satvendra madara
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सतविंदर मनख (Satvinder Manakh)

केंद्र की RSS- BJP सरकार द्वारा किसानों के लिए बनाए गए नए कानून के खिलाफ पंजाब से शुरू हुआ किसान आंदोलन, अब पूरे देश में फैल चुका है। शुरुआती दौर में ही इसमें हरियाणा – उत्तर प्रदेश के किसान जुड़े। अब राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार समेत कई दूसरे राज्यों के किसानों के न सिर्फ समर्थन बल्कि दिल्ली कूच करने की भी खबरे आ रही हैं। 8 दिसम्बर को भारत बंद का ऐलान हो चुका है, जिसे किसान संगठनों के अलावा बहुत सारे सामाजिक-राजनीतिक-धार्मिक संगठनों ने समर्थन दिया है।

कई सालों से भारत के किसानों के दिवालिया होने की खबरे लगातार आ रही थी। ऐसे में लगता था कि सरकार शायद उनकी हालत सुधारने के लिए कुछ बड़े कदम उठाएगी। किसानों की समस्याओं को जानने और उन्हें दूर करने के लिए, केंद्र सरकार ने नवंबर 2004 को स्वामीनाथन कमीशन का गठन किया। इसने लगभग दो साल के अध्यन के बाद, अक्टूबर 2006 में अपनी रिपोर्ट पेश की। इसमें किसानों की आर्थिक हालत सुधारने के लिए बहुत सारी सिफारिशें कीं गईं, लेकिन सरकार ने इसे लागू ही नहीं किया।

अब BJP सरकार ने एक नया कानून, “किसान उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य विधेयक 2020” पास किया है, जिसके खिलाफ हुए किसानों के विरोध ने अब एक आंदोलन का रूप ले लिया है।

इस नए कानून के बारे में बताया जा रहा है कि अब बड़े उद्योगपति बगैर किसी MSP (Minimum Sale Price – न्यूनतम बिक्री की कीमत) के ही अपने द्वारा तय की गयी कीमत से किसानों की फसल खरीद सकेंगे। दूसरा, अगर किसानों और फसल खरीदने वाले व्यापारियों में कोई विवाद होता है, तो उसके खिलाफ वो अदालत नहीं जा सकते, उन्हें इसकी शिकायत सरकारी अधिकारीयों के ही पास करनी होगी। तीसरा, इसमें किसी भी खरीददार पर – वो कितनी फसल खरीद कर स्टॉक कर सकता है, इस पर भी कोई पाबन्दी नहीं है। यानि कि कोई उद्योगपति, आगे चलकर किसी भी फसल के स्टॉक को दबाकर, उसके दाम बढ़ा भी सकता है।

इस बिन-मांगे कानून के खिलाफ किसान न सिर्फ आंदोलित हैं बल्कि इसे लेकर वो सकते में भी हैं।
वो कह रहे हैं कि पहली बात तो उन्होंने इस कानून की सरकार से मांग ही नहीं की। अब, जब सरकार ने बगैर मांगे ही यह कानून उन्हें थमा दिया है, तो उन्होंने इस पर काफी जाँच-पड़ताल की है। वकीलों और कानून के जानकारों से सलाह-मशविरा किया है और यह पाया है कि यह कानून उनके फायदे का नहीं है। इसलिए उन्हें यह तोहफा नहीं चाहिए और सरकार इसे वापस ले।

किसान, सरकार से यह सवाल भी कर रहें है कि अगर आपको हमारी इतनी ही फ़िक्र है और वाकई में आप देश के किसानों का भला करना चाहते हैं, तो फिर स्वामीनाथन रिपोर्ट को ही क्यों लागू नहीं किया जा रहा है? सरकार सामने से कह रही है कि इस कानून से तो किसानों की भलाई होगी, लेकिन विपक्षी पार्टियां उन्हें बरगला रही हैं। 

