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संजय श्रमण जोठे (Sanjay Shraman Jothe)

sanjay jotheजब जिंदगी पर मौत का साया मंडरा रहा होता है, तभी जीवन और धर्म से जुड़ी असली सच्चाईयों की खोज करने की इच्छा जागती है। भारत में प्राचीन समय में गौतम बुद्ध के द्वारा दिए गए दर्शन को समझने का यही ठीक समय है। गौतम बुद्ध ने जिस प्रकार से प्रकृति और जीवन की पारस्परिक निर्भरता को समझाया था, उसे समझने के लिए आज का समय सबसे अच्छा है। ना सिर्फ इसलिए कि हमारे पास समय है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि अभी कोरोना वायरस के कारण पूरी दुनिया में मनुष्य समाज और प्रकृति के बीच के संतुलन पर एक नई बहस शुरू हो गई है। यह बहस ना केवल प्रकृति और इंसान के बीच के संतुलन पर नए तर्क रख रही है, बल्कि इससे भी ज्यादा इंसानों और इंसानों के बीच संतुलन पर भी नए तर्क सामने आ रहे हैं।

जिन लोगों ने थोड़ा सा भी विज्ञान पढ़ा है वे जानते हैं कि पृथ्वी के इकोसिस्टम में सभी जीव-जंतुओं का अपना-अपना एक स्थान होता है। यह सभी जीव-जंतु एक दूसरे पर हज़ारों तरह से निर्भर होते हैं। इसी निर्भरता की बड़ी डिजाइन में पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के अपने-अपने सुरक्षित दायरे होते हैं जिनमें दूसरे जीव-जंतुओं का प्रवेश घातक होता है। अभी कोरोना वायरस से जन्मा खतरा यही बता रहा है कि शायद इंसान ने जंगल के इकोसिस्टम को असंतुलित करते हुए अपने आपको उसके प्रति एक्सपोज़ कर दिया है। इससे इतना ही पता चलता है कि एक पारस्परिक निर्भरता की ग्रैंड डिज़ाइन में मनुष्य और प्रकृति के अन्य जीवों का अपना-अपना स्थान है। इन स्थानों पर उनकी भूमिकाओं को जरूरत से ज्यादा प्रभावित करना पूरी दुनिया के लिए खतरनाक होता है। 

जीवन और समाज की पारस्परिक निर्भरता एक प्राचीन सिद्धांत है, जिसे कि भारत में बौद्ध धर्म ने एक अलग ही अंदाज में सिखाने का प्रयास किया था। पूरी दुनिया के धर्म प्रकृति और मनुष्य की आपस की अंतर निर्भरता को मानते हैं। सभी धर्म यह सिखाते हैं कि कुदरत को अपनी मां की तरह देखते हुए उसका सम्मान करना चाहिए। पारस्परिक निर्भरता की यह प्रतीति सभी धर्मों में किसी न किसी रूप में आपको नज़र आती है। लेकिन गौतम बुद्ध के साथ यह प्रतीति बहुत ऊंचाई हासिल कर लेती है। गौतम बुद्ध जिस प्रकार से क्षणभंगुर स्व और क्षणभंगुर आत्म के जन्म की बात बताते हैं उससे साफ पता चलता है कि पारस्परिक निर्भरता की यह प्रतीति न सिर्फ भौतिक जगत में भी है बल्कि तथाकथित आध्यात्मिक या रहस्यवादी जगत भी इसी पर टिका हुआ है।

गौतम बुद्ध ने, और उनकी परंपरा में बाद में नागसेन ने स्व या क्षणभंगुर आत्मा के जन्म की बात को बहुत सरल भाषा में समझाया है। बौद्ध साहित्य में मिलिंद प्रश्न नाम की एक छोटी सी किताब आती है। उस किताब में बौद्ध भिक्षु नाग सेन और सम्राट मिनांडर या मिलिंद के संवाद का जिक्र आता है। इस संवाद में, सम्राट मिलिंद बौद्ध भिक्षु नागसन से पूछते हैं कि आप कहते हैं कि कोई स्व या आत्मा नहीं होती तो फिर आप कौन हैं और मैं कौन हूं, और हम एक दूसरे को किस तरह जानते हैं?

