Dhamma
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धम्म दर्शन निगम (Dhamma Darshan Nigam) 

Dhammaकौन हैं ये सफाई कर्मचारी?

सफाई कर्मचारी, मतलब वे लोग जो घरों में टॉयलेट/शौचालय साफ करने आते हैं, घरों से कूड़ा लेके जाते हैं, गली-सड़क पर झाड़ू लगाते हैं, और वो भी जो बड़े-बड़े कूड़े के ढेर से कूड़ा गाड़ी में भरकर ले जाते हैं। किसी भी आम इंसान को ये काम एक बहुत ही साधारण रोज़ी-रोटी कमाने वाला काम लग सकता है। लेकिन, जब इसमें हाथ से मैला साफ़ करने वाली मैला प्रथा जुड़ जाती है, ये काम बिल्कुल भी साधारण नहीं रहता। इसमें असाधारण रूप से तुच्छता यानि हीनता का भाव जुड़ जाता है.

मैला प्रथा क्या है?          

मैला मतलब सिर्फ घर और गली का कूड़ा करकट नहीं, बल्कि इस सब के साथ हमारी टट्टी… जी हां, टट्टी यानि मानवीय मैला भी जुड़ा है। जब एक इंसान की टट्टी दूसरे इंसान (मतलब सफाई कर्मचारी) द्वारा साफ कराई जाती है, तब ये कहलाता है, हाथ से मैला उठाना, मतलब, मैला प्रथा। हमारे देश में आज भी हजारों-लाखों लोग दूसरों की टट्टी साफ करके दो वक्त की रोटी कमाने के लिए मजबूर हैं। पूरे दिन दूसरों की टट्टी साफ करने के बाद दो बासी-सूखी रोटी के इंतजार को रोजी-रोटी कमाना नहीं कह सकते। यह सरासर शारीरिक और मानसिक अत्याचार है- एक समुदाय का दूसरे समुदाय पर और सरकार का उसके ही नागरिकों पर।

“हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013” के तहत मैला प्रथा गैरकानूनी और दंडनीय है। इस अधिनियम के तहत मैला प्रथा 6 तरीकों से अभी भी हमारे देश में बरकरार है। मतलब इन 6 जगह से अभी भी लोग अपने हाथों से मैला उठाने और ढोने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं। ये 6 तरीके नीचे दिए गए हैं:

(1) शुष्क/अस्वच्छ शौचालय: इस प्रकार के शौचालय में पानी का इस्तेमाल ना होने के कारण ये सीवर लाइन या सेप्टिक टैंक से जुड़े हुए नहीं होते हैं, इसलिए मानव मल हाथ से उठाना पड़ता है। इनमें कभी शौचालय की सीट हो भी सकती है और नहीं भी। इसमें से मैला उठाने का काम कभी उस ही जगह से, तो कभी किसी नाली या गड्ढे से करना पड़ता है। एक सफाई कर्मचारी महिला या पुरुष ये मल जमा करके कहीं दूर फेंकने जाते हैं। ऐसे शौचालय लोगों के घरों के अन्दर भी होते हैं और बसे-बसाये मोहल्ले के बीच भी। मोहल्ले वाले शौचालय को 15-20 या ज्यादा लोग एक साथ इस्तेमाल कर सकते हैं। इस तरह के शुष्क शौचालय 98% महिलाओं द्वारा ही साफ  कराये जाते हैं।

(2) सेप्टिक टैंक: घरों में बने सेप्टिक टैंक भर जाने के बाद सफाई कर्मचारियों द्वारा ही हाथ से साफ करवाये जाते हैं। इन सफाई कर्मचारियों को हर बार सेप्टिक टैंक के अन्दर उतरना पड़ता है।

(3) सीवर लाइन: सीवर और नालों की सफाई भी सफाई कर्मियों द्वारा अन्दर उतर के हाथ से की जाती है। कई बार ये सीवर और नाले 20-25 फुट तक गहरे होते हैं और सफाई कर्मचारियों को उनमें पूरा डूब कर उन्हें साफ करना पड़ता है। ये काम हमेशा सरकारी विभाग खुद करवाता है।

