अमित कुमार (Amit Kumar)
हिन्दू कोई धर्म नहीं है, कथित ज्ञाता सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा, इस पर कोई बवंडर नहीं मचा. हिन्दू कोई धर्म नहीं है, 1995 के प्रसिद्ध हिंदुत्ववाद में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा इस पर भी कोई हंगामा नहीं हुआ. हिन्दू कोई धर्म नहीं बल्कि एक संस्कृति है, वीर सावरकर ने कहा, तब सब जमूरों की तरह झूमने लगे. डॉ अम्बेडकर ने कहा हिन्दू कोई धर्म नहीं है हर तरफ धुआँ उठने लगा, क्यों ???
वास्तव में हिन्दू कोई धर्म नहीं है, बल्कि धर्म तो वर्णाश्रम धर्म है ये कुछ और नहीं असलियत में ब्राह्मण धर्म है.
सच यही है कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है. हिन्दू धर्म नाम का, ये जो प्रपंच भारत में व्याप्त है, वह दरअसल बहुजन संस्कृतियों की चोरी है. वास्तव में बहुजनों की संस्कृति ही हिन्दू धर्म के नाम पर दिखाई जाती है, पर उसके नाम पर धीरे-धीरे ब्राह्मण धर्म को उनकी ऊल-जलूल कहानियों के माध्यम से बहुजनों के मस्तिष्क में डाला जा रहा है.
आइये समझ लेते हैं ये तथाकथित हिन्दू धर्म की विशेषताएँ दरअसल ब्राह्मण धर्म की विशेषताएं नहीं हैं बल्कि बहुजन संस्कृतियों की विशेषताएं हैं जिनके नामों, प्रतीकों और संकेतों को चुरा तो लिया गया पर उनके उच्च नैतिक मूल्यों को नष्ट करके उनके नाम पर बस पाखंड चलाया गया. और इसका इस्तेमाल सत्ता, संसाधन और संपत्ति पर नियंत्रण के लिये किया जाता है.
चलिए थोड़ा विश्लेषण करते हैं
अहिंसा को भारतीय संस्कृति की विशेषता माना जाता है. कोई बताये कि जिस धर्म के प्रत्येक देवता के पास हथियार हों वह अहिंसात्मक धर्म कैसे हो सकता है? जबकि भारतीय संस्कृति अहिंसात्मक बताई जाती है. अहिंसात्मक प्रवृतियां मूलनिवासियों के प्राकृतिक धर्म/ जीवनशैली में पाई जाती हैं. ये बुद्ध के धम्म में पाई जाती है, जैन की शिक्षा में पाई जाती है.
भारतीय संस्कृति की विशेषता “सहिष्णुता” मानी जाती है पर जिस ब्राह्मण धर्म के अनुसार एक विशेष समाज के लोगों को ही बाँट दिया जाता हो, उनके छूने और उनकी परछाई भी उनकी हत्या का कारण बनती हो, वह सहिष्णु धर्म हो ही नहीं सकता. ब्राह्मण धर्म क्या है ये जानना हो तो यह समझना होगा कि कोई धर्म भ्रष्ट किस तरह से होता है? दरअसल ब्राह्मण धर्म समूचे तौर पर मुर्खतापूर्ण पवित्रता/शुद्धता (purity) बनाये रखने पर आधारित है. जबकि बुद्ध ने पूरी दुनिया में धम्म फैलाया बिना हथियार, और सबको अपनाया. ये सहिष्णुता है.
भारतीय संस्कृति की विशेषता बताई जाती है “धर्म की प्रधानता”. पर जिस ब्राह्मण धर्म में किसी इंसान की परछाई भी दूषित करने वाली मानी जाती रही हो, जहां स्त्री (विधवा) का दिख जाना ही अशुभ हो, जहाँ कन्या का पैदा होना भूर्णहत्या और बलात्कार करना मर्दानगी हो, जहाँ विधवा स्त्री को जला देना सतीत्व हो, ऐसे खोखले अनैतिक असभ्य धर्म की प्रधानता मानवता पर श्राप है. बहुजनों में तलाक और दूसरी शादी होती रहीं हैं.
