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निखिल कुमार (Nikhil Kumar)

तकनीकी रूप से भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है जिसे अंग्रेजों से आज़ाद करवाने के लिए लाखों लोगों ने बलिदान दिया है. वे लोग अलग अलग क्षेत्रों से और विविध पृष्ठभूमियों से थे. विरोध की कई अलग अलग धाराएं बह रही थीं. सभी धाराओं में भले ही गोरों के बस्तिवाद का विरोध था लेकिन फिर भी इनके मूल में उनके अपने क्षेत्र के निजी मसले भी थे, जो अपने स्वभाव में एक दम प्राकृतिक थे और सामजिक विविधताओं से जुड़े थे. अधिकतर धाराएँ ऐसी रही हैं जो अक्सर ब्राह्मणवादी व्याख्यानों से दूर रहीं हैं. इस सांझी मुखालफत में भी वह ब्राह्मणवादी विचारधारा से अपनी दूरी बनाकर चलते थे. एक तरफ जहाँ यहाँ की कथित मुख्यधारा जिसमें ऊँची कही जाने वाली जातियों का एजेंडा अंग्रेजों को निकालकर अपना ब्राह्मणवादी राज स्थापित करना था वहीँ अन्य धाराओं की वरीयता उनकी भाषा, संस्कृति, जाति-व्यवस्था से जुड़े मुद्दे रहे जिसमें से मनुष्यता की महक आती थी. इन्हें मुख्यधारा वालों के मंसूबे पता थे कि ये यहाँ के नए अंग्रेज़ बनकर अपना वर्चस्व कायम रखना चाहते हैं. वैसा हो भी गया. जब अंग्रेज़ यहाँ से चले गए तो यहाँ ब्राह्मणवादी लोग/ राजनीतिक दल सत्ता पर काबिज़ हो गए. कांग्रेस से लेकर भाजपा सभी ब्राह्मणवादी वर्चस्व वाली पार्टियाँ रही हैं. बहरहाल….

देश की विविधता को ध्यान में रखते हुए बाबा साहेब डॉ. भीम राव आंबेडकर ने भारत में लोकतान्त्रिक संघात्मक व्यवस्था को स्वीकार किया था. विविधता एक कुदरती देन है. कोई भी देश इसे स्वीकार किये बिना तरक्की नहीं कर सकता. इसका सीधा संबंध आत्मसम्मान से भी है. विविधता को अस्वीकार करना यानि दमन की राजनीति में भरोसा करना है. इस विविधता को बनाये/बचाए रखने के लिए भारत ने लोकतान्त्रिक संघात्मक व्यवस्था का रास्ता चुना ताकि सभी राज्यों के अधिकार सुरक्षित रहें. आज, इस व्यवस्था को बने हुए 71 साल गुज़र चुके हैं. तो क्या ये व्यवस्था सटीकता से चल भी रही है या नहीं? हमें सोचना होगा. इस प्रश्न को सभी नागरिकों को ज़ेहन में बसा कर चलना चाहिए, वर्ना धीरे धीरे घटती घटनाओं का जमावड़ा कल बड़ी दुर्घटना का सबब बन सकता है. इसलिए इस प्रश्न पर हमेशा पहरा देना हमारी आने वाली नस्लों के प्रति हमारी ज़िम्मेदारी भी है.

हाल ही में संसद ने दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्यक्षेत्र शासन अधिनियम 1991 (GNCTD, 1991) पास किया है, जो कि देश की संघात्मक व्यवस्था के खिलाफ है. हालाँकि, गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के मुताबिक इस संशोधित विधेयक का उद्देश्य दिल्ली में निर्वाचित सरकार और उपराज्यपाल के दायित्व को ज्यादा अधिक स्पष्ट करना तथा जीएनसीटीडी अधिनियम 1991 और सुप्रीम कोर्ट के 2018 के निर्णय में एकरूपता एवं स्पष्टीकरण लाना है ताकि अनावश्यक अवरोधों को दूर किया जा सके.

