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गुरिंदर आज़ाद (Gurinder Azad)

ब्राह्मणवाद से आक्रामक रूप से निपटने की सबसे अमीर विरासत अगर किसी ने बनाई है तो वह हैं हम सबके पेरियार साहेब. उनका पूरा नाम था- इरोड वेंकटप्पा रामासामी नायकर. पेरियार का अर्थ है ‘एक महान व्यक्ति’. बहुजन युवा आज सोशल मीडिया पर अपनी आक्रामकता और बेचैनी को उनके कथनों को साझा करके अभिव्यक्त करते हैं, और आन्दोलन में आगे बढ़ने के लिए दम लगाते हैं. बहुजनों को कुछ ऐसी विशेष ऊर्जा देने वाले और ‘द्रविड़ आन्दोलन के पिता’ के रूप में प्रख्यात पेरियार साहेब का जन्म 17 सितम्बर 1879 को तमिलनाडु के इरोड (आजकल जिला) में हुआ.

चलिए पेरियार साहेब को कुछ विशेष घटनाओं के माध्यम से जानते हैं.

पेरियार साहेब को लगा कांग्रेस बढ़िया काम कर रही है, सो उन्होंने 1919 में अपने समाज के लिए काम करने की राजनीतिक रूप में शुरुआत कांग्रेस से की. लेकिन एक साल बीतते बीतते ये आशा भ्रम बनकर टूट गई. कांग्रेस के एक कार्यक्रम में उन्होंने पाया यहाँ तो हर तरफ सवर्ण लोग छाए हुए हैं. 98 फ़ीसदी से भी अधिक सवर्ण स्टेज संभाले हुए भारत के भविष्य की बात कर रहे थे. वे गुस्सा हो गए. उन्होंने बहुजनों का अपना अलग डेलिगेट बना लिया, और अपना अलग समानांतर सेशन चलाया. उन्हें कांग्रेस के द्वारा मनाया गया. वे कांग्रेस को एक और मौका देना चाहते होंगे शायद, सो कांग्रेस में रुक गए.

1922 में उन्हें मद्रास प्रेसीडेंसी कांग्रेस कमिटी का प्रधान बनाया गया. उन्होंने नौकरियों और शिक्षा में कमज़ोर बना दी गई जातियों के लिए आरक्षण की मांग रख दी, लेकिन स्पष्ट कारणों से विफल हो गए. कांग्रेस के बारे में उन्होंने सारांश दिया- यह एक नंबर की घमंडी जमात है.

1925 में वे कांग्रेस से निकल आये और अपना कार्यक्रम दिया ‘सेल्फ-रेस्पेक्ट मूवमेंट’ के नाम से. इसके पीछे विशेष कारण था. दरअसल, गाँधी कांग्रेस में बड़े तौर पर स्वीकार हुए थे. वे दलितों, जिन्हें वो हरिजन कहते थे, एक तरह से एहसान के फोर्मुले पर उन्हें लुभाने की कोशिश में थे. भोले बहुजन उनके बहकावे में आ भी रहे थे. पेरियार भेदभाव के मूल को जान चुके थे. उन्हें गांधी के पैंतरे अखरने लगे. दरअसल हुआ कुछ यूं था. 1923 की बात है. काकीनाडा (आंध्र प्रदेश में पूर्वी गोदावरी के पास) में कांग्रेस की एक बैठक थी जहाँ केरला में दबाई गई जातियों के साथ भेदभाव की रिपोर्ट को प्रसारित किया गया. इसके चलते ही केरला में एक कमिटी का गठन किया गया था. मामला था आन्दोलन करने का जिसके चलते मंदिरों में, दमित जातियों के दाखिले और साथ में सार्वजानिक रास्तों पर उनके आने-जाने का अधिकार मिले.

आन्दोलन शुरू हो गया. आन्दोलनकारियों को पंजाब के अकालियों (अकाली दल) ने लंगर लगाकर अपनी एकजुटता भेंट में दी. इस बात से पता चलता है कि इस आन्दोलन की चर्चा दूर दूर तक थी. पेरियार इसमें सक्रिय थे. लेकिन गाँधी महोदय आये और आकर इसे स्थगित कर दिया. उनका मानना था कि यह हिन्दुओं का आंतरिक मामला है. आन्दोलनकारीयों ने इसे स्वीकार नहीं किया. आन्दोलन चला और गिरफ्तारियां हुईं. पेरियार साहेब भी गिरफ्तार हुए. आन्दोलन चलने से लेकर गिरफ्तारियों तक आते आते अगला साल (1924) भी आधा बीतने को था. ये पेरियार साहेब के लिए गाँधी को अपने जीवन से बातचीत तक को ‘स्थगित’ कर देने का ये आखिरी मौका साबित हुआ. सो, सेल्फ-रेस्पेक्ट मूवमेंट इसका न केवल ठोस प्रैक्टिकल जवाब था बल्कि इसमें बहुजन नज़रिए से सोचने का एक अपना कोण भी था.