भारतीय संस्कृति की विशेषता बताई जाती है “स्त्रियों का सम्मान”. पर ब्राह्मण धर्म में स्त्री सम्मान के नाम पर केवल पाखंड होते है. ब्राह्मणधर्म का पाखंड एक ओर कहता हैं कि स्त्री देवी है, वहीं दूसरी ओर घर से बाहर निकलते ही कुलटा (क्षमा कीजिये इस शब्द के इस्तेमाल के लियें) कहने लगते हैं. ऋग्वेद के देवता से लेकर बलात्कार की कहानियां भरी पड़ी हैं जहाँ देवता खुद बलात्कार करते हैं. स्वर्ग की कल्पना ही स्त्रियों के साथ नाचना गाना और सोमरस पीना बताया जाता है. देवदासी और नगरवधु मंदिरों का हिस्सा रहे हैं. फल और खीर खाने से बच्चे पैदा होते रहे हैं. नियोग होता रहा है. रामायण की कथा में खुद देवी होने के बावजूद सीता को जलने के लिये कह दिया जाता है अपना सतीत्व स्थापित करने के खातिर.. यही सती माता के नाम पर सतीत्व का पाखण्ड बहुत सारी औरतों की जान लील चुका है अब तक. बहुजनों की संस्कृति में महिला प्रधानता रही है. इंडस वैली मात्रसत्तात्मक थी, बहुजन महिलायें आज भी खेतों में जी तोड़ मेहनत करतीं हैं और अपने बच्चों और परिवार का पेट भरतीं हैं. पर ये अधिकार फुले, पेरियार, आंबेडकर से पहले द्विजों के यहाँ महिलाओं को नहीं था.
भारतीय संस्कृति की विशेषता बताई जाती है “अनेकता में एकता” जो कहीं नहीं दिखती. ब्राह्मण धर्म टिका ही लोगों को ऊंच-नीच में और जन्म आधारित शुद्धता एवं श्रेष्ठता के आधार पर बाँटने पर है. जबकि दुसरे पाले में ये बहुजन नायक थे जिन्होंने समाज को मानवता के पहलु से जोड़ा, न्याय को स्थापित करने के प्रयास किये और समाज को आगे ले जाने का मार्ग प्रशस्त किया. ऐसे उदाहरण खूब मिलेंगे चाहे बुद्ध हों जिन्होंने पूरे एशिया, को एक सूत्र में पिरो दिया, कबीर हो या रैदास, नामदेव या नानक, ये वे महापुरुष हैं जिन्होंने मानवता के मूल से समाज को एक सूत्र में बाँधने की कोशिश की.
(प्रतीकात्मक तस्वीर – साभार नेट दुनिया)
‘प्रकृतिवादी संस्कृति’ बहुजनों की है. अनुसूचित जनजाति बहुजनों की संस्कृति आज भी प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व पर टिकी है. और द्विज उद्योगपति हमारे जल, जंगल, ज़मीनों को तबाह करने पर तुले हुए हैं. बहुजन ही पृथ्वी और पारितंत्र के सच्चे रक्षक रहे हैं. द्विज उद्योगपतियों ने पूरा वातावरण दूषित कर दिया. सामूहिक बल्कि बहुजन नियंत्रण वाले इन प्राकृतिक संसाधनों के स्वघोषित श्रेष्ठ द्विज उद्योगपतियों के द्वारा दोहन से आर्थिक सम्पन्नता केवल कुछ बड़े उद्योगपतियों के हाथों में केन्द्रित हुई और बाकियों/ बहुजनों ने अपने जल, जंगल और ज़मीन भी खो दिए. बहुजन संसाधनों की इस लूट से उत्पन्न हुई पर्यावरणीय संकट में मुख्य रूप से बहुजन फंसते हैं, क्योंकि पर्यावरण को बर्बाद करने वाले तो अपने महलों में मिनरल बोतल का पानी पीते हैं; बहुजनों के श्रम और संसाधनों के दोहन और लूट से पैदा वायु प्रदूषण से ये जाति आतंकवादी खुद तो एयर-पुरिफायर लगाकर बच जाते हैं, लेकिन बहुजनों के पर्यावरण और इसलिये उनके स्वस्थ को तबाह कर जाते हैं.
