दीपक मेवाती ‘वाल्मीकि’ (Deepak Mevati ‘Valmiki’)
मैं भी प्यार मोहब्बत लिखता
लिखता मैं भी प्रेम दुलार
लिखता यौवन की अंगड़ाई
लिखता रूठ और मनुहार
लिखता प्रकृति की भाषा
लिखता दुश्मन का मैं वार
लिखता फूलों की मादकता
लिखता नभमंडल के पार।
पर नहीं सोच पाता है मन
कुछ उससे आगे पार लिखूं
सुरक्षित जीवन सबका हो जिससे
बस उसका जीवन सार लिखूं।
जहाँ की सोच लग जाता है
कपड़ा सबकी नाक पर
जिसने जीवन रखा है अपना
सबकी खातिर ताक पर
जो झेले हर-दम दुत्कारा
सबकुछ करते रहने पर
नहीं तनिक अफ़सोस किसी को
उसके मरते रहने पर।
ठेकेदारी प्रथा में देखो
ठेका देह का वो करता है
सीवर में उतरे बेझिझक
और नहीं किसी से डरता है
नहीं किसी से डरता है
और न प्रवाह मर जाने की
खुद से ज्यादा सोचता है वो
इस बेदर्द जमाने की।
इस बेदर्द जमाने की
हर बार निराली होती है
न्याय-प्रणाली रसूखदार के
दरवज्जे पर सोती है।
औजार देह को बना लिया है
बदबू-गंदगी सहता है
साफ़-सुथरी जगह नहीं वह
जिस बस्ती में रहता है।
नहीं कभी कुछ कहता है
हर पल उत्पीड़न सहता है
नहीं मौत की कीमत उसकी
लहू पानी मानिंद बहता है।
कभी भंगी, कभी चूहड़ा कहा
कभी मेहतर, कभी डोम-डुमार
वाल्मीकि नाम दिया मिलने को
फिर भी करते अलग व्यवहार।
समाज में सम्मान का वो
हर पल खोजी रहता है
बाबा, मय्या के द्वारे पर
हर-दम जाता रहता है।
मंदिर-मस्जिद नहीं छोड़े
न गुरद्वारे से दूर रहा
नहीं मिला सम्मान कहीं भी
धर्म-परिवर्तन की ओर बढ़ा।
सरकार ने नीति बना रखी है
पर धरातल पर काम नहीं
जितना काम करता है वो
उसका भी सही दाम नहीं।
जाने कब वो घड़ी आएगी
जाने कैसा पल होगा
जब मान मिलेगा इस सैनिक को
जाने कब वो कल होगा
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