विकास वर्मा (Vikas Verma)
पूर्व मुख्य न्यायधीश रंजन गोगोई को कल राम मंदिर मुद्दे पर (निहायती घटिया) फैसला और राफेल मुद्दे पर नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट देने का ईनाम मिल गया। अक्सर इस तरह के ‘ईनाम’ अपने यहाँ ईमान बेचकर हासिल किए जाते हैं, इसकी एक और इबारत पूर्व मुख्य न्यायधीश ने लिख दी है।
इतिहास गवाह रहा है कि मोदी शाह जोड़ी भारतीय राजनीति की दुनिया के लैनिस्टर हैं। ये किसी का बकाया नहीं रखते, हमेशा उधार चुकता करते हैं। चाहे वो आईपीएस संजीव भट्ट और जस्टिस लोया जैसे संभावित विरोधी रहे हों, या फिर चुनावी कैम्पेन में मददगार अम्बानी-अडानी जैसे बड़े व्यापारी रहे हों। सबका, तथोचित, अलग अलग तरह से, बकाया चुकता किया गया है। आरोपों की मानी जाए, मोदी के खास रहे मेहुल चौकसी और नीरव मोदी जैसे लोगों को गबन करके देश छोड़कर भागने में मदद भी इसी जोड़ी द्वारा की गई थी। अब रंजन गोगोई को राज्यसभा का सदस्य मनोनीत करके उनका राफेल और राम मंदिर वाला उधार चुकता किया गया है!
इसी क्रम में दो बड़े नाम और आते हैं, जस्टिस ए के गोयल और जस्टिस यू यू ललित। इन्होंने मार्च 2018 में प्रिवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज अगेंस्ट SC/ST ऐक्ट को निष्प्रभावी बना दिया था। आम तौर पर विषम सामाजिक परिस्थितियों में जीने वाले SC/STs को जातीय हिंसा से बचाने में यही ऐक्ट (या यूँ कहें कि इस एक्ट का एकमात्र हिस्सा जिसमें आरोपी को जमानत न देने का प्रावधान है) काम आता था। सिस्टम में अल्प प्रतिनिधित्व की समस्या से जूझ रहे समाज को ये प्रावधान सिस्टम में बैठे उच्च जातियों के लोगों के भेदभाव से भी (कुछ हद तक) बचाता था।
यू यू ललित और ए के गोयल ने इस एक्ट के विरोध में आई एक याचिका की सुनवाई के दौरान इस “जमानत न मिलने के प्रावधान” को हटाकर, जेल भेजने या न भेजने का अधिकार जाँचकर्ता अधिकारी के हाथों में सौंप दिया, ये बहाना बनाते हुए कि इस प्रोविज़न का दुरुपयोग (भी) हो रहा है। देखा जाए तो दुनिया का कोई ऐसा कानून नही है, जिसका दुरुपयोग न होता हो, इसका मतलब ये नहीं कि हर कानून को लाचार बना दिया जाए या उसके औचित्य को ही ख़त्म कर दिया जाए। लेकिन कथित उच्च जाति के जजों से इससे बेहतर उम्मीद नहीं की जा सकती।
रंजन गोगोई और नरेंद्र मोदी
सरकार ने शुरू में इस मुद्दे पर चुप्पी साध ली थी। यहाँ से दलित-आदिवासी समाज मे बहुत रोष उत्पन्न हुआ, और वो इस निर्णय के खिलाफ सड़कों पर उतर आये। 2 अप्रैल 2018 को भारत बंद का आवाह्न किया गया, जिसे सरकार ने बलपूर्वक कुचलने की कोशिश की और प्रदर्शन में 11 लोगों की जानें गयीं! इस संगठित विरोध से सरकार सकते में आई और अपना खिसकता आधार रोकने के लिए 6 अगस्त 2018 को अध्यादेश लाकर एक्ट को वापस पुराने स्वरूप में स्थापित किया।
जजों का ये फैसला क्यों और कैसे आया था? इसके जवाब के लिए ए के गोयल और यू यू ललित के तत्कालीन इतिहास और बाद के सफर पर गौर किया जाना चाहिए।
यू यू ललित अमित शाह के वह वकील थे जिसने तुलसी प्रजापति एनकाउंटर केस में अमित शाह का केस सफलतापूर्वक प्रस्तुत किया था। 2014 में एनडीए सरकार आने के बाद यू यू ललित को ईनाम देते हुए सीधा सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त कर दिया गया, वो भी इस हिसाब से कि 2022 में अपने रिटायरमेंट से पहले ढाई महीने के लिए मुख्य न्यायधीश भी बन जाये। वकील से सीधा सुप्रीम कोर्ट का जज बनाए जाने का देश में ये महज छठवाँ केस था। इसी मुद्दे में शामिल दूसरे जज ए के गोयल को सुप्रीम कोर्ट जज के पद से रिटायर होने के बाद सरकार ने उनको नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरपर्सन नियुक्त कर दिया।
मजे की बात ये है कि ये दोनों जज सरकार (परोक्ष रूप से मोदी और शाह) के हित के हिसाब से चलते थे. इनको मिले ईनाम और उनके किये गए फैसलों की लिस्ट, इस बात को साबित भी करते हैं। लेकिन जब सरकार ने उन्हें अटॉर्नी जनरल के माध्यम से SC /ST एक्ट के फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा तो जजों ने सरकार की रिक्वेस्ट को साफ साफ नकार दिया और कहा कि वो अपने फैसले पर कायम हैं। बाद में दलित आदिवासी आंदोलन के दबाव में सरकार को अध्यादेश लाकर जमानत न मिलने वाला क्लॉज़ ऐक्ट में फिर से जोड़ना पड़ा।
सरकार के तंत्र ने इस पूरे प्रकरण को इस तरह प्रचारित किया जैसे कि बस न्यायपालिका दलित आदिवासियों के खिलाफ थी और सरकार न्यायपालिका के खिलाफ जाकर शोषितों के सपोर्ट में खड़ी हुई और उन्होंने ऐक्ट को वापिस मजबूत बनाया।
लेकिन, क्या सच मे ऐसा था?