buddha image

नागसेन इस बात को समझाने के लिए मिलिंद से कुछ प्रश्न पूछते हैं। वह मिलिंद से पूछते हैं कि सम्राट आप किस वाहन से यहां चलकर आए हैं। सम्राट मिलिंद कहते हैं कि मैं एक रथ से चलकर आया हूं। नागसेन कहते हैं कि वह रथ मेरे सामने लेकर आइए। नाग सेन मिलिंद से कहते हैं कि रथ क्या है? मिलिंद एक इशारा करके कहते हैं कि यह जो सामने खड़ा है यह रथ है। नागसेंन कहते हैं कि इसका पहिया अलग करो, इसकी धूरी अलग करो, इसकी कुर्सी इसके घोड़े, और सारे हिस्से अलग करके रख दो। मिलिंद अपने सेवकों को आज्ञा देते हैं कि पूरे रथ को खोलकर इसके पुर्जों को अलग अलग कर दिया जाए। फिर नागसेन मिलिंद को लेकर उस रथ के पुर्जो के बीच में खड़े हो जाते हैं। नागसेन मिलिंद से पूछते हैं क्या यह पहिया रथ है? मिलिंद कहते हैं कि नहीं पहिया रथ नहीं है। नागसेन पूछते हैं क्या या कुर्सी या ध्वजा रथ है? मिलिंद कहते हैं कि नहीं यह तो रथ नहीं है। फिर मिलिंद तो पूछते हैं क्या यह घोडा रथ है? मिलिंद कहते हैं कि नहीं यह भी रथ नहीं है। इस तरह नागसेन प्रत्येक पुर्जे के पास जाकर प्रश्न पूछते हैं, और मिलिंद कहते हैं कि नहीं यह रथ नहीं है।

आखिर में नागसेन पूछते हैं कि सम्राट फिर आप ही बताइए कि रथ क्या है? इस पर मिलिंद कहते हैं कि यह सब पुर्जे जब जुड़ जाते हैं और चलने लगते हैं तब रथ का निर्माण होता है। नाग सेन कहते हैं कि सम्राट इसी तरह जब शरीर मन समय स्मृतियां नाम रूप इत्यादि आपस में मिल जाते हैं तब उस स्व या आत्मा का निर्माण होता है। जब तक इन तत्वों में एक संतुलन बना रहता है तब तक एक झूठा स्व या आत्मा काम करती रहती है। यह जीवन को चलाने के लिए एक कामचलाऊ व्यवस्था है। जैसे ही संतुलन टूटता है यह स्व या आत्मा भी नष्ट हो जाती है।

नागसेन और मिलिंद के इस संवाद को जरा ध्यान से समझने की कोशिश कीजिए। आप जिसको स्व आत्म या अपना होना कहते हैं, वह इसी तरह हज़ारों चीज़ों से मिलकर बना है। आपके माता-पिता ने आपको जन्म दिया है, आपके शरीर का पहला हिस्सा उनकी तरफ से आया है। उसके बाद आपकी माता ने और आपने स्वयं ने जन्म के बाद जो भोजन किया है वह आपके शरीर का हिस्सा बनता गया है। साथ ही साथ आसपास के वातावरण से आपने जिस तरह की शिक्षा ग्रहण की है, जो भाषा आपने सीखी है, जिस तरह की कुशलता आपने सीखी हैं, जिस तरह के धर्म में, समाज में, संस्कृति में, जन्मे हैं उसने आपके स्व को या आपके आत्म को जन्म दिया है। आज अगर आप किसी एक जाति या वर्ण या धर्म में जन्मे हैं यह सिर्फ एक सहयोग या दुर्घटना मात्र है। इसका आपकी तथाकथित सनातन आत्मा या स्व से कोई संबंध नहीं है। आप अपने आप को जिस रूप में अनुभव करते हैं वह आपके शरीर, शिक्षा, उम्र, समाज, जाति, धर्म, ज्ञान इत्यादि के आधार पर ही अनुभव करते हैं। यह ठीक वैसा ही है जैसे कि अलग-अलग हिस्सों के जुड़ जाने से रथ बन जाता है और चलने लगता है। ठीक इसी तरह इस स्व या आत्म का रथ भी जुगाड़ से चलता है और कुछ समय बाद टूटकर बिखर जाता है। फिर इसी के पुर्जों को दूसरे रथों के निर्माण मे काम मे ले लिया जाता है। यही बौद्ध धर्म के अनुसार पुनर्भव (पुनर्जन्म नहीं) है। 