(4) रेलवे ट्रैक: जब कभी प्लेटफार्म पर खड़ी ट्रैन में शौचालय का इस्तेमाल होता हैं तो मल सीधा पटरियों पर ही गिरता है। इस पटरी पर गिरे मल को एक सफाई कर्मचारी से ही साफ कराया जाता है। किसी भी तकनीकी समाधान को प्रयोग में न लाने के कारण ये मल भी सफाई कर्मियों को अपने हाथ से ही उठाना और ढोना पड़ता है।

(5) खुले में शौच वाली जगह: आज भी गांव/कस्बो में जहां खुले में शौच जारी है ऐसी जगह को पंचायत और निगम द्वारा सफाई कर्मचारियों से हाथों से साफ कराया जाता है।

(6) नाले/नालियां जिनमें मानव मल बहता हो: कई घर जिनके शौचालय सीवर से जुड़े नहीं रहते और सेप्टिक टैंक भी नहीं होते, तब वे मल सीधा नालियों में जाता हैं। इन नालों को सफाई कर्मचारी ही अपने हाथ से साफ करते हैं।

इस तरह से मैला प्रथा पूरे देश भर में बहुत बड़े पैमाने पर आज भी चल रही है। बड़े शहर हों, गांव या कस्बे हर जगह ही मैला प्रथा किसी ना किसी रूप में मौजूद है। 

Manual Scavenging

मैला प्रथा से होने वाली मौतें

मैला प्रथा के इन 6 रूपों में से 2 रूप, सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई, ऐसे हैं जहां काम करने वाले कर्मचारियों की जान जाने का खतरा बहुत ज्यादा होता है। सरकारी आकंड़ों के अनुसार हर पांचवे दिन एक सफाई कर्मचारी की सीवर या सेप्टिक टैंक की सफाई करते हुए मौत होती है। इन मरने वालों में ज्यादातर नौजवान होते हैं, जिनका जीवन शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाता है।

अक्सर मरने वाला कोई एक नहीं होता, 2-3-4 लोग एक साथ मारे जाते है। दोस्त-दोस्त मारे जाते है। बाप-बेटे साथ-साथ मारे जाते है। कोई एक बेहोश होकर टैंक या गहरे सीवर में गिर भी जाता है तो, तब भी दूसरा साथी उसे बचाने नीचे उतरता है। ये जानते हुए भी कि गड्ढे में नीचे उतरने पर वो भी मर सकता है। जिस काम में जान जाने का इतना जोखिम हो वो रोज़ी-रोटी का काम हो ही नहीं सकता। अमूमन ये काम ठेकेदारों के द्वारा कराया जाता है, जो सफाई कर्मचारियों का शोषण कर अपना धंधा चलाते हैं।

कैसे होती हैं ये मौतें?

साधारण शब्दों में, ढक्कन बंद सीवर और सेप्टिक टैंक में जहरीली गैस (मीथेन और आदि) बनती है। कई बार थोड़ी सी भी सावधानी हटने से ढक्कन खोलते ही जहरीली गैस की चपेट में आने से इन सफाई कर्मचारियों की मौत हो जाती है। और कई बार सीवर और टैंक में घुसने पर दम घुटने से। जो कर्मचारी बचे रहते हैं उनमें से कईयों को इस गंदगी से होने वाली बीमारी (जैसे टी.बी., दमा इत्यादि) कम उम्र में मार देती है।

और कितनी मौतें?

ऐसा नहीं है कि सफाई कर्मचारियों को नहीं मालूम कि सीवर और सेप्टिक टैंक में उनकी मौत भी हो सकती है। उन्हें मालूम है। तब भी ऐसी क्या मजबूरी होती है कि लगातार ऐसी मौत की खबर भी उन्हें दोबारा सीवर और सेप्टिक टैंक में उतरने से नहीं रोकती। उनकी मजबूरी होती है या उन्हें मजबूर किया जाता है?

