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सुखदीप सिंघ (Sukhdeep Singh)

पंजाब का इतिहास शुरू से ही संघर्ष वाला रहा है. यदि हमें पंजाब के मौजूदा कृषि/किसानी संघर्ष के कारणों के बारे में जानना हो तो इस संघर्ष के सांस्कृतिक, विचारधारी, राजनीतिक और आर्थिक कारणों की पृष्ठभूमि के ऊपर निगाह डालना ज़रूरी है.

संघर्ष के कारणों की पृष्ठभूमि

पंजाब की सांस्कृतिक विचारधारा की पृष्ठभूमि का प्रारंभ बाबा फरीद जी ने बारहवीं सदी से ही कर दिया था और इस सांस्कृतिक विचारधारा के संघर्षमई रूप को जीवन के असलियत वाले रंग में गुरु नानक देव जी ने संस्थाओं के रूप में ढाल कर प्रकट करना शुरू कर दिया था.

गुरु नानक देव जी के समय में इस्लामिक-विचारधारा राजनीति के माध्यम से ज़बरदस्ती अपना प्रचार-प्रसार कर रही थी और ब्राह्मणवादी विचारधारा ने समाज को ऊँच-नीच, छुआछूत और जात-पात में बांटा हुआ था. यह दोनों विचारधाराएँ मनुष्यता को नुकसान पहुँचा रही थीं. गुरु नानक देव जी ने ‘सरबत के भले’ के लिए धार्मिक राजनीति वाले प्रबंध की नींव रखी और कई संस्कृतियों को दिशा देने वाली संस्थाएं दस-गुरुओं के माध्यम से संघर्ष के रूप में प्रकट कीं. जिसका सञ्चालन गुरु ग्रन्थ और गुरु पंथ के ज़रिये खालसे को सौंपा गया. खालसा पंथ के नेतृत्व में बंदा सिंह बहदुरने पंजाब में खालसा राज कायम करके किसानों को ज़मीनों का मालिक बनाया. पंजाब में अठारहवीं सदी में किये गए संघर्षों सदका महाराजा रणजीत सिंघ ने उन्नीसवीं सदी में खालसा राज स्थापित किया.

पश्चिम की पूंजीवादी विचारधारा ने भारत के साथ-साथ पंजाब को भी गुलाम किया और अपनी नई संस्थाओं के ज़रिये नए मनुष्यों को तराश कर अपनी पश्चिमी पूंजीवादी प्रभुसत्ता कायम की. इस पूंजीवादी प्रभुसत्ता को पंजाब में खालसा पंथ ने संघर्ष करके चुनौतियाँ दीं और बीसवीं सदी में पंजाब के साथ-साथ भारत के ऊपर ब्राह्मणवादी विचारधारा वाले नेताओं ने राजसत्ता संभाल ली और पंजाब भी भारतीय राजसत्ता तले आ गया.

किसान पुलिस वालों को लंगर ‘छकाते’ हुए 

भारतीय राजसत्ता के अगुआ/नेता भारत को आज़ाद कराने के लिए, पंजाब द्वारा किये गए संघर्ष और पंजाब के साथ किये सम्प्रभुता (ऑटोनोमस पंजाब) के वादे से मुकर गए तो पंजाब ने जो संघर्ष कभी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ा था, वह अब भारतीय राजसत्ता के खिलाफ शुरू हो गया और पंजाबी सूबे तक चला. इसके पश्चात् भारतीय सरकार ने पंजाब के ऊपर और अधिक ज़बरदस्ती वाला रुख बना लिया. भारतीय राजसत्ता ने खुद को धीरे धीरे ‘हाथी के दांतों’ वाली कहावत की तरह भारतीय राजसत्ता को हिंदुत्वी सत्ता बनाने की और कदम उठाना शुरू किया जो कि, अन्दर ही अन्दर, भारत की आज़ादी की लड़ाई के साथ ही चल रहा था.

जब पंजाब ने भारत के अंदर राज्यों के अधिक अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू किया, जिससे कई और राज्य भी जुड़ना शुरू हो गए थे, तो भारतीय सरकार ने अधिक अधिकार देने की बजाय सिखों के ऊपर अलगाववादी, अतिवादी और हिन्दु-विरोधी जैसे इलज़ाम लगाकर भारतीय मीडिया के ज़रिये उन्हें बदनाम कर, भारतीय लोगों के मन में खौफ पैदा कर, सिखों के ऊपर ज़ुल्म करने का रास्ता पकड़ लिया. भारतीय हुकूमत ने सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करते हुए दरबार साहेब (अमृतसर) के ऊपर हमला कर सिख संस्कृति को ख़त्म करने की भद्दी कोशिशें कीं, परन्तु पंजाब के सिख नौजवानों ने दस साल तक भारतीय हुकूमत के साथ जंग छेड़े रखी और भारतीय हुकूमत का पंजाब के सिख सभ्याचार को ख़त्म करने का मंसूबा बीच में ही रह गया.