इसीलिए गौतम बुद्ध और नागसेंन कहते हैं, की कहीं कोई आत्मा या स्व नहीं होता। जो आत्मा या स्व नज़र आता भी है वह एक क्षण भंगुर और झूठी रचना है जो कि मन के द्वारा पैदा होती है। अगर हम आत्मा को शरीर से तुलना करें तो आत्मा की तुलना में शरीर कहीं अधिक टिकाऊ है लेकिन आत्मा बिल्कुल भी स्थिर नहीं है यह प्रतिपल बदलती रहती है। आप अभी कुछ सप्ताह पहले तक कोरोना वाइरस से मृत्यु के भय से भयभीत नहीं थे। लेकिन आज आपका स्व आपका आत्म मृत्यु के भय से कांप रहा है। हालांकि अभी भी आपका शरीर पुराने ढंग से ही काम कर रहा है लेकिन आपका स्व या आपकी आत्मा बदल चुकी है। एक दूसरे उदाहरण से समझिए, आप अभी प्रसन्न हैं और हो सकता है किसी कारण थोड़े ही देर में आपको अचानक किसी पर क्रोध आ जाए। ऐसी स्थिति में आपका शरीर तो वही का वही रहता है लेकिन आपका मन अथवा स्व अचानक बदल जाता है।

इसीलिए गौतमबुद्ध कहते हैं कि जो लोग आत्मा को सनातन या अनश्वर मानते हैं वे झूठ का प्रचार कर रहे हैं। इसीलिए बौद्ध दर्शन मे आत्मा को क्षणभंगुर या झूठ माना गया है, आत्मा या स्व असल में एक काम चलाऊ चीज़ है जो कि मन द्वारा पैदा की जाती है। यह शाश्वत या अनश्वर नहीं बल्कि एक क्षणभंगुर रचना है।

बौद्ध दर्शन की यह केंद्रीय स्थापना है। यही सिद्धांत बौद्ध धर्म को बाकी सभी धर्मों से अलग करता है। बौद्ध दर्शन के इस केंद्रीय बिंदु को अगर ठीक से देखें तो यह बात प्रकृति और मनुष्य के बीच की पारस्परिक निर्भरता को बहुत ऊंचाई पर ले जाती है। बौद्ध दर्शन बताता है कि प्रकृति के सभी अवयव (components) और समाज के भी सभी अवयव मिलकर एक कामचलाऊ व्यक्तित्व या स्व का निर्माण करते हैं। अगर यह सभी अवयव संतुलन में रहते हैं तो वह काम चलाउ व्यक्तित्व सुख का अनुभव करता है। इसलिए बौद्ध दर्शन में निर्वाण या परमसुख की जो कल्पना है वह संतुलन के मार्ग से होकर गुजरती है। निर्वाण असल मे परम संतुलन की अवस्था को कहा गया है। इसीलिए बौद्ध दर्शन में मध्यम मार्ग का इतना अधिक महत्व है। मध्यम मार्ग ना सिर्फ मनुष्य से मनुष्य के बीच के संबंधों में संतुलन की मांग करता है, बल्कि मनुष्य से प्रकृति के संबंधों के बीच भी संतुलन की मांग करता है।