अगर मजबूर किया जाता है तो ये सिर्फ मौतें नहीं हैं, बल्कि हत्याएं हैं। और जब हत्याएं हैं तो कोई हत्यारा भी होगा। किसी की जिम्मेदारी भी होगी ये हत्याएं रोकने की। हत्यारें है वे सब लोग जो अपने घरों के सेप्टिक टैंक साफ कराने सफाई कर्मचारियों को बुलाते हैं। वो गुनाहगार हैं अगर कोई घटना नहीं घटी तब भी। क्योंकि उन्होंने वो परिस्थिति पैदा की जहां एक और मौत हो सकती थी। हत्यारी हैं अब तक की सारी सरकारें जो मंगल और चांद तक पहुंचने और बढ़ती तकनीक का दंभ तो भरती रहीं, लेकिन एक कारगर मशीन नहीं बना सकीं कि इंसानों को सीवर में न भेजा जाए। उनकी जान से न खेला जाए। और अगर मशीनें हैं भी तो उनका न इस्तेमाल होना भी हमारी सरकारों को उतना ही हत्यारा बनाता है। हत्यारी है वे सभी सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएं जिनकी जिम्मेदारी थी सफाई व्यवस्था बनाये रखने की। 

Manual Scavenging 2

(चित्र साभार डेक्कन हेराल्ड)

सीवर-सेप्टिक टैंक में मौतों के खिलाफ़ हमारी ज़िम्मेदारी 

ये सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई में मरने वाले बेशक गरीब लोग ही हैं, जो दो वक़्त की रोटी के लिए अपनी जान से भी खेलने को मजबूर हैं। और जब इनके किसी भाई-बंधू या सगे-सम्बन्धी की सीवर में मौत होती है तो इन्हें इतना भी नहीं मालूम होता कि वे इसकी पुलिस में शिकायत भी कर सकते हैं। तो, क्या हम यह अपनी- अपनी ज़िम्मेदारी मान सकते हैं कि हम अपने-अपने सीवर-सेप्टिक टैंक की सफाई मशीन से करायेंगे, न कि उनमें लोगों को भेज कर? अगर हम किसी सफाई कर्मचारी को सीवर-सेप्टिक टैंक में घुसते हुये देखेंगे तो उसे रोकेंगे, और उस से सफाई करवाने वाले ठेकेदार या सरकारी अधिकारी से बात करेंगे? अगर आगे से हमारे आस पास सीवर या सेप्टिक टैंक में मौत होती है तो हम इसके खिलाफ़ रैली-धरना करेंगे, पुलिस में शिकायत करवाने में उस परिवार की मदद करेंगे? उस परिवार को उसके अधिकार, मुआवज़ा दिलवाने में मदद करेंगे? क्या हम यह ठान सकते हैं इन मौतों के खिलाफ़ हम अपना गुस्सा ज़ाहिर करेंगे? या फिर हम अपना दिल और दिमाग एकदम कठोर बना सफाई कर्मचारियों को सिर्फ सस्ते मज़दूर की तरह देखेंगे और सीवर-सेप्टिक टैंक में मरने के लिए धकेलते रहेंगे?

भारत सरकार जवाब दे

देश के अन्दर साफ़ सफाई और सीवर लाइन की सफाई की जिम्मेदारी देश की अलग-अलग सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की होती है। ये संस्थाएं किसी न किसी तरह से राजनेताओं से सम्बंधित रहती हैं। तो क्या उन्हें यह जवाब नहीं देना चाहिए कि चुनाव जीतने के बाद, मंत्री बनने के बाद उन्होंने उनके क्षेत्र में मैला प्रथा के खिलाफ क्या-क्या कदम उठाए हैं? साफ-सफाई का काम जिसकी पूरे साल लगातार जरूरत होती है वह क्यों ठेके पर हो रहा है? क्या ठेके पर ये काम देकर इस देश के अलग-अलग मंत्री अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग रहें हैं? कि हमने तो ठेका दे दिया था! क्या ठेके पर ये काम देकर अलग-अलग मंत्री सफाई कर्मचारियों को बहुत सारी सुविधाओं और अधिकारों से वंचित नहीं कर रहें, जो लोगों को सरकारी नौकरी में होने पर मिलते हैं?