थोड़ा रिसर्च करेंगे तो पता चलेगा कि इस फैसले के 4 महीने के भीतर ही जज ए के गोयल को रिटायरमेंट के दिन ही सरकार द्वारा नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का चेयरपर्सन बना दिया गया था! अब इस बात पर गौर करेंगे तो यह ईनाम कुछ और कहानी बताता है। और ये जग जाहिर है, कि जिस दर्जे का ईगोइस्टिक (अहंकारी) स्वभाव हमारे ‘प्रधानसेवक’ का है, उस हिसाब से सरकार की याचिका पर विरोधी रुख अपनाने वाले जज को उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नुकसान पहुँचाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हुआ उसका ठीक उल्टा।
इसका मतलब यही निकल कर आता है कि ये पूरा प्रकरण WWE जैसा स्क्रिप्टेड स्पोर्ट्स ड्रामा था! यू यू ललित और ए के गोयल सरकार के हिसाब से ही इस याचिका को डील कर रहे थे। सरकार के हिसाब से ही उन्होंने कानून को कमजोर किया, फिर उनके हिसाब से ही पुनर्विचार की याचिका को ठुकराया और अंत मे सरकार अध्यादेश लाई। इन सबके बाद यू यू ललित और ए के गोयल को अपने-अपने इनाम मिल गए। सरकार ने ये भी साबित कर दिया कि वो दलित आदिवासी विरोधी नहीं है, अगर विरोधी है, तो न्यायपालिका है।
मेरा मानना है अगर 2 अप्रैल के आंदोलन नहीं हुआ होता, तो शायद सरकार अध्यादेश भी न लाती. सरकार को अंदाजा नहीं था कि दलित/आदिवासी समाज लीडरशिप यानि नेतृत्व/नेता के अभाव में भी एकजुट होकर इस तरह का प्रदर्शन कर सकते हैं। सड़कों पर दलितों को न्यायपलिका और सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करता देख सरकार को अपने हिन्दू (के नाम पर बरगलाने वाले) वोट बैंक पर खतरा नज़र आया और वो अपने स्वभाव के विपरीत एक्शन लेते हुए नज़र आई! इस तरह अगर प्रदर्शन न होते, तो सरकार को अध्यादेश न लाना पड़ता, कभी इक्का दुक्का जगह मुद्दा उठने पर सरकार आराम से उसका ठीकरा न्यायपालिका के मत्थे फोड़ खुद कन्नी काट लेती! अध्यादेश न आता तो सवर्णों की एक लम्बे समय की चाहत पूरी हो जाती, जिसकी उम्मीद वो भाजपा से रखते हैं, जिसे पूरा करने के लिए भाजपा प्रतिबद्ध भी दिखती है।
खैर, अध्यादेश लाकर वो ये सन्देश दे गयी कि भाजपा सरकार दलित आदिवासी विरोधी नहीं है! सवर्णों के लिए तो भाजपा सरकार ने पिटारे खोलकर ही रखे हैं! इस मुद्दे को बाद में कभी न कभी सवर्णो के हिसाब से डील कर ही लेंगे! कुल मिलाकर किया कुछ नहीं गया बस जो चीज़ जैसी पहले थी, फिर से वैसी ही कर दी गयी! लेकिन पूरा माजरा मोदी के ‘लिए चित भी मेरी, पट भी मेरी’ जैसा साबित हुआ! थैंक्स टू बोथ द सवर्ण जजेस!
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विकास वर्मा पेशे से एक इंजिनियर हैं एवं सामाजिक न्याय के पक्ष में लिखते हैं.
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