अब वर्तमान मे हमारे सामने खड़ी हुई कोरोनावायरस की समस्या को देखिए।

सबसे पहले तो यह समस्या क्यों जन्मी है इस पर विचार कीजिए। चीन में मनुष्य ने जानवरों के सुरक्षित जीवन में अत्यधिक हस्तक्षेप कर दिया है। इस कारण जानवरों के बीच पाए जाने वाले वायरस मनुष्य की भोजन श्रृंखला और श्वसन तंत्र में प्रविष्ट हो गए हैं। इस तरह चाइना में मनुष्य जगत और जीव जगत के बीच का संतुलन टूट गया है। अब भारत में आकर देखिए। यहां पर उस तरह का संतुलन नहीं है, लेकिन क्योंकि चाइना से वह वायरस किसी ना किसी व्यक्ति के माध्यम से भारत आ गया है, अब हम भी वह संतुलन के टूटने की विभीषिका को झेलने के लिए बाध्य हैं। भारत में हमारे सामने जो सबसे बड़ी समस्या है वह कोरोनावायरस नहीं है, बल्कि हमारी समस्या यह है कि मनुष्य से मनुष्य के बीच में जो संबंध है उसमें सभ्यता और नैतिकता और संतुलन जैसी कोई चीज ही नहीं है। इसी कारण भारत अपनी खुद की संस्कृति और नैतिकता के अभाव के कारण किसी भी तरह की प्राकृतिक या मनुष्य निर्मित आपदा से ज्यादा प्रभावित होने की स्थिति में आ गया है।

china eat everything

(प्रतिनिधित्व-तस्वीर- चीन का भोजन बाज़ार; साभार- इन्टरनेट दुनिया)

बौद्ध दर्शन के अनुसार जिस तरह प्राकृतिक अवयव मिलकर एक शरीर की रचना करते हैं उसी तरह सामाजिक मानसिक अवयव मिलकर एक मन या स्व या व्यक्तित्व की रचना करते हैं। कल्पना कीजिए कि प्रकृति में उपलब्ध भोजन और हवा पानी इत्यादि जहरीला है, तो आपका शरीर भी इससे प्रभावित होगा। ठीक उसी तरह कल्पना कीजिए कि आपके समाज में फैले विचार आपसी नफरत और घृणा द्वारा प्रदूषित है तो आप अपराधी, धूर्त, पाखंडी, चोर, लुटेरे और एकदूजे से घृणा करने वाले समाज का निर्माण करेंगे। अगर आपके समाज में एक दूसरे के प्रति घृणा सिखाने वाला धर्म फैला हुआ है तो आपके समाज और व्यक्तित्व का मानसिक आधार ही दूषित हो चुका है। ऐसे घृणा और नफरत फैलाने वाले वातावरण मे आप नैतिकता और सभ्यता का निर्माण नहीं कर पाएंगे। ऐसी स्थिति में किसी भी खतरे से निपटने के लिए आप सभ्य इंसानों की तरह इकट्ठे नहीं हो पाएंगे। यही भारत मे प्रचलित वर्तमान धर्म और सभ्यता की समस्या है। इसीलिए भारत इतनी विशाल जनसंख्या के बावजूद गुलाम, डरपोक और अनुर्वर (Barren) रहा है। आज भी ज्ञान-विज्ञान या सामान्य मानवीय शिष्टाचार या सामाजिक विकास के मुद्दे पर भारत बहुत पीछे नज़र आता है।

अब इस बात को हमारे समय के महत्वपूर्ण विचारक  के वक्तव्य से जोड़ कर देखिए। हरारी ने अपनी कई किताबों के माध्यम से यह बताया है कि हम एक नए जगत में प्रवेश कर रहे हैं। इस नई दुनिया में बायो टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सबसे ताकतवर हथियार की तरह विकसित हो रहे हैं। इस नई दुनिया में मनुष्य की अपनी गरिमा का या मनुष्य के अपने अस्तित्व का कोई खास मूल्य नहीं है। अगर मुट्ठी भर पैसे वाले और ताकतवर लोग आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके गरीब लोगों को मारना चाहे तो बड़ी आसानी से ऐसा कर सकते हैं। ये लोग अगर समाज की या दुनिया की बड़ी जनसंख्या को किसी भी वायरस या बैक्टीरिया के प्रसार के द्वारा खत्म करना चाहे तो वे एसा आसानी से कर सकते हैं। अगर यह सब इतना आसान है तो ऐसे में सवाल उठता है कि दुनिया को इन सब खतरों से कैसे बचाया जाए?

