है.

बात 1988-89 की है.. मेरी ज़िन्दगी इंग्लैंड जैसे खुशहाल मुल्क में आराम से गुज़र रही थी.. चढ़ती जवानी में लड़कों जैसे सभी शौक पूरे जोबन पर थे.. शीशे के सामने अक्सर ही घंटों खड़ा खुद को निहारता रहता था.

एक दिन अचानक नज़र पास ही पड़े पंजाबी अख़बार पर छपी हुई सिख नौजवान की ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों पर पड़ गई. सामने एक जानी पहचानी सी तस्वीर थी.

होशियारपुर जिले के मुण्डियाँ जट्टां (गाँव का नाम) गाँव के चरणजीत सिंह चन्नी… छोटी उम्र के दिनों का पक्का यार. 

गौर से पूरा वर्णन पढ़ा तो पैरों तले से ज़मीन खिसक गई… यह सभी पंजाब में अलग अलग जगहों पर झूठे (पुलिस) मुकाबले बना कर मार दिए गए थे.

उसी समय पंजाब में बैठी माँ को फोन लगाया… पूछा, चन्नी को क्या हो गया?

कहने लगी, कुछ नहीं बेटा, तू अपनी ज़िन्दगी जीता रह.. तुझे इन सब बातों से क्या?

पता नहीं माँ मेरा बचाव कर रही थी या मेरी ज़मीर को झंकझोर रही थी?

मेरी आंतड़ियों को सेक लग चुका था.. दोस्तों यारों को फोन करके असली कहानी के बारे में पूछा… वे कहने लगे कि- कौम के आत्मसम्मान की खातिर भारी यातनाओं को सहता हुआ चन्नी जान कुर्बान कर गया.

और खोज की तो कलेजा मुंह को आ गया… होशियारपुर जिले के पांच थानों में पुलिस ने बारी बारी भयानक यातनाएं दी थीं चन्नी को… नींबू की तरह निचोड़ फेंका था… हड्डियाँ तोड़ दीं थीं.. आखिरी थाना जहाँ उसकी जान निकली… उसी अजीत सिंह सिद्धू के कंट्रोल वाला थाना था जो शराब के घूँट अंदर डकारते हुए दबोचे हुए की मौत के परवाने पर दस्तखत कर दिया करता था.

वही संधू जिसने तरनतारन (पंजाब का एक जिला) कार-सेवा वाले बुज़ुर्ग बाबा चरण सिंह को दो अलग अलग जीपों के साथ बांधकर उनके शरीर को बीच से चिरवा दिया था.

खुद इसी संधू ने चन्नी को यातनाएं दीं थीं और जब उसका शरीर पूरी तरह नकारा हो गया तब एक रात ब्यास दरिया के किनारे खड़ा करके गोली मार दी और उसकी छाती पर ए.के.47 रखकर अगले दिन अखबार में खबर लगवा दी कि एक कट्टर आतंकवादी मुकाबले में मार दिया गया. 

यह वृतांत सुनकर वजूद धुआं धुआं हो गया.. रूह बेचैन हो उठी… ज़मीर ने मानसिकता को झंकझोर दिया… कहने लगी, बेगैरत! पंजाब में क्या क्या हो रहा है और तुझे सजने-फबने से ही फुर्सत नहीं..

फिर गहरे से पड़ताल की.. जून 84 और उसके बाद, असलियत में क्या घटा था और उसके बाद नवम्बर 84 में कौम का, एक संगठित तरीके से, किस तरह से कत्लेआम हुआ… किस तरह से महिलाएं बेआबरू हुईं… और किस तरह इस सब कुछ के दोषी सरकारी महमान बनकर सत्ता का सुख भोगते रहे.

मेरा स्वरूप बदल गया.. सोच भी पलट गई.. भीतर एक नया संकल्प जन्म ले चुका था.. सच को सच कहने वाला.. भूखों का पेट भरने वाला संकल्प… सिखी और सिखी सिद्धांतों को दुनिया के कोने कोने में पहुँचाने वाला संकल्प.. सरबत के भले वाला संकल्प.. उस दिन के बाद- चल सो चल… गुरु की मेहर होने लगी और फिर कभी मुड़कर नहीं देखा… कारवां चलता गया, लोग मिलते गए.

आज इतने वर्षों बाद किसी ने बताया कि मुझे ‘इंडियन ऑफ़ द इयर’ वाले अवार्ड से सम्मानित किया जा रहा है…

झूठे मुकाबले में मारा गया मेरा यार चन्नी आँखों के आगे आ गया.. नवम्बर 84 में हुए कत्लेआम के दोषी सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर और कमल नाथ, जैसे हँसते हुए, मेरा मज़ाक उड़ाते नज़र आये… उसी समय ट्वीट किया कि मैं तो इंडियन हूँ ही नहीं.. पंजाबी ही मेरी पहचान है.

हाँ, अपने नाम के पीछे से खालसा हटाकर ख़ुशी ख़ुशी इंडियन लिखवा लूँगा अगर मेरी तीन मांगें पूरी कर दो तो..

नंबर एक- सन 1982 से लेकर अब तक मुकाबलों में मारे गए सभी सिख नौजवानों के केसों की जुडिशियल जांच हो और दोषियों को बनती सजाएँ दी जाएँ.

नंबर दो- जून 84 के विध्वंस के दोषी और नवम्बर 84 की नस्लकुशी के सभी जिंदा बच गए दोषी फांसी पर टाँगे जाएँ.

नंबर तीन- सिखी और सिखों को एक ज़िम्मेदार मंच से एक अलग कौम और रेस (Race) माना जाये.

आखिरी बात 

बहुत लोगों को भ्रम है कि जिस दिन दुनिया के किसी इलाके में मानवता की सेवा करते रवि सिंह के चीथड़े उड़ गए तो ‘खालसा ऐड’ नामक संस्था भी अपने आप ख़त्म हो जाएगी.. लेकिन बताना चाहता हूँ कि बहुत सारे और रवि सिंह मैं पहले ही तैयार कर चुका हूँ… मेरा पता नहीं लेकिन खालसा ऐड कभी नहीं मर सकती.

~

नोट: रवि सिंह खालसा द्वारा उपरोक्त विचार मई 29, 2018 को विनिपेग (कनाडा) में प्रकट किये गए. यह उनका हिंदी अनुवाद है.

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रवि सिंह खालसा ‘खालसा ऐड’ संस्था के संस्थापक हैं.

साभार : हरप्रीत सिंह जवंदा
अनुवाद: गुरिंदर आज़ाद

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