जिस तरह पेरियार साहेब के जन्म के 55 साल बाद पैदा हुए कांशी राम जी को, बहुजन समाज को जोड़ते जोड़ते एक राजनीतिक पार्टी बनाने की ठोस ज़रुरत महसूस हुई, उसी तरह पेरियार साहेब को भी 1926 में महसूस हुआ कि अब एक राजनीतिक पार्टी बनाई चाहिए. हर तरफ अपने समाज को लेकर अन्याय का बोलबाला था तो उन्होंने पार्टी का नाम रखा- जस्टिस पार्टी. 1928 में चुनाव हुए और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों के साथ मिलकर जस्टिस पार्टी सत्ता में आ गई. मात्र दो वर्षों में सत्ता में आना ये इशारा करता है कि वे अपने लोगों के बीच कितना रहते रहे और काम करते रहे. सत्ता हासिल होते ही पास किया गया आरक्षण का पहला बिल!! कमज़ोर जातियों को हर स्तर पर आरक्षण का प्रावधान!!

कांग्रेस की ब्राह्मणी-बुद्धि में आग लग गई. उन्होंने तर्क दिया- यह बिल भारत की अखंडता की जड़ों में तेल डालने का काम करेगा; और यह बिल बर्तानवी हुक्मरानों की शह पर हो रहा है. जस्टिस पार्टी गोरों की एजेंट है… इस तरह पेरियार साहेब के खिलाफ कांग्रेस में बैठे ब्राह्मणों ने आख्यान दिया- ये बरतानवी सरकार के दलाल हैं.

पेरियार साहेब के लिए यह असहनीय था. वे जवाब देने में माहिर थे. आप बाखूबी जानते हैं उन्होंने खुद को श्रेष्ठ समझने वाली जाति के लिए क्या क्या न कहा- अगर ब्राह्मण और सांप एक साथ दिखाई दें तो पहले…. खैर.

1932 में पेरियार साहेब सोविअत यूनियन गए. समाजवादी सरकार के कार्यों से प्रभावित हो गए और समाजवादी हो गए. भारत लौटे और वाम पंथियों की संगत की. 1934 में हुए चुनावों ने उनका भ्रम तोड़ दिया कि भारत के वामी सच में समाजवादी हैं. हुआ ये कि कांग्रेस तो थी ही पेरियार साहेब के विरोध में, वाम दल भी पेरियार के विरोध में यह कहकर खड़े हो गए कि जस्टिस पार्टी राष्ट्रवादी नहीं और लोगों को एक-दुसरे के खिलाफ भड़काती है, इसलिए हम (वामपंथ) कांग्रेस की मदद करेंगे. पेरियार साहेब ने उन्हें तुरंत प्रभाव से किसी भी तरह की मित्रता के दायरे से बाहर कर दिया. उन्होंने कहा- ये ब्राह्मण-कामरेड हैं!!

आपमें से बहुतों को शायद पता ही होगा, 1950 में जब नेहरु की सरकार बनी तो सबसे पहला काम जो उन्होंने किया वह था आरक्षण को तारपीडो करने का प्रयास. नेहरु सरकार ने कहा, तमिलनाडु में आरक्षण की लागू नीति की संविधान में कोई व्यवस्था नहीं है, सो, ये संविधान विरोधी है. इसे ख़त्म किया जाए तुरंत प्रभाव से.

इसे कहते हैं, शतरंजी चाल!!! पेरियार की आरक्षण की नीति और डॉ. आंबेडकर साहेब के संविधान को आमने-सामने करके खुद पल्ला झाड़ लिए. पेरियार साहेब ने गुस्से में कहा- संविधान कमेटी में पांच में से चार ब्राह्मण थे. डॉ. आंबेडकर की वहां क्या चलती? वे बहुत गुस्सा हुए. तमिलनाडु में इसी प्रचंड गुस्से का इज़हार हुआ. तमिलनाडु की सड़कों, गलियों-कूचों में नेहरु सरकार के खिलाफ लोगों की बाढ़ आ गई. पेरियार साहेब ने भांप लिया था कि भारत एक ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अखाड़ा बनेगा. उन्होंने इससे अलग होने की मांग उठा दी. ‘हमें नहीं रहना भारत में!!!’ कांग्रेस की चूलें हिल गईं. उसने संविधान में संशोधन किया और आरक्षण के विरोध में लाया गया बिल वापिस ले लिया गया. इसके बावजूद पेरियार 1952 तक भारत का हिस्सा बनने से इनकारी रहे. 