ठेका प्रथा सफाई कर्मचारियों के अधिकारों का घोर हनन है। भारत सरकार और अलग-अलग राज्य सरकारें ठेके पर सफाई का काम देकर सफाई कर्मचारियों को सीवर में मरने पर मजबूर करके उन्हें नागरिक ही नहीं, उनकी एक इंसान होने की पहचान को भी ख़तम कर रही है। साफ़-सफाई का काम ठेके पर कराना दलितों को प्रताड़ित करने का तरीका तो है ही, साथ ही साथ सीवर-सेप्टिक की सफाई मशीन से न कराने पर ऐसा लगता है मानों, जैसे दलित सफाई कर्मचारियों की पूरी कौम को ही सीवर-सेप्टिक में मारने के लिये ये सरकारें प्रतिबद्ध हैं!

सीवर और सेप्टिक टैंक में हो रही मौतें रोकने के लिए इन सरकारों को जल्दी से जल्दी इन मौतों की और मेनुअल स्केवेंजिंग 2013 एक्ट की जानकारी ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पंहुचाने के लिए देशव्यापी जागरूकता अभियान चलाने चाहियें। टीवी, रेडियो और अख़बार में विज्ञापन देने चाहियें। जितना जल्दी हो सके उतना जल्दी ठेका प्रथा बंद करनी चाहिये, जो कि इन मौतों के पीछे सबसे बड़ा करण है। सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई सिर्फ और सिर्फ मशीनों से करानी चाहिये। और दोषियों को सख्त से सख्त सजा देनी चाहिये, कि वे अगली बार से किसी भी सफाई कर्मचारी को सीवर-सेप्टिक टैंक के अन्दर भेजने की गलती न करे।

 Manual Scavenging 3

मैला प्रथा का कलंक

हम बेशक 21वीं सदी में हैं और तकनीक की अपनी अधिकतम सीमा पर हैं। हमारे प्रधानमंत्री भी लाल किले से देश की और उनकी सरकार की तरक्की की लम्बी सूची गिनाते हैं, भविष्य के लिए बड़े-बड़े वादे करते हैं, और आम जन उन पर गर्व भी करता हैं। लेकिन अगर प्रधानमंत्री ये भी कह दें कि “मेरे भाइयों की सीवर-सेप्टिक टैंक में हो रही मौतों पर मैं शर्मिंदा हूं, मेरी सरकार सीवर-सेप्टिक टैंक की सफाई का पूर्ण रूप से मशीनीकरण करेगी, और मैला प्रथा के खिलाफ देशव्यापी जागरूकता अभियान चलायेगी”। तो, हो सकता है कि देश का प्रशासन सफाई कर्मचारियों को सस्ता मज़दूर समझना छोड़ कर उनके सुविधा के साधन, और उनकी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा के बारे में  सोचना शुरू करे। अगर हमारे प्रधानमंत्री सफाई कर्मचारियों और उनके बच्चों को एक बेहतर भविष्य का आश्वासन भी नहीं दे सकते, तो इस से ज्यादा शर्म की बात भी कोई नहीं होगी।