पानी की तोपों से केंद्र सरकार किसानों को आन्दोलन करने से रोकती हुई 

भारतीय हुकूमत ने पंजाब के संघर्ष वाले राह को पटरी से उतारने के लिए बहुत से कई साजिशें कीं, जैसे कि पंजाब में व्याप्त ‘सरबत के भले’ वाली धार्मिक राजनीति वाले प्रबंध को राष्ट्रवादी राजनीति के माध्यम से बदलना, लचर गायकी को प्रोत्साहित करना, बेरोज़गारी, भारतीय राष्ट्रवादी शिक्षा प्रबंध, नशों का फैलाव, कृषि की फसलों के कम मूल्य आदि. कर्जों की भरमार के ज़रिये पंजाब के नौजवानों के अन्दर विदेश जाने की चिंगारी लगाई गई जिससे बहुत से नौजवानों ने प्रवास भी किया लेकिन पंजाब के नौजवानों ने समय समय पर बड़ी बड़ी सभाएं करके भारतीय हुकूमत के पसीने भी छुड़ाए, और यही तेवर आज किसान-संघर्ष के रूप में फिर से सामने आया है.

किसानी संघर्ष के सामने बेशक तीन बिल ही देखाई पड़ते हैं लेकिन इस के पीछे गुरु नानक साहेब जी से लेकर अब तक का इतिहास खड़ा है. इस संघर्ष के भीतर नौजवानों का जो जोश है वह सिख संस्कृति और पंजाब के समय समय पर चले आ रहे संघर्षों से प्रेरित है. इस संघर्ष ने पंजाब के समूचे नौजवानों के भीतर हुकूमत के विरुद्ध लड़ने का जोश भरा है और उनके भीतर खालसा वाली रिवायतों को पुनः सुरजीत किया है. पंजाब फिर से दुसरे राज्यों के लिए राह दिखाने वाला बना है जिसकी गवाही संघर्ष में पहुंचे अलग अलग राज्यों के लोग खुद कर रहे हैं.

कृषि आन्दोलन, आने वाला कल और सुझाव

यदि किसानी/कृषि संघर्ष बिल वापिस करवाने में सफल होता है तो इस के साथ आने वाले समय में बाकि राज्यों की नज़र पंजाब की ओर होगी और अन्य क्षीण वर्ग पंजाब की ओर आयेंगे. इस महा-पंजाब की आंतरिक राजनीति भी बदलेगी जोकि भारतीय हुकूमत के साथ टक्कर लेने वाली होगी. यदि यह कृषि बिल वापिस न करवा पाए तो भारतीय हुकूमत अपना हिन्दू राष्ट्र वाला एजेंडा अधिक तेज़ करेगी और पंजाब समेत अन्य क्षीण वर्गों के ऊपर अपना ज़ुल्म ढायेगी.

बड़ी संख्या में महिलायें, किसान आन्दोलन में, एक साथ

पंजाब से आते किसान संगठनों को, अन्य राज्यों के किसान संगठनों को साथ लेकर, कृषि बिल वापिस करवाने के साथ साथ, राज्यों के अधिक अधिकारों वाली बात को भी बढ़ाना चाहिए. भारतीय हुकूमत के ऊपर दबाव बनाने के लिए सौ-सौ लोगों के समूहों को जेलों (जेल भरो) के लिए भी भेजने चाहिए. इस के इलावा किसान संगठनों को भारत की समूची राजनीति को बदलने के लिए सभी राज्यों के लोगों के मन के अन्दर भी जागृति पैदा करने की पहल होनी चाहिए.

किसान संगठनों को डॉ. गुरभगत सिंघ के इस कथन से दिशा लेनी चाहिए ‘कार्ल मार्क्स ने अपनी रचनाएँ दास केपिटल, जर्मन आइडियोलॉजी आदि में यह स्थापित किया है कि विचार, संकल्प, चेतना, भाषा आदि सीधे ही पदार्थवादी क्रियाओं से जुड़े हुए हैं. इस का अर्थ यह है कि समय की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक संस्थाएं भी मनुष्य की सोच को तराशती हैं, यदि उनमें केवल हुक्मरान वर्ग के हितों को पूरा करने की इच्छा मौजूद है…. इसलिए कार्ल मार्क्स ने ऐसी संस्थाओं को सजग क्रांति के ज़रिये तोड़ने फोड़ने के लिए प्रेरित किया ताकि नए संगठन जो आज़ादी बहाल कर सकें उनका निर्माण किया जा सके.”

इसलिए पंजाब के किसान संगठनों को भारतीय हुकूमत के सामने सिख संस्कृति में से दिशा लेकर अपने ‘सरबत के भले’ वाले राजनीतिक चिन्ह निर्मित करने होंगे. किसान संगठनों को आत्मचिंतन के ज़रिये लोगों के इस संघर्ष के भीतर खालसा पंथ से प्राप्त हुए बल को भी प्रभाषित करने की ज़रुरत है ताकि खालसा पंथ के ‘सरबत के भले’ वाले सिद्धांत से पंजाब के साथ-साथ समूचे भारतवासियों का भी भला हो सके.

सरबत का भला हो!

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सुखदीप सिंघ, पंजाबी भाषा के लेखक हैं व् विशेषतः पंजाब और सामाजिक मुद्दों को लेकर लेखन करते हैं, और एक कार्यकर्ता है.

अनुवाद: गुरिंदर आज़ाद

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