नए बिल में जीएनसीटीडी अधिनियम 1991 में जिन संशोधनों की बात की गई है उसमें पहला है, अब से दिल्ली सरकार का मतलब उपराज्यपाल (एलजी) होगा. बिल कहता है किसी भी प्रकार के प्रशासनिक फैसले लेने से पहले मंत्रीपरिषद या दिल्ली की कैबिनेट को उपराज्यपाल की राय लेना जरूरी होगा. दूसरा, यह बिल उपराज्यपाल को कई विवेकाधीन शक्तियां देता है जो दिल्ली के विधानसभा से पारित कानूनों के मामलों में भी लागू होती है. व्यवहारिक रूप में अब से हर कार्य केंद्र सरकार की मर्जी से होगा. संसद में विपक्ष की 10 से अधिक पार्टियों ने इस विधेयक का विरोध किया एवं आम आदमी पार्टी का साथ दिया है, लेकिन फिर भी इस बिल को संसद में पास कर दिया गया.

यह बिल न केवल असंवैधानिक है बल्कि अलोकतांत्रिक भी है. इसके माध्यम से केंद्र सरकार दिल्ली में पिछले दरवाजे से शासन चलाना चाहती हैं. दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल, स्वाभाविक है, कि इस बिल को न सिर्फ असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक बताया है. साथ ही में उन्होंने राजधानी दिल्ली के दो करोड़ लोगों का अपमान भी बताया है. याद रहे कि बीजेपी कभी दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की वकालत करती थी.

दरअसल, इस कानून में कई खामियां हैं. मोटे तौर पर देखें तो पहली खामी तो यही है कि अब निर्वाचित सरकार का कोई ओचित्य नही रह गया है. सरकार को अब कोई भी कार्य करने से पूर्व उपराज्यपाल की सलाह लेना आवश्यक हो गया है, दूसरा, दिल्ली सरकार को किन आदेशों को जारी करने से पूर्व उपराज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत करना है, यह भी इस कानून में स्पष्ट नहीं है.

दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था की बात करें तो यह 3 कानूनों पर आधारित है. पहला संविधान की धारा 239AA, जीएनसीटीडी एक्ट 1991 और ट्रांजैक्शन ऑफ बिजनेस ऑफ जीएनसीटीडी रूल्स 1993. दिल्ली 1952 में पूर्ण राज्य था इसमें 48-विधानसभा सीटें हुआ करती थीं लेकिन उस समय भी दिल्ली एवं केंद्र सरकार के बीच विवाद रहता था. साल 1952 में जब दिल्ली की गद्दी पर कांग्रेस के नेता चौधरी ब्रह्म प्रकाश मुख्यमंत्री थे उस समय भी चीफ कमिश्नर आनंद पंडित के साथ तनातनी चलती रहती थी. इसके बाद इनको 1955 में इस्तीफा देना पड़ा, इसके एक साल बाद 1956 में दिल्ली से राज्य का दर्जा भी छीन लिया गया. उसके बाद दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया. फिर 1991 में संविधान में 69वां संशोधन हुआ इसमें कुछ बदलाव किए गए तथा दिल्ली को एक विशेष राज्य का दर्जा मिला. संविधान में धारा 239AA एव 239BB जोड़ा गया इसका उद्देश्य दिल्ली में चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार को कुछ और अधिक शक्ति देना, इसमें कैबिनेट का प्रावधान, कैबिनेट और एलजी दोनों के बीच कामकाज का बंटवारा, गवर्नर के बजाय लेफ्टिनेंट गवर्नर नाम देने समेत अन्य कार्य निर्धारित किये गये. 1993 में हुए चुनाव में बीजेपी ने सरकार बनाई. इसके बाद 1998 से 2013 तक कांग्रेस का शासन रहा, 2013 से अभी तक आम आदमी पार्टी की सरकार चला रही है.

सन 2003 में, तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने संसद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए संसद में संशोधन प्रस्ताव भी पेश किया था, लेकिन संसद का कार्य पूरा होने के बाद यह बिल अपने आप ही रद्द हो गया. कांग्रेस नेता और तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित भी यह मांग दोहराती रही. सन 2013 में दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद केद्र एवं दिल्ली सरकार में काफी तकरार बढ़ी एवं अपने अधिकार क्षेत्र की मांग करने के लिए केजरीवाल सरकार कोर्ट पहुंच गई.