भारतीय संस्कृति की विशेषता बताई जाती है “आध्यात्मिकता” और आध्यात्मिकता का सबसे सरल मतलब होता है, सत्य की खोज, मानवता और नैतिकता के लगातार नए सिद्धांतों की ख़ोज जिनके आधार पर किसी समय के तात्कालिक समाजों में मानवता का प्रचार प्रसार किया जा सके. लेकिन ब्राह्मण धर्म आध्यात्मिकता के नाम पर अतार्किकता, अज्ञान और केवल पाखंड बेचकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है. आज भी साफ़ दिखता है कैसे घंटोले बाबा अध्यात्म के नाम पर व्यापार चला रहे हैं. कभी किसानों की बढ़ती आत्महत्या का कारण उनकी आध्यात्मिकता में आई कमी को बता देते हैं. धर्म और अध्यात्म के नाम पर नफरत फैलाकर बहुजनों को फंसाया जाता है, और सत्ता हड़प ली जाती है फिर इसके जरिये संपत्ति और श्रम भी मुठ्ठी भर लोगों की गुलाम बन जाती है. और इस व्यवस्था को बचाने के लिये हर प्रकार का आडम्बर रचा जाता है इसके लिये किसी भी चीज़ का प्रयोग होता है धर्म हो या संचार माध्यम. और इनके माध्यम से बड़े पैमाने पर जनता को अलौकिक और मूर्खता में फंसाया दिया जाता है.
इसके उलट बहुजनों की आध्यात्मिकता नैतिकता आधारित है; समुदायों, प्रकृति एवं प्राणी से प्रेम एवं सहअस्तित्व पर आधारित है. ये श्रमणों की श्रम आधारित और इस लौकिक दुनिया में एक दूसरे के साथ जीने के लिये आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु नवीन खोजों पर आधारित है जो इसमें सदैव गतिशीलता और निरंतरता लाती है जबकि इसके बरक्स ब्राह्मण धर्म, वेदों और धर्मसूत्रों में सब कुछ खोज लिए जाने का दावा करता है; और ब्राह्मण धर्म अतार्किक, अलौकिक, आत्मा, ईश्वर, पुनर्जन्म, भाग्य आदि मूर्खता में फंसा के सनातन मूर्खता को स्थाई बनाए रखने पर टिका है. और याद रखिये बहुजनों की संस्कृति की इसी विशेषता अर्थात “गतिशीलता और निरंतरता” को तथाकथित हिन्दू धर्म की विशेषता बताकर ब्राह्मण धर्म इसे भी पाखंड में बदल देता है. अब या तो गतिशीलता हो सकती है या सनातन स्थाईत्व.
ये बहुजनों की गतिशीलता और निरंतरता थी कि यहाँ बुद्ध, रैदास, कबीर, नानक, नामदेव, तुकाराम, ज्योतिबा फुले, पेरियार, डॉ आंबेडकर आदि महापुरुष निरंतर मानव समाज के कल्याण के लिये नए आयाम गढ़ते हैं और शिक्षा, मानवता, एकता, बंधुत्व, व्यक्ति की गरिमा, नारी उत्थान जैसे मूल्यों के लिये खड़े होते हैं और ज़िन्दगी भर इनके लिये लड़ते हैं.