Yuval Nova Harari

युवाल नोआ हरारी

हरारी कहते हैं कि हम इस दुनिया को तभी बचा सकते हैं जबकि समाज में सभ्यता और नैतिकता का व्यापक पैमाने पर प्रसार हो। हरारी के अनुसार सभ्यता और नैतिकता की शिक्षा को अब ‘चांस’ पर नहीं छोड़ा जा सकता। अब हमें समाज में वास्तविक सभ्यता और नैतिकता की शिक्षा देनी शुरू करनी होगी। बायो टेक्नोलॉजी और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आने के पहले सभ्यता और नैतिकता के प्रश्न इतने गंभीर नहीं हुए थे। लेकिन आज यह प्रश्न बहुत ज्यादा गंभीर होकर उभर रहे हैं। जब इंसान के पास लाठी और तलवार हुआ करते थे तब इन इंसानों की सभ्यता की कमी या नैतिकता की कमी से दुनिया को कोई विशेष खतरा नहीं था। लेकिन आज जब परमाणु हथियार और बायो-टेक्नोलॉजी आ गई है तब समाज सरकार और इंसान की नैतिकता की समझ पर पूरी दुनिया का जीवन निर्भर हो गया है। अब युद्ध, शत्रुता या मतभेद का परिणाम बहुत भयानक होने वाला है।

कल्पना कीजिए कि किसी देश का तानाशाह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और बायो-टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हुए किसी अन्य देश के खिलाफ या अपने ही देश में किसी खास धर्म या जाति की जनसंख्या के खिलाफ कोई बायोलॉजिकल या केमिकल या राजनीतिक हथियार का इस्तेमाल करता है। इस तरह उस तानाशाह की सभ्यता और नैतिकता की जितनी समझ है उस समझ से पूरी दुनिया में हाहाकार मचने की संभावना बन जाती है। ऐसे तानाशाह नेता ज्यादातर अनपढ़ और अपराधी होते हैं, उनके हाथ में इतनी बड़ी ताकत आ जाना पूरी दुनिया के लिए खतरा है। इसीलिए आज न सिर्फ एक व्यक्ति की सभ्यता या नैतिक समझ का प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया है, बल्कि अब समाज में और देशों की जनसंख्या में एक दूसरे के प्रति घृणा और नफरत अब पहले से ज्यादा खतरनाक होती जाएगी।

इटली, जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों में कोरोनावायरस के खतरे से निपटते हुए आम आदमी सहित वहाँ के राजनीतिक धार्मिक नेताओं ने जिस तरह की सभ्यता और नैतिकता का परिचय दिया गया है, वह आपको भारत में कभी देखने को नहीं मिलेगी। भारत मे अभी जिस तरह की खबरें आ रही है उससे पता चल रहा है कि लोग अपने डॉक्टर-किरायेदारों को अपने घर से निकाल रहे हैं। कुछ दिन पहले पूरा भारत इन्ही डॉक्टर्स के लिए थाली बजा रहा था। अब चारों तरफ काला बाजारी और सामान की चोरी शुरू हो गयी है। सस्ती चीजों को दो तीन गुना दाम पर बेचा जा रहा है। जीवन के लिए आवश्यक चीजों की कालाबाजारी होने का खतरा बढ़ गया है। लोग एक दूसरे से और बीमार लोगों से नफरत करने लगे हैं। यह भारत मे वर्तमान में प्रचलित धर्म द्वारा सिखाई हुई नैतिकता का स्वाभाविक परिणाम है।

