Istikhar lochan
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इस्तिखार अली और लोचन (Istikhar Ali & Lochan)

Istikhar lochanभारत एक मिथक प्रधान देश है. शादी ब्याह से लेकर बिमारियों तक में ये मिथक जाति प्रेरक मिथकों के प्रिज़्म से जब गुज़रते हैं जिससे  देश की सही रंगत भी सामने आ जाती है. मिथक बिमारियों से भी घातक है. कोरोनावायरस (COVID-19) के चलते सामाजिक दूरी का भी यही फंडा है. भले ही यह बिमारी उच्च वर्ग से नीचे की और भ्रमण कर रही हो लेकिन देश की राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था पर काबिज़ व् निर्णायक स्थितियां पैदा करने वाले वर्ग सरकार की मानसिकता खुलकर सामने आ रही है. उच्च वर्गो मे विकसित और संचारित बीमारी अगर निम्न वर्गों को चपेट मे ले भी ले तो भी क्या? दिल्ली समेत देश के अन्य महानगरों से निम्न वर्ग बिना किसी सरकारी या सामाजिक सहायता के अपने ‘देश’ यानि घर निकल चुका है. रोज़ी रोटी के चक्कर में अपना घर-बार छोड़ दूर आ बसे मजदूरों ने शायद सोचा होगा कि मरना ही है तो अपने ‘घर’ जाकर दम तोड़ेंगे. मालिकों ने क्लोज-डाउन के इस माहौल में ‘बिना काम’ वेतन देने से मना कर दिया है. मकान मालिक ने किराया एक दो महीनों के लिए टाला नहीं. दुकानदार ने भी उधारी देने से मना कर दिया. अब चारा भी क्या है? दूसरी तरफ, कई युवाओं को पुलिस ने धर लिया. पिटाई एक ओर  दूजे निरादर करने के लिए उन्हें मुर्गा बनाया. क्या ऐसा ही व्यवहार इस देश के हर एक नागरिक के साथ पुलिस कर रही है ? जबकि सड़कों पर कारों की आवाजाही थमी नहीं है? 

सोचकर देखिये, यही बीमारी अगर किसी झुग्गी-झोंपड़ी से शुरू हुई होती तो? तस्सवुर (कल्पना) कीजिये उन घरों का जहाँ झाड़ू पोछा से लेकर खाना बनाने का काम या पौधों के रखरखाव के लिए लोग बिल्डिंगों के बगल में पलती बस्ती से आते होते? इन घरों के लोगों की क्या प्रतिक्रिया होती? सरकार कितनी तवज्जो देती? शायद उस स्थिति में भी लॉक डाउन होता लेकिन इन बस्तियों का. इन्हें घर से निकलने की इजाज़त न होती. अभिजात वर्ग में मिथकों के आसरे इन्हें ‘इनहाईजेनिक क्षेत्र ’ एलान कर दिया जाता और घर में काम कर रहे नौकर को सख्त हिदायतें होतीं. लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं है. अब यह देश पर टूट पड़ी आपदा है. देश बड़े लोगों का होता है. भले ही कोरोना वायरस ‘बड़े लोगों’ से बस्ती में घुसने को तैयार हो लेकिन पिटेंगे तो यही बदनसीब जो ही आज अपने संदूक-पोटलियाँ अपने बच्चों समेत लेकर सैंकड़ों किलोमीटर के सफ़र पर निकल गए हैं. सामाजिक दूरी बनाये रखने की हिदायत दरअसल पारंपरिक है. अभिजात वर्ग के लिए एक स्वाभाविक दृष्टिकोण है. इसमें नया क्या है? छिपे रूप में तो ये रोज़ होता है!

 social distancing

ये सामाजिक दूरी वाला वायरस अब न्यूज़रूम से निकल कर सोशल मीडिया में भी आ गया है. वहां भी समाजिक दूरी की थाली-ताली पीटी जा रही है. 

आप ये देखिये कि किस तरह से चाइना से चला एक वायरस गरीबों को उनकी सामाजिक औकात दिखाता है. कैसे ये ‘निम्न’ तबका खुद ब खुद ही निशाने पर आ जाता है.  

शुरुआत में वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन (WHO) समय की नजाकत को नहीं समझता और इसे गंभीरता से नहीं लेता. चीन की पीठ थपथपाता है. बाद में उसकी नींद टूटती है. हर तरफ अचानक से दहशत का माहौल बनता है. भारतीय राजनीति अपना काम करती है. सी.ए.ए, एन.आर.सी. के मुद्दे पर जनता से घिरी सरकार के पाँव तले गोया बटेर आ गया. सरकार को जनता-जनार्दन की फिक्र इतनी कि जब केरला ने अपने राज्य मात्र के लिए ही 20000 करोड़ का एलान किया था तो केंद्र ने पूरे देश के लिए 15000 करोड़ का एलान किया था. हालही में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बढाकर 1.7 लाख करोड़ किया, जब स्थिति ने भयावह रूप ले लिया। राजनीति अपने यौवन पर है. कर्नाटका ने केरला को जाते हाईवे को कीचड़ के ढेर लगाकर जाम कर दिया है. वह नहीं चाहता केरला में कोई राहत सामग्री पहुंचाई जाए. ऐसा क्यूँ? क्योंकि दोनों राज्यों में सरकारें अलग-अलग पार्टियों की हैं. 

 humiliation

केरला ने जिस तरह से कोरोना वायरस और इसको लेकर जनता में दहशत के माहौल को संजीदगी से एड्रेस किया है ऐसे हितकारी एंव अच्छे उदहारण कम ही दिखाई देते हैं. लेकिन दूसरी और देश के प्रधानमंत्री कोरोना वायरस से लड़ने के लिए नए मिथक का आह्वान करते हैं- थाली और ताली बजाओ! फजीहत होने पर एक और मिथक से पुराने मिथक का बचाव करने भक्त लोग चले आये कि इससे उत्पन्न कम्पन से कोरोना वायरस मर जाता है. 

भारत में कोई भी चीज़ आती है वह चाहे टेक्नोलॉजी हो या बिमारी, मिथक अपना काम करते हैं. वह प्रतिनिधि बनकर खड़े हो जाते हैं कि हम ही तय करेंगे क्या होगा और कैसे होगा. लेकिन ये मिथक से फायदा किसको होता है? इस माहौल में किसे रेस्क्यू किया जायेगा और किसे सेकड़ों किलोमीटर पैर घिसने के लिए सड़क पर डाल दिया जायेगा. बिना प्रयाप्त समय दिए किसको ‘बेवतन’ करना है और किस वर्ग के लिए रोज़मर्रा की सभी चीज़ों का इन्तेजाम करना है, सब मिथकीय मानसिकता से तय होता है. मिथक बहुत ताक़तवर होते हैं. नोटबंदी में भी मिथक अपना काम किया था।. कभी मिथक जुमला बन जाते हैं कभी जुमले मिथक. करे कोई भी लेकिन भरेगा कौन, यह मिथक तय करते हैं.

सामाजिक दूरी का मिथक भी कुछ कहता है. वह कहता ही नहीं बल्कि आगाह भी करता है कि सामाजिक-व्यवस्था (सोशल-आर्डर) वाली दूरी बनाना ज़रूरी है बाकि सब तो चल जाता है.

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लोचन और इस्तिखार अली, दोनों, जे.एन.यू. से पी.एच.डी. स्कॉलर हैं. उनसे istikharali88@gmail.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.

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