सीवर-सेप्टिक टैंक में हो रहीं लगातार मौतों और एक इंसान से दूसरे इंसान की टट्टी साफ़ कराने का कलंक इस देश के हर एक इंसान पर लगेगा। जो अपनी पूरी ज़िन्दगी जाति व्यवस्था द्वारा प्रमाणित मैला प्रथा और मैला प्रथा से हो रहीं मौतों पर निहायत बेशर्मी से गूंगे-बहरे दर्शक बने रहे। ऐसे लोग इतिहास में नहीं लिखे जायेंगे कि वे न्याय और समानता पसंद लोग थे। बल्कि वे इस क्रूर और अमानवीय व्यवस्था के समर्थक के रूप में जाने जायेंगे। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार “अगर समाज लोकतांत्रिक नहीं है तो, सरकार भी कभी भी लोकतांत्रिक नहीं हो सकती।”

जाति प्रथा से जुड़ी मैला प्रथा

क्या हमारे समाज की सभी जातियों के लोग ये काम करते है? या सिर्फ एक ही जाति के लोगों पर ये काम थोपा गया है? क्यों इस एक जाति के पढ़े लिखे लोग भी इसी काम को करने के लिए मजबूर हैं? और कौन हैं वे लोग जो इस आज़ाद देश में ब्राह्मणवादी-सामंतवादी सोच रखते हुए एक गैरकानूनी और दंडनीय काम करवाये जा रहे हैं, और एक नागरिक से दूसरे नागरिक की टट्टी ढुलवा रहे है? क्या ये सवाल आपस में जुड़े हुए नहीं हैं?

क्या देखा है आपने कभी किसी शर्मा जी, गुप्ता जी, तिवारी जी, पांडे जी, देशपांडे जी, दुबे जी, कोई ठाकुर या शेख साहब को किसी का सेप्टिक टैंक साफ करते हुए? या किसी नाले में उतरते हुए? बेशक नहीं देखा होगा। क्योंकि भारत में जाति व्यवस्था है। और इस व्यवस्था के अनुसार अलग-अलग लोगों को अलग-अलग काम बांटे गए हैं। और दिखाया गया है पुनर्जन्म का सपना, कि इस जन्म में अपनी जाति का काम पूरी ईमानदारी से करने पर अगले जन्म में हम अपने से किसी साफ-सुथरी जाति में पैदा हो सकते हैं।

जाति व्यवस्था की मदद से बांधे रखा गया है पूरे मेहनतकश वर्ग को अपने से उंची जाति वालों की सेवा के लिए, बिना ही किसी मेहनताने के। पूरे दिन मेहनत करने के बाद मजदूरी मिली भी तो बस दो टाइम के खाने भर के लिए, जिसमें पूरा पेट तक नहीं भरता। जब अलग-अलग जातियां बंधी हुई हैं अपने-अपने काम में तो इसका मतलब है कि निर्धारित किए गए हैं अलग-अलग काम अलग-अलग जातियों के लिए। और इसी का नमूना यह है कि सिर्फ भंगी जाति ही कर रही है साफ-सफाई का काम और इसी वजह से कोई दूसरी जाति भी साफ-सफाई का काम कभी नहीं करती।

ये सारी बात सिर्फ एक दूसरे का काम करने या ना करने से सम्बंधित नहीं हैं। बल्कि पूरी जाति व्यवस्था टिकी हुई है एक दूसरे का काम ना करने से। सबसे जरूरी बात, काम से जाति नहीं है, बल्कि जाति से काम है। और ये सारी जातियां और काम बंटे हुए हैं एक क्रम या श्रेणी में (मतलब एक-दूसरे के ऊपर और नीचे)। एक जाति ना ऊपर जा सकती और ना नीचे। वो जहां जिन दो जातियों के बीच है वहीं रहती है। इस सन्दर्भ में डॉ. अम्बेडकर एकदम उचित लिखते हैं कि “जाति व्यवस्था उस बहुमंजिला इमारत की तरह है जिसमें ऊपर-नीचे जाने के लिए कोई सीढ़ी नहीं है और ना ही बाहर निकलने का कोई रास्ता। जो जिस मंजिल पर पैदा होता है उसी मंजिल पर मरता है।”

