डॉ सूर्या बाली “सूरज धुर्वे” (Dr. Suraj Bali ‘Suraj Dhurve’)
कोया-पुनेमी संस्कृति में प्रकृति को सर्वोच्च माना गया है और मानव को प्रकृति के साथ समंजस्य बनाकर जीवन जीने की बात कही जाती है. प्रत्येक मानव प्रकृति की समझ के बिना अपूर्ण, अज्ञानी और अपरिपक्व होता है जो प्रकृति के सानिध्य में रहकर समय के साथ पूर्ण, ज्ञानी और परिपक्व बनता है. मानव प्रकृति के अनुसार ही अपने तीज-त्योहार भी मनाता है. मूलतः प्रारम्भिक मानव जीवन कृषि पर आधारित था इसलिए उसके हर तीज-त्योहार कृषि के साथ-साथ चलते हैं. मानव विकास के क्रम में अपनी प्राचीन परम्पराओं और रीतियों से आज भी जुड़ा हुआ है. यही कारण हैं कि वह अपने तीज त्योहारों को आज भी मानता और मनाता आ रहा है, भले ही वह कृषि और पशुपालन से दूर हो गया हो.
कोया-पुनेमी संस्कृति के हार में पाबुन-पंडुम (एक तीज-त्योहार) बेशकीमती मोती की तरह है जिनके बिना खुशहाल मानव जीवन की कल्पना करना नामुमकिन है. कोया पुनेमी संस्कृति में कृष्ण पक्ष/अधियारी और अमावस्या के दिनों में मनाए जाने वाले त्योहारों को पंडुम और शुक्ल पक्ष/उजियारी और पूर्णिमा के दिन मनाए जाने वाले त्योहारों को पाबुन कहते हैं. अगर कोया पुनेमी संस्कृति को समझना है तो उसकी भाषा के साथ-साथ कोइतूरों द्वारा मनाए जाने वाले पाबुन और पंडुम को भी गहराई से समझना होगा. कोइतूर समाज अपने पूर्वजों की गौरवशाली सांस्कृतिक परंपरा और धार्मिक विरासत को इन्ही त्योहारों (पाबुन/पंडुम) के माध्यम से सँजो कर रखता है और उसे एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में सतत हस्तांतरित करता रहता है. यही कारण है कि इतने हजारों सालों के बाद भी कोइतूरों की गौरवशाली कोया पुनेमी संस्कृति के तीज त्योहार आज भी जीवित है और आज भी बड़े हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं.
भारतीय संस्कृति में पर्वों और त्योहारों का विशेष स्थान है. आज भी प्राचीन कोइतूर परम्पराओं में कोया पुनेमी संस्कृति का व्यापक असर देखा जा सकता है. इतने बड़े स्तर पर मनाए जाने वाले इन तीज त्योहारों के बारे में तथाकथित मुख्यधारा की मीडिया और साहित्यकारों द्वारा भी कोई चर्चा नहीं होती है और न ही इनका प्रचार प्रसार किया जाता है. कोया पुनेमी संस्कृति को त्यौहारों की संस्कृति कहना गलत नहीं होगा. साल भर कोई न कोई पाबुन या पंडुम चलता ही रहता है. हर ॠतु में, हर महीने में कम से कम एक प्रमुख पाबुन या पंडुम अवश्य मनाया जाता है.
जंगो लिंगो का भीना और सेमल का पौधा
जंगो लिंगो लाठी गोंगों पुनेमी पाबुन कोइतूर संस्कृति का बहुत ही महत्त्वपूर्ण पाबुन (पर्व) है. यह पाबुन येरोमान (अश्विन या क्वार) माह में उजियारी पक्ष के दशमी के दिन मनाया जाता है. जंगो लिंगो लाठी गोंगो भी एक ऐसा ही कोयापुनेमी पाबुन है जिसमें दो पूज्यनीय कोया पुनेमी शक्तियों के सम्मान दिवस के रूप में मनाया जाता है क्यूंकि इन दो महान विभूतियों ने कोइतूरों के प्राकृतिक जीवन यापन की महत्त्वपूर्ण व्यवस्थाएँ दी थीं.
