हवलदार भारती (Hawaldar Bharti)
बलात्कार क्या है? और यह क्यों घटित होता है? बलात्कार या यौन हिंसा के सामाजिक और सांस्कृतिक मायने क्या हैं? इस लेख का मुख्य उद्देश्य बलात्कार की घटनाओं की सामाजिक और सांस्कृतिक आयामों की तफ्तीश करना है. जैसा कि सर्वविदित है कि, बलात्कार भी एक हिंसा है. अर्थात ब्लात्कार हिंसा का अभिन्न अंग है. हालाँकि हिंसा के बहुत सारे आयाम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की परिभाषा के अनुसार, हिंसा “स्वयं के विरुद्ध, किसी अन्य व्यक्ति या किसी समूह या समुदाय के विरुद्ध शारीरिक बल या शक्ति का साभिप्राय उपयोग है, चाहे धमकी स्वरूप या वास्तविक, जिसका परिणाम या उच्च संभावना है कि जिसका परिणाम चोट, मृत्यु, मनोवैज्ञानिक नुकसान, दुर्बलता, या कुविकास के रूप में होता हैं”. इस परिभाषा में क्रिया को ही करने की साभिप्रायता शामिल है, चाहे उससे कुछ भी परिणाम उत्पन्न हो। हालांकि, आम तौर पर, जो कुछ भी हानिकारक या क्षतिकारक तरीके से उत्तेजित किया जाता है, वह हिंसा के रूप में वर्णित किया जा सकता है, भले ही वह हिंसा के मतलब से नहीं हो।
बलात्कार का मूल यौन शोषण है. यौन शोषण का इतिहास बहुत लम्बा और पुराना है. इतिहास में स्त्री शोषण के साथ साथ पुरुष और दूसरे लिंग जैसे LGBTQ यौन शोषण की घटनाएं सामने आती रही हैं. यौन शोषण या यौन हिंसा प्रत्येक देश, काल और समाज में विद्द्मान रही हैं. हालाँकि, स्त्री यौन हिंसा के खिलाफ समय समय पर समाज सुधारकों ने इसमें सुधार करने की कोशिश की पर कुछ व्यापक बदलाव नहीं आया.
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि, हमारा समाज ऐसी व्यवस्था में बदलाव के लिए कभी कभी और कुछ चयनित घटनाओं या मुद्दों पर ही निकल कर आता है. आखिर क्या कारण है जो लोग और हमारा समाज प्रत्येक दिन व प्रत्येक जाति, धर्म, व् समाज की महिलाओं के साथ हो रहे यौन शोषण पर एक समान मापदंड नहीं अपनाते हैं? लोग क्यों किसी खास जाति, समाज व् धर्म की महिलाओं के शोषण या यौन हिंसा पर आंदोलन खड़ा कर देते है जबकि किसी खास जाति, धर्म या समाज की महिला के शोषण या यौन हिंसा पर चुप्पी साध लेते हैं? दूसरी महत्वपूर्ण प्रवृति यह है कि, कुछ खास किस्म के शोषण जैसे बलात्कार के समय ही निकल कर बाहर आते हैं और दूसरे किस्म के स्त्री शोषण या अधिकारों की लड़ाई से मुँह मोड़ लेते है.
इस लेख का मुख्य उदेश्य दो सवालों के जवाब का तफ्तीश करना है. पहला सवाल यह कि, आखिर क्यों हमारा समाज कुछ खास जातियों जैसे तथाकथित उच्च जातियों के साथ यौन हिंसा और उनके अधिकारों की रक्षा के समय ही बाहर निकल कर आता है और आंदोलित होता है? लेकिन तथाकथित निम्न कहीं जाने वाली जातियों की महिलाओं के साथ हुए यौन हिंसा या उनके अधिकारों की लड़ाई के समय अपने कान में तेल डाल लेता है?