इस जाति व्यवस्था में एक इंसान की गरिमा और उसकी जान की कीमत भी उसकी जाति का क्रम ही निश्चित करती है। इस क्रम में जो इंसान नीचे के स्तर पर है उसे अपने से ऊपर के स्तर वाले को इज्जत देनी होती है, पर बदले में उसे भी इज्जत मिले जरूरी नहीं हैं। अगर इस श्रेणी में कोई व्यक्ति उसके निचले क्रम का निर्धारित किया हुआ काम छोड़ के कोई दूसरा काम करता है, तो उसको उसकी निर्धारित जगह याद दिलाई जाती है। उस से बोला जाता है कि औकात भूल गए हो क्या? जहां हो वहीं रहो। नहीं तो मौहल्ले में रहने भी नहीं दिया जायेगा।

हर विशेष काम के लिए किसी एक विशेष जाति के इंसान को बुलाया जाता है। और इन थोपे गए काम को प्रमाणिकता मिलती है धर्म से। इस प्रमाणिकता के बाद सभी जातियां थोपे गए काम को अपना काम समझती हैं और बिना सवाल किये, बिना कोई आपत्ति जताये करती जाती हैं। इस प्रमाणिकता को मंजूरी भी मिल जाती है जब लोगों के चहेते राष्ट्रीय नेता गांधी ये कहते हैं कि “एक भंगी, समाज के लिए वो करता है जो एक मां उसके बच्चे के लिए करती है।” काश! उस समय गांधी जी को कोई बताता कि बहुत बड़ा अंतर होता है एक मां द्वारा उसके बच्चे की देखभाल करने में और एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान की टट्टी साफ करने में।

Baba Saheb Manual Scavenging Man

इस देश में लोगों की जातिवादी सोच के कारण पढ़े-लिखे नवयुवकों- नवयुवतियों को भंगी जाति का होने की वजह से समाज कोई दूसरा काम देने को तैयार नहीं है। और न ही इस जाति में किसी के अमीर हो जाने से ये काम बंद हो जाता है। अभी भी ऐसे उदाहरण देखने में मिलते हैं कि बहुत से पढ़े-लिखे और आर्थिक रूप से समर्थ युवक-युवतियां साफ-सफाई का काम करने को मजबूर हैं।

यह कहा जा सकता है कि आज भी सफाई कर्मचारी समुदाय के लोगों के पढ़-लिख जाने से या आर्थिक रूप से प्रबल हो जाने से भी उनके सामाजिक जीवन में ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है। उन्हें किसी ना किसी रूप में सफाई के काम में ही लगे रहना पड़ता है। क्योंकि ये हिंदू समाज उन्हें सम्पूर्ण मौका ही नहीं देता कि वो सामाजिक और आर्थिक रूप से अपने जीवन में आगे बढ़ सकें।

हमारी सरकारें भी साफ-सफाई का काम भंगी जाति के लिए ही आरक्षित कर रही हैं, जो साफ-साफ दिखाता है कि इन सरकारों की सोच भी जातिवादी है। यहां पर डॉ. अम्बेडकर की एक और बात एकदम सटीक प्रतीत होती है कि “जाति व्यवस्था सिर्फ काम का बंटवारा (division of labor) नहीं है, बल्कि काम करने वालों का भी बंटवारा (division of people) है।” 