पहली शक्ति के रूप सगा पाड़ी व्यवस्था देने वाले पारी पहान्दी कुपार लिंगो (लिंगो बाबा) और मडमिंग और परिवार की व्यवस्था को स्थापित करने वाली रायताड़ जंगों (जंगों दाई) को याद करते हैं और उन दोनों का सम्मान करते हैं और उनके द्वारा कोइतूर समाज के हित में किए गए कार्यों के लिए आदर और सम्मान के साथ कृतज्ञता भी व्यक्त करते हैं. इन दोनों के बताए गए व्यवस्था के अनुसार ही हम अपने जीवन को सफलता पूर्वक व्यतीत करते हैं और अपने और प्रकृति के बीच सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं(मरई, 2015).
कोया पुनेमी पौराणिक कथाओं के अनुसार बाबा लिंगो को महान मुठवापोय(धर्म गुरु) माना जाता है. इसके अनुसार बाबा पारी पहनदी कुपार लिंगों ने अपने 33 शिष्यों के द्वारा पूरे कोया मूरी दीप में कोया पुनेम का प्रचार और प्रसार किया था(कंगाली, 2011). येरोमान (अश्विन माह) में परेवा से नवमी तक बाबा पारी पहान्दी कुपार लिंगो ने अपने शिष्यों को संस्कारित करके बहुत सारे मिजानों(व्यवस्थाओं) की शिक्षा देकर तैयार किया था और लांजी डूमा (लांजीगढ़, बालाघाट) में कोइतूरों को गण व्यवस्था के अनुसार बांटकर पाड़ी व्यवस्था की शुरुवात की थी और कोया पुनेम के प्रचार प्रसार के लिए अपने शिक्षित और संस्कारित शिष्यों को कोया पुनेम के प्रचार प्रसार के लिए दसों दिशाओं में भेजा था(बाली , 2019).
सगा पाड़ियों द्वारा जंगो लिंगो लाठी गोंगों कार्यक्रम
रायताड़ जंगों ने विधवा, परित्यक्ता, लाचार महिलाओं और युवतियों के साथ साथ अनाथ बच्चों के लिए अनाथ आश्रम की व्यवस्था की थी और उन्ही के प्रयासों से कोइतूरों में शादी विवाह और शिशु पालन पोषण की व्यवस्थाएँ दी गयी थीं. कोया पुनेमी गीतों और कहानियों में ऐसा कहा जाता है कि जंगों दाई नें शादी विवाह कि व्यवस्था कैसे की जाये इस बात कि जानकारी सर्व प्रथम दी थी. अश्विन(क्वार महीना) के उजियारी परेवा से नवमी (नौ दिन) तक जवारे बोने का कार्यक्रम सम्पन्न किया जाता है जिसके द्वारा बड़ी बूढ़ी महिलाओं द्वारा युवतियों को शादी विवाह और उसके बाद मातृत्व की शिक्षा दी जाती है(बाली, 2020). जंगों लिंगो लाठी गोंगों में दूसरी पूज्यनीया शक्ति जंगों दाई का सम्मान किया जाता है.
इस पर्व में लाठी का तात्पर्य नए हरे बांस के डंडे से है जिसके एक सिरे पर मोर पंख को बांध कर जंगों और लिंगो का प्रतीक चिन्ह तैयार किया जाता है. गोंगों शब्द से मतलब इन दोनों शक्तियों को उनके प्रतीक चिन्हों में आह्वान करके उनकी पूजा आराधना करना होता है. यह पूरा पर्व जंगों लिंगो शक्तियों के प्रतीक को सम्मान पूर्वक आराधना करने का है जो कि धान की फसल के पकने पर मनाया जाता है.
जंगो लिंगो लाठी गोंगों में जंगों लिंगो के प्रतीक के रूप में लाठी पर मोर पंख का पौहवा
भारत कृषि प्रधान देश है और पूरे घर परिवार में नए रिश्ते नातों की शुरुवात धान की अच्छी फसल के आधार पर ही तय की जाती है. अगर खेतों में धान की अच्छी फसल होती है तो परिवार वाले शादी योग्य जवान लड़के-लड़कियों के लिए रिश्ते ढूढ़ने शुरू कर देते हैं. कोइतूरों में आज भी वर और कन्या पक्ष के लोग मड़ई के मेले में मिलते हैं और अपने अपने जवान लड़के लड़कियों के रिश्ते अपने सगा समाज के सामने रखते हैं. परिवार अपने जवान लड़के लड़कियों के साथ सपरिवार जंगों दाई के झंडे के साथ मड़ई के मेले में जाते हैं.