बहुजनों की अपनी ख़ुद की कल्चरल/सांस्कृतिक विरासत बेहद सम्रद्ध रही है. बल्कि भारतीय संस्कृति में उपस्थित उच्च मानव मूल्य ब्राह्मण धर्म के नहीं हैं बल्कि बहुजनों की संस्कृतियों से चुराए गए हैं. हिन्दू तो बस एक भौगोलिक पहचान थी. और इस भौगोलिक पहचान के साथ जुडी सांस्कृतिक पहचान वास्तव में बहुजनों की संस्कृति की है.
लेकिन ब्राह्मणधर्म ने, जैसा कि मैंने पहले कहा, उन मूल्यों, उनके साथ जुड़े संकेतों और उत्सवों को बहुजन संस्कृतियों से चोरी किया फिर बहुजन संस्कृतियों को ही ब्राह्मणधर्म से निकली संस्कृति बताकर झूठी कहानियों के द्वारा उन्हें निगल लिया।
ब्राह्मण धर्म ने भारतीय संस्कृतियों के प्रतीकों और संकेतों, महापुरुषों, त्योहारों, देवताओं के नाम तो चोरी करके रख लिए (जैसे हमारी आँखों के सामने डॉ अम्बेडकर को हड़पने की कोशिशें चल रहीं हैं). लेकिन बहुजनों की संस्कृति में पहले से विद्यमान सहिष्णुता, प्रकृतिवाद, प्रेम, तर्क, मानव मात्र की भलाई, परोपकार, अहिंसा, आदि बहुजन संस्कृतियों से लिए गए मूल्यों को अंदर से नष्ट करना शुरू कर दिया जाता है, जैसे हमारी आँखों के सामने संविधान को अपनाने का पाखंड रचके, संविधान को ही अंदर से खोखला करना शुरू कर दिया गया है; और लोकतंत्र के नाम पर ही लोकतंत्र की मर्यादाओं, संस्थाओं और मूल्यों को बुरी तरह से कुचलना भी शुरू कर दिया गया है।
समस्या कोई व्यक्ति विशेष नहीं बल्कि असली समस्या ये ब्राह्मण धर्म की व्यवस्था है. और ब्राह्मण धर्म के इस रोग की चपेट में बहुजन आबादी भी अच्छी खासी फंसी है.
ब्राह्मण धर्म आपके (बहुजनों) दिमाग पर काबू करके स्वयं को सुरक्षित रखता है और फलता फूलता है. इसलिये जो सबसे पहले करने योग्य काम है वह है खुद को मुक्त करना और अपने परिवार और साथियों में भी ज्यादा से ज्यादा लोगों को इस रोग से मुक्त होने में पूरी ज़िम्मेदारी के साथ मदद करना. वरना ये संक्रामक रोग की तरह सबको अपनी चपेट में ले लेगा फिर इसको ख़त्म करना असंभव होगा.
द्विजों को भी इस रोग से मुक्ति मिलनी चाहिए कि नहीं? दरअसल हमारी तरह वे भी इस रोग का शिकार हैं. फर्क ये है कि ब्राह्मण और पार्टनर जातियां बहुजनों को गरिमापूर्ण, उन्हें उनके अधिकारों के साथ जीने नहीं देते. और दूसरी तरफ इस तरह अपनी सम्पूर्ण सवर्ण बिरादरी को अमानवीयता से कलंकित करती हैं. सवर्णों को ज़िन्दगी को जीने के मानवीय सलीके से वंचित करना भी अपराध है जो उन्हीं के लोग कर रहे हैं. दरअसल, कुदरती तौर पर द्विजों का भी ये हक़ है कि अतार्किकता, पाखंड, अनैतिकता और मूर्खता से बाहर निकलने का. और इसमें बहुजनों को पूरी मदद करनी चाहिए.
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अमित कुमार एक सामाजिक कार्यकर्ता व् स्वतंत्र लेखक; और एक सार्वजनिक संगठन में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े कर्मचारी संघ के सक्रिय सदस्य हैं.
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