भारत में ज्यादातर खेती, पिछड़ी जातियाँ (जाट, मराठा, पटेल, कुर्मी, यादव, आदि) ही करती हैं। पुराने ज़माने में तो किसान साहूकारों की लूट का शिकार होता था, लेकिन 1947 में अंग्रेज़ों के जाने के बाद; भारत के किसान, मजदुर, गरीब वर्ग ने सोचा की शायद अब उसके दिन बदलेंगे।

पहले कुछ दशकों में किसानों की हालत थोड़ी-बहुत सुधरी भी। ज़मीनों के दाम बढ़े, फसलों की कीमतें ज्यादा मिलने लगी और एक पल को लगा, जैसे भारत का किसान खुशहाली की ओर बढ़ रहा है। लेकिन जल्द ही किसानों के यह अच्छे दिन, बुरे दिनों में बदलने शुरू हो गए। बढ़ती महंगाई, गांवों में प्राइवेट स्कूल-हॉस्पिटल माफिया की लूट, महँगी होती मजदूरी, आदि ने उसके मुनाफे में सेंध लगानी शुरू कर दी। उसे फसल का वहीं पुराना रेट और कई मामलों में तो पहले से भी कम रेट दिया गया, जिसने उसे बर्बादी की ओर धकेल दिया। देखते ही देखते, देश के सबसे खुशहाल माने जाने वाले दो राज्य, पंजाब और महाराष्ट्र का किसान ही खुदखुशियाँ करने लगा।

दिल्ली-हरियाणा के सिंघु सरहद पर लाखों की तादात में विरोध प्रदर्शन करते किसान 

जब 26 नवंबर 1949 को भारत का संविधान बनकर तैयार हुआ, तो बाबासाहेब अम्बेडकर ने इन किसान जातियों को भी शैक्षणिक-सामाजिक तौर पर पिछड़ा होने के कारण, SC-ST जातियों की ही तरह शासन-प्रसाशन में भागीदारी दिलवाने का प्रयास किया था। लेकिन तब इन्होंने गांधी जी और दूसरे सवर्ण नेताओं के चक्कर में बाबासाहेब की बात नहीं मानी। फिर भी इन्हें आगे चलकर यह सुविधा मिल सके, इसके लिए बाबासाहेब ने संविधान में धारा 340 का प्रबंध किया। इसी के तहत, पहले काका कालेलकर और फिर मण्डल कमिशन बना। लेकिन देश पर काबिज ब्राह्मणवादी वर्ग ने इन पिछड़ी-किसान जातियों की तरक्की के लिए, एक नया रास्ता खुलने ही नहीं दिया।

अब इन जातियों के पास न तो व्यापार है और न ही सरकारी विभागों में आरक्षण के तहत मिलने वाली भागीदारी। ले-देकर इनके पास अगर कुछ है, तो वो है ज़मीन और उस पर की जाने वाली खेती।

अगर हम गौर से देखें, तो बहुजन समाज (पिछड़ों-OBC, दलितों-SC, आदिवासियों-ST) के तीनों अंगों में से SC जातियों के पास तो पहले ही ज़मीन नहीं थी। वो आगे बढ़ सके, इसके लिए बाबासाहेब ने उनके लिए सरकारी विभागों में आरक्षण-भागीदारी की व्यवस्था दी। लेकिन ब्राह्मणवादी सरकारों ने निजीकरण और दूसरे हथकंडों अपना कर उसे लगभग खत्म कर दिया है। अनुसूचित जातियाँ इसके खिलाफ आंदोलन करने में असक्षम हैं और उनके नेता चुप-चाप तमाशा देख रहे हैं।

दूसरा बड़ा अंग आदिवासियों का है। उनके पास अपनी जीविका चलाने के लिए जल-जंगल-ज़मीन थी। उसे भी बड़े उद्योगपतियों को बेचने की कोशिशें की जा रही हैं, जिसके खिलाफ आदिवासी आंदोलन कर भी रहे हैं।

तीसरा और सबसे बड़ा अंग है पिछड़ी-OBC या किसान जातियों का, जिनकी आबादी देश में 52% है।  तो इनके पास रोजगार के लिए सिर्फ खेती और ज़मीन है। इस नए कानून से पहले ही बदहाल हुई यह किसान जातियाँ, अब लगता है अपनी ज़मीन से ही हाथ धो बैठेंगी। लेकिन किसानों द्वारा केंद्र सरकार के खिलाफ किए जा रहे इस आंदोलन में एक और भी बहुत अहम पहलू है।