इसलिए ‘दशहरा’ के बाद जब लड़कियों को पूर्ण रूप से पारिवारिक शिक्षा दे दी जाती है तब वे मड़ई की रस्म में जाने के लिए तैयार हो जाती हैं. दस दिन की शिक्षा के बाद लड़कियां घर परिवार की व्यवस्था संभालने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो जाती हैं. जंगों दाई ने जवारे बोने की व्यवस्था द्वारा अपने अनाथाश्रम की लड़कियों को मातृत्व\ के लिए तैयार किया था इसीलिए नरुङ्ग्माय जवारा पाबुन के बाद दशवें दिन जंगो लिंगो लाठी गोंगों पाबुन मनाया जाता है.
कोइतूर समाज अश्विन मास के उजियारी पक्ष के दसवें दिन मनाए जाने वाले दशहरा त्योहार को राम और रावण से जोड़ कर नहीं देखता बल्कि जंगों लिंगो के सम्मान के तौर पर मनाता है. कोइतूर संस्कृति में दसहरा का बिलकुल अलग मतलब है जो हिन्दू संस्कृति के उलट है. नौ दिन की गहन शिक्षा और संस्कार के बाद शिष्यों को दसवें दिन दसों दिशाओं में भेजने के कारण ही इस दिन को पदहर्री /दससर्री / दसहर्री कहते थे. गोंडी भाषा में दस को पद या दह कहते हैं और रास्ते को सर्री या हर्री कहते हैं. चूंकि बाबा लिंगो और जंगो द्वारा और शिक्षित शिष्य शिष्याएँ दसों दिशाओं में गए थे इसलिए इस दिन को दहसर्री कहते थे जो बाद में दहसर्रा हो गया और धीरे धीरे दहसरा में बदल गया जिसका बिगड़ा हुआ रूप दशहरा/ दशेरा है(बाली , 2019)
लिंगो का आगा
लिंगो द्वारा सगा-पाड़ी व्यवस्था, गोटुल (शिक्षा केंद्र) की व्यवस्था, वाद्य यंत्रों की खोज, नेंगी (व्यवस्थापक) की व्यवस्था, टोंडा, मंडा और कुंडा की संस्कार व्यवस्था(जन्म, विवाह और मृत्यु के संस्कार), पेनकड़ा (देवस्थान) की व्यवस्था, मुठवा की व्यवस्था, कोया पुनेम दर्शन व मुंजोक दर्शन (अहिंसा का सिद्धान्त) जैसी अन्य व्यवस्थाएँ दी गयी है(कंगाली, 2011). रायताड़ जंगो नें महिलाओं के लिए बेहतरीन व्यवस्था दी, बाल विवाह पर पाबंदी, मातृत्व संकार, विधवा पुनर्विवाह, महिला शिक्षा और स्वतन्त्रता की व्यवस्था, बाल और महिला आश्रमों की शुरुवात जैसी अनेकों व्यवस्थाएँ दी जो मानव कल्याण के लिए जरूरी है. उनकी क्रांतिकारी सोच और कार्य के लिए उन्हे जंगो बाई या जंगो दाई भी कहते हैं. गोंडी में जंगोम का मतलब क्रांति (revolution) होता है. मड़ई की सुप्रसिद्ध व्यवस्था इन्ही दोनों की देन हैं(कड़ोपे, 2018).
इसलिए हम दशहरे के दिन इन दो महान विभूतियों का आह्वान करते हैं और उनका गोंगों (आराधना पूजा) करके उनके प्रति सम्मान और कृतज्ञता व्यक्त करते हैं. पूरा कोया विडार इन दो महान विभूतियों का सदैव ऋणी रहेगा क्यूंकी इन्होने ही हमारे जीवन को सुचारु रूप से चलाने ले लिए उत्तम व्यवस्थाएँ दी और सत्य का मार्ग बताया.