इसको लेकर 5 सदस्य संवैधानिक पीठ जिसमे मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, अशोक भूषण चंद्रचूड़, एके सीकरी, एम खानविलकर शामिल थे, का गठन किया गया जिसका फैसला 4 जुलाई 2018 में आया. इसमें कोर्ट ने दिल्ली की चुनी हुई सरकार को ही कानून बनाने का अधिकार दिया गया. इस फैसले में कहा गया कि जमीन, पब्लिक ऑर्डर और कानून व्यवस्था का अधिकार उपराज्यपाल को दिया गया है बाकी दूसरे विषयों का कामकाज दिल्ली सरकार को सौंपा जाएगा. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने कहा दिल्ली के उपराज्यपाल के पास स्वतन्त्र फैसले लेने का अधिकार नहीं है, उन्हें मंत्रिपरिषद के सहयोग और सलाह पर ही कार्य करना चाहिए. मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, अशोक भूषण चंद्रचूड़, एके सीकरी, एम खानविलकर ने यह भी कहा था कि उपराज्यपाल की भूमिका अवरोधक की नहीं होनी चाहिए. कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि मंत्री परिषद के लिए सभी निर्णय उपराज्यपाल को बताने चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनकी सहमति जरूरी है. मंत्रीपरिषद की सलाह उपराज्यपाल के लिए बाध्यकारी है. सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के बाद दिल्ली सरकार ने उप राज्यपाल के पास कार्यकारी मामलों की फाइलें भेजना बंद कर दिया था तब से केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार के बीच विवाद गहराता रहा. इसका उदाहरण हमें किसान आंदोलन में देखने को मिला जहां एक तरफ केंद्र सरकार दिल्ली के 9 स्टेडियमों को जेल में परिवर्तित करना चाहती थी, वही केजरीवाल सरकार इसके सख्त खिलाफ थी क्योंकि अगर स्टेडियम को जेल बना दिया जाता तो हमारे हजारों-लाखों की संख्या में किसान उन स्टेडियम जेलों में ही बंद रह जाते एवं अपनी आवाज नहीं उठा पाते, जब दिल्ली सरकार ने 9 स्टेडियमों को जेल बनाने से मना कर दिया तो केंद्र सरकार ने उस पर दबाव डाला लेकिन दिल्ली सरकार नहीं झुकी.

दिल्ली सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि यह कानून ने सिर्फ संविधान बल्कि लोकतंत्र के खिलाफ भी है, इसलिए इस कानून के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक लड़ाई जारी रहेगी एवं सुप्रीम कोर्ट में भी इस कानून को चुनौती दी जाएगी.

खैर, जो भी हो. भारत में लोकतान्त्रिक प्रणाली को मजबूत होना था लेकिन उसे ज़बरदस्त नुक्सान हुए हैं. लोकतंत्र के चारों स्तम्भ किसी भी कोण से अपनी ज़िम्मेदारी निभाते तो नज़र नहीं आते. इस भारत में हाशिये की आवाज़ों के रास्ते काँटों से भर दिए गए हैं. राज्यों के अधिकार छीन कर केंद्र कांग्रेस के समय से ही मजबूत होता गया है. हिन्दी, हिन्दू, हिंदुस्तान के विचार ने राज्यों की मिटटी और वातावरण में घुले वह आन्दोलन जिन्होंने आज़ादी के आन्दोलन के साथ साथ ब्राह्मणवाद के खिलाफ भी आन्दोलन चलाया, उन्हें निगलने का पूरा मंसूबा बनाया हुआ है. दिल्ली में जो हुआ है, वह इस बात का संकेत है कि भाजपा किसी अन्य दल की सरकार को कहीं चलने नहीं देना चाहती और अपनी संविधानिक शक्तियों का गलत इस्तेमाल कर रही है. ये इशारा है कि आने वाला समय बेहद जटिल चुनौतियाँ लाएगा. बहुजनों को इसका सबसे अधिक नुक्सान होगा.

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निखिल कुमार कुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक शोध छात्र हैं.

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2 thoughts on “फेडरल सिस्टम वेंटीलेटर पर है

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