जो किसान आज अपनी खेती और ज़मीन बचाने के लिए केंद्र सरकार के खिलाफ आखिरकार सड़कों पर उतरे हैं, देश के कई राज्यों में उनकी सरकारें रहीं हैं और आज भी हैं। इस आंदोलन की अगवाई या शुरुआत पंजाब के किसानों ने की। पंजाब में बहुत लंबे अरसे से सिखों का और उसमें भी खासकर जट्टों के ही मुख्यमंत्री रहे हैं, जिन्हें मुख्य तौर पर पंजाब का किसान माना जाता है। दूसरा अहम राज्य है हरियाणा। तो उसके भी अलग राज्य बनने से लेकर अब तक – ज्यादा समय जाट ही मुख्य मंत्री रहे हैं। तीसरा और बड़ा राज्य है उत्तर प्रदेश। इसमें जाट-यादव-कुर्मी मुख्य तौर पर किसान माने जाते हैं। इनकी भी सरकारें रही हैं, मुख्यमंत्री रहे हैं। इसी तरह बिहार में यादव, गुजरात में पटेल, महाराष्ट्र में मराठा, आदि ऐसे बहुत से उदाहरण हैं; जहां राज्यों की सरकारें और इन्हीं किसान जातियों के हाथों में रही हैं।

तो फिर अब सवाल उठता यह है कि केंद्र सरकार में तो पहले काँग्रेस और अब बीजेपी है, जो कि ब्राह्मणों की पार्टियां मानी जाती हैं। अगर इन्होंने किसानों की भलाई के लिए कुछ नहीं किया, तो इसमें कौन सी हैरानी की बात है। लेकिन इन सभी राज्यों में इनके मुख्यमंत्रियों और सरकारों ने इनकी भलाई के लिए कुछ क्यों नहीं किया? आज सड़कों पर उतरे पूरे देश के किसानों को इस तरफ भी ध्यान देना होगा।

इस आंदोलन का और पहलु यह भी है कि इसे किसान-मजदूर एकता बनाम सरकार कहा जा रहा है। यह फिर इस बात को साबित करता है कि इस देश में सिर्फ दो ही वर्ग हैं। एक मेहनतकश है, जो अपने हाथों से मेहनत करता है और धन पैदा करता है। दूसरा इन मेहनतकश लोगों के द्वारा पैदा किए गए धन को ज्ञान, सत्ता और व्यापार में किए अपने कब्जे से लूटता है।

आदिवासियों, अनुसूचित जातियों को तो 15% वाले ब्राह्मणवादी वर्ग द्वारा खेले जा रहे इस खेल के बारे में काफी समय से पता चल चुका है। अब इस बार किसान आंदोलन के जरिए उम्मीद है कि पिछड़ी-किसान जातियाँ भी अब इसे अच्छी तरीके से समझ सकेंगी तभी यह किसान आंदोलन सही मायनों में कामयाब हो सकेगा।

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सतविंदर मनख पेशे से एक हॉस्पिटैलिटी प्रोफेशनल हैं। वह साहेब कांशी राम के भाषणों  को ऑनलाइन एक जगह संग्रहित करने का ज़रूरी काम कर रहे हैं एवं बहुजन आंदोलन में विशेष रुचि रखते हैं। हालही में उनके लेखों की ई-बुक (e-book) ‘21वीं सदी में बहुजन आंदोलन  जारी हुई है.

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3 thoughts on “किसान आंदोलन का बढ़ता हुआ दायरा बनाम सरकार

  1. जाट, यादव, मराठा, कुणबी इ सवर्ण जाती आहेत असं ही ऐकलं आहे. मंजे वरील जाती; जातीव्यवस्थेत मधोमध आहेत. पण यांना बहुजन का म्हणावं हा साधा प्रश्न आहे.

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