बांस की लाठी में मोर पंख बांध कर कोप्पार ढाल (पौहवा) तैयार किए जाते हैं जो जंगो और लिंगो के प्रतीक होते हैं. लिंगो के पौहवा में मोर पंख ऊपर की ओर होते हैं जबकि जंगो के पौहवा में मोर पंख की दिशा नीचे की ओर होती हैं. सेमल के पेड़ के नीचे एक भीना (ऊंचा पूजास्थल ) बनाया जाता है जहां पर जंगो लिंगो के पौहवे की स्थापना करके उनका गोंगो सम्पन्न किया जाता है. वहाँ से गोंगो सम्पन्न करने के बाद गाजे बाजे के साथ दोनों पौहवों को उठा कर भूमका और सभी सगाजन उन्हे पूरे गाँव में प्रत्येक घर से होते हुए फेरी लगते हैं जहां पर जंगों लिंगो अपनी बनाई गयी व्यवस्था में रहते हुए कोइतूरों को देखते हैं और उनको आशीर्वाद देते हैं.
लिंगो का आगा
इसी लिंगो की ढाल को अन्यत्र स्थानों पर आगा पेन या लिंगो का आँगा या जंघा पेन के नाम से जानते हैं और जंगों को चंडी माई की पताका, चंडी की ढाल या जंगों दाई की ध्वजा, जंगों की डोली के नाम से जानते हैं. छत्तीसगढ़ में आगा और डोली को क्रमश: लिंगो और जंगों के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है और उनकी यात्राएं (जतरा) निकाली जाती हैं. लिंगो के आगा पेन को ओड़ीशा में जंघा देव के नाम से जाना जाता है. दसहरा के दिन इन्हीं आँगा पेन की शोभा यात्रा निकली जाती है जिसे रथ यात्रा या देव यात्रा का नाम दिया जाता है. ओड़ीशा और बस्तर की रथ यात्रा इसी जंगों लिंगो लाठी गोंगो पाबुन के परिवर्तित रूप हैं जो आज भी बड़े धूम धाम से मनाए जाते हैं.
जंगो लिंगो लाठी गोंगों एवं सांस्कृतिक समूह
मध्य भारत विशेषकर मध्य प्रदश के बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा, बेतुल जिलों में आज भी जंगों लिंगो की ढाल लेकर शोभा यात्रा निकली जाती है. पूरे गाँव (नार) के फेरे लगाने के बाद वापस जंगो लिंगो की कोप्पार ढालों (पौहवों) को वापस सेमल के नीचे बने भीना में ले आते हैं और उनका सारना गोंगों (विदाई पूजा) करके जंगो लिंगो लाठी गोंगों कार्यक्रम को सम्पन्न करते हैं. और सभी को महुआ का प्रसाद दिया जाता है.इस अवसर पर बहुत सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं जिसमें सभी कोइतूर अपने गायन, वादन और नृत्य का प्रदर्शन करते हैं और आनंदित होते हैं.
कोया पुनेमी तीज-त्योहार सदियों से वैज्ञानिक कसौटी पर परखे हुए सामाजिक क्रिया कलाप रहे हैं. इन पाबुन और पंडुमों में किसी ना किसी महान घटना का, या किसी महान व्यक्तित्व का या किसी विशेष काल खंड का सम्मान होता है. समान्यतया ये घटनाएँ, व्यक्ति, समय और स्थान जिनके लिए हम त्योहार मानते हैं वो कृषि व्यवस्था से जुड़ी हुई होती हैं. इन तीज त्योहारों में समाज कृषि या प्रकृति पर आधारित घटनाओं को एक उत्सव के रूप में मानता है. पूरा समाज इसे नाच, गायन, वादन के साथ पूर्ण करता है जिससे समाज के बच्चों में पुरानी पीढ़ी की सांस्कृतिक परम्पराएँ और विरासतें समय के साथ साथ अपने आप हस्तांतरित हो जाएँ.
जैसे जैसे हमारा कोइतूर समाज पढ़-लिख कर आगे बढ़ा और अपने गाँव और जंगलों से निकलकर शहरों तक आया वह अन्य कई संस्कृतियों के संपर्क में आ गया. इन बाहरी संस्कृतियाँ के दिखाये और तड़क भड़क में आकर कोइतूर अपनी सादगीपूर्ण मूल कोया पुनेमी संस्कृति से दूर होते गए. धीरे-धीरे आयातित अप्राकृतिक संस्कृतियों के प्रभाव में आकर वे अपनी मूल संस्कृति के प्रति उदासीन हो गए जिससे उनकी आधुनिक पीढ़िया अपनी संस्कृति को गया गुजरा और बेकार समझ कर हीनता के बोझ में दब गईं.