पेरियार साहेब एक्शन-प्लान में यकीन करने वाले थे. एक्शन-प्लान यूं ही नहीं बनते. फैसले लेने पड़ते हैं. उनके फैसले सही थे. साफगोई के बिना यह संभव नहीं होता. साफगोई यानि क्लैरिटी जो समाज में विचरने से और इतिहास के अनुभवों और अपने अनुभवों को देखने-परखने के बाद आती है. पेरियार साहेब इन प्रणालियों से गुज़रे और यूँ वे ‘बहुजन ऑटोनोमी’ के वाहक बने. दूसरी बात उनके बारे में गौर करने लायक है कि वे क्षेत्रीय भाषा, भाषा की गोद में पनपी और फलीफुली संस्कृति-सभ्याचार की बड़ी हेसियत को समझते थे. इसीलिए जब उन्होंने इंडियन यूनियन को यह कहकर रिजेक्ट किया कि ये ब्राह्मणों का अड्डा है तब उन्होंने कहा- द्रविड़ भाषा, द्रविड़ लोग, द्रविड़ संस्कृति और द्रविड़ क्षेत्र… यही मेरा देश है.

‘आज़ाद’ भारत में कांग्रेस न केवल पेरियार साहेब द्वारा खड़े किये आन्दोलन को कुंद करने के लायक थी बल्कि उसने यह ‘लायकी’ अन्य राज्यों के आंदोलनों को समाप्त करने के लिए भी इस्तेमाल की. 1973 में उनके परिनिर्वाण से पहले द्रविड़ पार्टी कई शाखाओं में बंट गई.

तमिलनाडु की धरती ब्राह्मणों के अत्यधिक वर्चस्व की परछाईयों में रही जहाँ रूढ़िवादिता की सीलन पलती रही. पेरियार साहेब इस धरती के लिए खिलखिलाती धुप लेकर आये. फिर भी ब्राह्मण का ऐसा वर्चस्व अन्य जगहों पर नहीं रहा. (अविभाजित) पंजाब के बारे में तो मैं ठीक से जानता हूँ. हर राज्य की अपनी कहानी रही है. इसे समझना ज़रूरी है. आज की परिस्थितयां हमें जो दिखा रही हैं इसके सिरे को पकड़कर पीछे इतिहास में विचरना ज़रूरी है. कई फ़ालतू की बोझिल बातें तो इसी से हल हो जाएँगी. साफगोई जो मिलेगी वह अलग!

1920 में बना अकाली दल अगर 1923 में (केरला में) दलितों के आन्दोलन में लंगर (खाने की व्यवस्था) लगा रहा है तो वो आज़ाद भारत में भाजपा के साथ अलायंस में कैसे चला गया, ये इतिहास का अलग मुहाना खोलता है. जैसा कि मैंने कहा भी कि ब्राह्मण-कांग्रेस अंग्रेजों के जाने के बाद सत्ता में आकर अकाली दल जैसे गुटों के साथ बहुत कुछ करने की हेसियत में थी. पेरियार साहेब को जानते हुए इस तरह के प्रश्न भी खुद से ही ज़ेहन में चले आते हैं लेकिन पेरियार साहेब साथ में हल भी दिए जाते हैं. आज जिन नेरेटिवों पर भारत खड़ा है, उसे बहुत से बहुजन आज भी सही रूप से नहीं समझ रहे, जबकि पेरियार साहेब कब के उसके बारे में डंके की चोट पर बात करके चले गए. उनके जन्मदिन या पुण्यतिथि पर उनका नाम हमें ज़िम्मेदारी से लेना होगा. खुद को आईने में रखकर पेरियार को याद करना होगा. वर्ना पेरियार साहेब के फलसफे हमें धिक्कारेंगे… जिसके हम हक़दार भी होंगे.

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गुरिंदर आज़ाद, राउंड टेबल इंडिया (हिंदी) के संपादक हैं.

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