भारत में आजकल जो धर्म प्रचलित है उसमें गरीबों की या बीमारों की सेवा करना नहीं सिखाया जाता है। इटली में जर्मनी में या यूरोप के अन्य देशों में जो धर्म प्रचलित है उसमें गरीबों की बीमारों की और कमजोरों की सेवा करना सिखाया जाता है। इसीलिए वह समाज भारत से ज्यादा सभ्य है। इसीलिए वे एक उन्नत नैतिकता का परिचय देते हुए इस वैश्विक महामारी से लड़ते हुए इकट्ठे खड़े हो गए हैं। भारत के धर्म ने भारतीयों को आपस मे नफरत करने की जो शिक्षा दी है उसके कारण भारतीय समाज किसी भी सामूहिक लक्ष्य के लिए एक साथ खड़ा नहीं हो पाता है। बल्कि इससे विपरीत जाते हुए भारतीय लोग जाति वर्ण और धर्म विशेष से नफरत करते हुए इंसानियत के खिलाफ बहुत आसानी से इकट्ठे हो जाते हैं।

hindu social order

जातीय वर्ण व्यवस्था का प्रतिनिधित्व चित्र 

इस बिंदु पर अगर हम गौतम बुद्ध और युवाल नोआह हरारी को एक साथ समझने की कोशिश करें तो हमें पता चलता है कि भारत के समाज ने प्रकृति और समाज दोनों का संतुलन खो दिया है। आने वाले समय में प्रकृति और मनुष्य के जीवन के बीच के संतुलन से ज्यादा मनुष्य से मनुष्य के बीच संबंधों में संतुलन पर अधिक बातें निर्भर होती जाएंगी। इसीलिए भारत में हमें ऐसे धर्मों और विचारधाराओं का प्रचार करने की सख्त आवश्यकता खड़ी हो गई है जो कि मनुष्यता भाईचारा और समानता सिखाते हैं। युवाल नोआ हरारी कहते हैं कि हमारे समाज को पारस्परिक निर्भरता और नैतिकता की नई सीख देने की आवश्यकता है। ताकि कोई भी मनुष्य समाज या देश अपने आपको स्पेशल मानते हुए दूसरों को खत्म करने या नजरअंदाज करने की कोशिश ना करें।

दुर्भाग्य से भारत में अभी जो धर्म प्रचलित है, वह गौतम बुद्ध और युवाल नोआ हरारी दोनों की शिक्षाओं के खिलाफ है। भारत का वर्तमान समाज किसी भी सामूहिक लक्ष्य के प्रति इकट्ठा होकर संगठित होकर काम नहीं करता। अपने ही गरीब और वंचित भाई बहनों से प्रेम नहीं करता बल्कि उन्हें घृणा करके अपने से दूर भगाता आया है। ऐसे में करोड़ों गरीब और वंचित इंसान, जो कि अब जल्दी ही इस जानलेवा बीमारी से संक्रमित होने वाले हैं उनके जीवन पर भयानक संकट आने वाला है। यह संकट इतना बड़ा है कि इससे स्वयं वह लोग भी नहीं बच पाएंगे जो उनसे नफरत करते आए हैं। इसलिए भारत का समाज अपनी घृणा और नफरत की शिक्षा से खुद ही पीड़ित और कमजोर होने वाला है। इस स्थिति को एक वैश्विक दुनिया में बहुत समय तक कायम नहीं रखा जा सकता।

जो भी देश या समाज अपने नागरिकों के बीच में अपने समुदायों के बीच में प्रेम भाईचारे नैतिकता और सभ्यता का प्रचार नहीं कर सकता, वह बहुत जल्दी आपस में ही लड़कर नष्ट हो जाएगा भारत उस बिन्दु के बहुत नजदीक आ चुका है। अब इस दुनिया में बड़े युद्ध की या महायुद्ध की कोई आवश्यकता नहीं है। भविष्य की दुनिया में सभ्यता और नैतिकता का होना या ना होना ही आपके जीवन का अंतिम निर्णय करेगा।

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संजय श्रमण जोठे लीड इंडिया फेलो रहे हैं। मूलतः मध्यप्रदेश के निवासी हैं। सामाजिक कार्यों में पिछले 15 वर्षों से सक्रिय हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी से अंतर्राष्ट्रीय विकास अध्ययन में परास्नातक हैं और टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान से पीएचडी हैं।

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