दूसरा जो महत्वपूर्ण सवाल है वह यह है कि, हमारा समाज महिलाओं के साथ हो रहे प्रतिदिन के यौन हिंसा या समानता और हक़ की लड़ाई की तुलना में कभी कभी हुए बलात्कार जैसी घटनाओं पर ही क्यों ज्यादा मुखर होकर आंदोलित होता है? इन सभी सवालों के जवाब महिला शोषण के सामाजिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष में ढूँढा जा सकता है. यह सर्वविदित है कि, दुनिया में यौन शोषण व् स्त्री यौन शोषण की संस्कृति व् समाज रहा है. इस प्रकार की संस्कृति और समाज अपने अस्तित्व के लिए समय समय पर नए नए हथकंडे अपनाया है.
यह तो बड़ी सामान्य बात है कि कोई भी संस्कृति और समाज के कुछ निर्धारित आदर्श होते हैं. जिसका अनुसरण करना या पालन करना प्रत्येक समाज और संस्कृति के लोगों की जिम्मेदारी होती है. भारत के सन्दर्भ में अगर बात की जाये तो, भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के माध्यम से स्त्री यौन को पवित्रता से जोड़ा गया है. कौमार्य को पालन करने में ही पवित्रता आधारित है. दूसरे शब्दों में कहें तो, एक स्त्री की पवित्रता, सम्मान, अस्मिता, सामाजिक और पारिवारिक प्रतिष्ठा की पहचान उसके कौमार्य यौन से है.
इस लेख के पहले सवाल की बात करें तो वह यही कि, यौन शोषण को विशेष शोषण क्यों समझा जाता है? ये कहना गलत नहीं है कि, बलात्कार को विशेष प्रकार का हिंसा का दर्ज़ा देकर हम बलात्कार को वैद्य बनाते है. क्योंकि स्त्रियों के दूसरे प्रकार के शोषण समय परिवार से लेकर समाज के लोग जिस प्रकार सहयोग करते नजर आते हैं. वैसा ही सहयोग उसके साथ हुए यौन हिंसा के समय नहीं मिलता. यही कारण है जो स्त्री अपने जान पर खेलकर अपने उस पवित्रता की सुरक्षा करने की कोशिश करती है. और सक्षिप्त में कहा जाए तो अगर किसी स्त्री के साथ जब कभी बलात्कार होता है तो उसकी यौन का बलात्कार तो एक बार होता है, पर उस एक घटना के कारण हमारा समाज हर रोज हर पल उस स्त्री का मानसिक बलात्कार करते हैं. परिणामस्वरूप वह अपने साथ हुई उस घटना को स्त्री किसी के सामने बताने से डरती है. क्योंकि उसको डर लगने लगता है कि इस एक घटना के कारण ये समाज मेरे साथ हर रोज मानसिक बलात्कार करेगा. हम लोगों का बलात्कार की घटना पर ही ज्यादा उत्तेजित होना उसकी यौन की पवित्र होने वाले विचार को पोषित करते हैं. हमारा यही तेवर और उत्तेजना स्त्री के साथ हो रहे दूसरे प्रकार के शोषण और असमानता के खिलाफ क्यों निकलकर नहीं आता?
जैसे राजनीतिक संस्थानों में उनकी भागीदारी नगण्य है, शिक्षा में उनकी भागदारी भी ना के ही बराबर है, वह हर रोज घरेलू हिंसा का शिकार होती है. स्त्री किसी खास जाति, वर्ग, धर्म, समुदाय और क्षेत्र के होने के कारण तमाम शोषण झेलती है. बलात्कार के साथ साथ स्त्री अपने जीवन में पारिवारिक जीवन से लेकर सामाजिक जीवन हर मोड़ पर अनेक प्रकार के शोषण पितृसत्ता के कारण झेलती है.
दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि, हमारा खून सभी महिलाओं कि साथ हुए यौन शोषण के समय क्यों नहीं खौलता है? स्त्री की इस समाज में कोई एक पहचान नहीं है. वह विभिन्न जातियों, धर्मों, वर्गों, क्षेत्रों, नश्लों और मान्यताओं के आधार पर अलग अलग पाले में खड़ी नजर आती है. अलग अलग पहचान के होने के कारण अलग अलग प्रकार की समस्यायें भी होती है. अलग अलग पहचान या पृष्टिभूमि से आने के कारण अलग अलग विशेषाधिकार और दंश बिलकुल मुक्त में मिलता है. उदाहरण के तौर पर, तथाकथित उच्च जाति के महिलाओं की समस्या का आधार मात्र स्त्री लिंग के आधार पर होती है. परन्तु, तथाकथित निम्न कही जाने वाली जातियों की महिलाओं का शोषण जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर होता है. यही कारण है कि जितना उच्च जाति के महिलाओँ शोषण के पक्ष में उग्र व् तटस्थ होता है उतना दलित-पिछड़े समाज की महिलाओं के शोषण पर देखने को नहीं मिलता. दूसरे शब्दों में कहें तो, महिलाओं की लिंग आधारित पहचान के तुलना में उसकी जातीय, वर्ग, और धार्मिक पहचान ज्यादा प्रबल हो जाती है. और संक्षिप्त में कहें तो, हमारा समाज स्त्री समानता या उनके अधिकारों की पैरोकारी करने के मामले में अलग अलग मापदंड अपनाता है. इसका परिणाम यह होता है कि महिलाओं की असमानता और अधिकारों को लेकर कोई भी एक व्यापक आंदोलन नहीं खड़ा हो पाता है. अगर कोई आंदोलन खड़ा भी होता है तो वह समाज के हर तबके की महिलाओं के मुद्दों को उठाने में असफल हो जाता है.
निष्कर्षतः यौन हिंसा का सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम बहुत महत्वपूर्ण होता है. जो एक स्त्री के साथ हुए यौनिक शोषण के अपेक्षा ज्यादा असहनीय होता है. स्त्री को उसके परिवार और समाज के तरफ से जिस तरिके से सहयोग अन्य शोषण के समय में होता है और वही बलात्कार के बाद भी होता तो यह सम्भव हो सकता है कि वह अपने साथ हुई उस ज्यादती के खिलाफ अपने न्याय की लड़ाई खुद लड़ सकती. इसके साथ साथ अगर स्त्री अधिकारों की सुरक्षा और यौन शोषण कि खिलाफ एक व्यापक और प्रभावशाली आंदोलन खड़ा करना है तो सभी लोगों को अपने जातीय, धर्म, वर्गीय, पूर्वाग्रहों को भूलना होगा. सबसे महत्वपूर्ण समाधान कि रूप में हमें सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों कि साथ साथ मूल्यों को जन्म देने वाली या उसको वैद्यता देने वाली संस्थाओं को उखाड़ फेखना होगा. हमको मानववादी और शोषणवादी संस्कृति और उसके आदर्श मूल्यों में भेद करना होगा.
एक समाज में जहाँ जाति से मानसिकता इतनी ग्रसित हो कि ये एक व्यापक स्तर पर सामाजिक परेशानियों को एक उलझे रूप में जन्म देती है, ऐसे में खुद को ऊँची जाति का कहने वालों ने सच्चाई से मुंह मोड़ने के लिए अपने तर्क गढ़ लिए हैं. ऐसे में न्याय की कोई भी लड़ाई और भी जटिल हो जाती है. जिस शिक्षा से के दम पर इन घटनाओं को अंजाम देने वाली मानसिकता को एड्रेस किया जा सकता है वह इंसानियत के मूल्यों पर आधारित न होकर शोषणवाड़ी संस्कृति को ही पोषित करती है. इन समस्याओं के हल जनचेतना पर और उनके द्वारा चलाये आंदोलनों में निहित हैं.
नोट: प्रस्तुत लेख गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधार्थिओं के साथ हुयी चर्चा के आधार पर बनी लेखक की अपनी समझ है.
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हवालदार भारती, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, गांधीनगर में एक शोधार्थी हैं. उनसे bhart.r22@gma.l.com पर संपर्क किया जा सकता है.
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