सफाई कर्मचारियों को जाति व्यवस्था में सबसे नीचे होने के कारण ऊपर वाली सभी जातियों से भेदभाव और अपमान झेलना पड़ता है। ऊपर वाली जातियों के साथ-साथ सफाई के काम में लगी तमाम जातियां भी आपस में भेदभाव करती हैं। सफाई के पेशे में लगी ये जातियां और दूसरी अनुसूचित जातियां भी आपस में रोटी-बेटी का व्यव्हार नहीं रखतीं। इस जातिवादी-ब्राह्मणवादी व्यवस्था की सबसे बड़ी ताकत भी यही है, कि ये खुद पीड़ित, उत्पीड़ित, शोषित, सतायी हुई जातियां भी आपस में भेदभाव करती हैं, और खुद के ऊपर हो रहे अत्त्याचार, अपनी दयनीय स्थिति को पिछले जन्म के कर्मों का फल समझती हैं। और जातियों की इस कुप्रथा को जाने-अनजाने ढोये चली जाती हैं। आपस में ही भेदभाव करने के कारण ये पीड़ित जातियां अपने ऊपर अत्त्याचार करने वाली जातियों के खिलाफ़ एक संगठित और मजबूत चुनौती नहीं दे पातीं। जिस दिन सफाई कर्मचारियों को, मैला साफ़ करने वालों को यह समझ में आ गया, कि वे जाति व्यवस्था की वजह से शोषित हैं, उस दिन वे खुद इस व्यवस्था से बाहर निकल आयेंगे, उनकी स्थिति बेहतर होना शुरू हो जायेगी, और यह जाति व्यवस्था खुदबखुद ढह जाएगी। 

फिर अकेले ब्राह्मण-बनिया-राजपूत इस दकियानूसी सोच वाली पाखंडी व्यवस्था को खत्म होने से नहीं बचा पायेंगे। बाबा साहेब ने कहा भी है कि गुलाम को गुलामी का एहसास करा दो, तो वो खुद-ब-खुद गुलामी की जंजीरें तोड़ देगा। इसका मतलब यह है कि सफाई कर्मचारी समुदाय की सबसे बड़ी ज़रूरत जाति व्यवस्था की मानसिक गुलामी से आज़ाद होने की है।

भंगी मतलब ब्राह्मणवादी व्यवस्था को भंग करने वाले 

‘मैं भंगी हूं’ के लेखक भगवान दास, भंगी शब्द का अर्थ भंग करने वाला बताते हैं। मतलब, किसी भी क्रूर-अमानवीय-पक्षपाती व्यवस्था या तरीके को भंग करने वाले। तो कह सकते हैं कि भंगी जाति जो डोम, डोमार, बासफोर, चूहड़ा, जो अलग-अलग क्षेत्रों में और भी नामों से जानी जाती है, अपने-अपने क्षेत्रों में उन्होंने ब्राह्मणवादी-मनुवादी-सामंती व्यवस्था को समय-समय पर न सिर्फ चुनौती देने का काम किया है, बल्कि उस व्यवस्था को भंग भी करती आयी हैं। अभी के समय में भी इस देश में मैला प्रथा और सफाई कर्मचारियों की समस्या का समाधान ब्राह्मणवादी व्यवस्था को भंग किये बिना नहीं मिलेगा।   

तो क्यों न हम एक बार और प्रण लें कि इस क्रूर व्यवस्था को भंग कर के ही दम लेंगे, जिसमें हमारी आज़ादी,  हमारे अधिकार, और हमारे बच्चों का सुंदर भविष्य बंद है। बहुत करी दूसरों की टट्टी साफ। बस, अब और नहीं करेंगे। नहीं जाएंगे सीवर और सेप्टिक टैंक में मौत को गले लगाने। नहीं जायेंगी हमारी माता, बहन, और पत्नी सुबह-सुबह दूसरों के घर उनकी टट्टी उठाने। नहीं मरेंगे अब हमारे बाप, भाई और पति दूसरो की टट्टी साफ करते हुए। नहीं खानी ऐसी रोटी जो दूसरो की टट्टी साफ करके मिलती हो। मेहनत करेंगे, मजदूरी करेंगे, एक रोटी कम खाएंगे, लेकिन इज्जत की खाएंगे। अपने बच्चो को पढ़ाएंगे। झाड़ू छोड़ेंगे, कलम पकड़ेंगे। बाबा साहेब ने भी कहा था “भंगी झाड़ू छोड़ो”।

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धम्म दर्शन निगम सामाजिक सरोकार के लेखक व् कवि हैं. हिंदी एवं अंग्रेजी में लिखते हैं. उनसे  ddnigam@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

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