जंगो लिंगो लाठी गोंगों एवं सांस्कृतिक समारोह
सभी कोइतूरों को पता होना चाहिए कि इस पाबुन का राम और रावण से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है ये पूर्ण रूपेण कोया पुनेमी पाबुन है जो कोइतूर संस्कृति की महान व्यवस्थाओं के सम्मान में मनाया जाता है. ऐसी सुंदर व्यवस्था पूरी दुनिया में अन्यत्र कहीं नहीं मिलती है जिसमें प्रकृति के साथ मानव जीवन को शिक्षित और संस्कारित करने का प्रविधान हो . इसलिए सभी कोइतूरों को अपनी कोया पुनेमी संस्कृति पर आधारित तीज त्योहारों को गर्व के साथ धूमधाम से मानना चाहिए और बनावटी अप्राकृतिक, आडंबर पूर्ण, कर्मकांडों वाले त्योहारों से दूर रहना चाहिए.
आइये! आज हम सभी प्रकृति का सम्मान करते हुए सभी मानव के कल्याण की कामना करें और दसों दिशाओं में जंगों लिंगो के किए गए सुकार्यों को प्रचारित और प्रसारित करें .
आज हमें अपनी कोया पुनेमी संस्कृति को अगली पीढ़ी को सजाकर सँवारकर हस्तांतरित करना है अगर हम अपने पाबुन और पंडुमों को नही मनाएंगे तो यकीन मानिए, एक दिन हमारी संस्कृति और भाषा दोनों खत्म हो जाएंगे और जब भी किसी समाज की संस्कृति और भाषा खत्म हो जाती है तो वह समाज स्वतः खत्म हो जाता है. इस अवसर पर मैं पूरे कोइतूर समाज को बहुत-बहुत हार्दिक बधाइयां और शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ और जंगों दाई और लिंगो बाबा से प्रार्थना करता हूं कि समस्त कोइतूर समाज को कष्ट और पीड़ा से निकालकर सुखी समृद्ध और स्वस्थ जीवन प्रदान करें. सभी सगा पाड़ियों को सेवा सेवा सेवा जोहार!!
संदर्भ सूची
- कंगाली, मोती रावण. (2011). पारी कुपार लिंगो गोंडी पुनेम दर्शन (चतुर्थ संस्करण, Vol. 1). चन्द्रलेखा कंगाली जयतला रोड, नागपुर 440022.
- कड़ोपे, जयपाल सिंह. (2018). जंगों लिंगो लाठी गोंगों पुनेम पाबुन एक परिचय व वर्तमान समय (जंगों लिंगो लाठी गोंगों 2018 की सांस्कृतिक रिपोर्ट 2; कोया पुनेमी स्मारिका , सारोमान पूनो 2018, pp. 19–20). सगा सग्गुम आदिम सामाजिक संस्था.
- बाली ,सूर्या. (2019). कोया पुनेमी व्यवस्था कोइतूर संस्कृति का महान पर्व जंगों लिंगो लाठी गोंगों. सगा सग्गुम आदिम सामाजिक संस्था भोपाल, 1(3), 27–30.
- बाली ,सूर्या. (2020). करम पर्व: प्राकृतिक दर्शन और सामुदायिक सहभागिता का महापर्व. राउंड टेबल इंडिया – Round Table India. https://hindi.roundtableindia.co.in/?p=9982
- मरई, कोमल सिंह. (2015). नर -मादा के घाटी-माटी की महा-गाथा. गोंडवाना दर्शन, 30(5), 20–21.
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डॉ सूर्या बाली “सूरज धूर्वे” अंतर्राष्ट्रीय कोया पुनेमी चिंतनकार और कोइतूर विचारक हैं. पेशे से वे AIIMS (भोपाल) में प्रोफेसर हैं. उनसे drsuryabali@gmail.com ईमेल पर संपर्क किया जा सकता है.
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