के.सी. सुलेख (K. C. Sulekh)
राष्ट्रवाद उस सामूहिक जज्बात का नाम है जो एक देश/इलाके के निवासियों को अपने साझे हितों की सुरक्षा के लिए जोड़कर रखता है. अलग अलग देशों में रहने वाले लोगों के स्थानीय हालातों के मुताबिक धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सुरक्षात्मक हित अलग अलग हो सकते हैं जो कई बार आपसी झगड़ों और, यहाँ तक कि युद्ध का कारण भी बन सकते हैं. लेकिन अगर अपने ही देश में लोग कुछ मतभेदों को लेकर एक दुसरे का सिर फोड़ने लग जाएँ तो इससे अधिक त्रासदी भला क्या हो सकती है! यह एक चिंता का विषय है और इस मुद्दे पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिए.
अंग्रेज़ी हुकूमत से पहले भारत 600 से अधिक रियासतों में बंटा हुआ था जहाँ पीढ़ी दर पीढ़ी राजाओं, महाराजाओं और नवाबों का शासन चलता था, जिनके अपने कानून, अपनी राज्य प्रणाली, अपनी भाषा, अपने ही सांस्कृतिक रस्मो-रिवाज होने के कारण कोई साझी सोच या साझे नफे-नुकसान (लाभ-हानि) की भावना नहीं थी. राष्ट्रवाद की भावना तो बहुत दूर की बात है.
विदेशों से आये मुसलमान हमलावरों के हमलों के समय तो हालत इससे भी बद्दतर थी. एक तो वर्ण व्यवस्था और दुसरे, फ़ौज का एक ही लड़ाकू वर्ग के ही हाथ में होने के कारण, एक के बाद एक राज्य, विदेशी हमलावरों के साथ लड़ता रहा और मरता रहा. 1857 का ग़दर भी राजाओं और नवाबों की अपने राज्यों को बनाने के लिए लड़ी गई लड़ाई थी. अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ उस समय जो विद्रोह का कारण बना वह नई रौशनी में पढ़े-लिखे तरक्की पसंद लोगों का संघर्ष और विरोध था कि बाहर के देशों के मुट्ठी भर लोग हमारे ऊपर क्यूँ हुकूमत कर रहे हैं. क्यूँ यहाँ का धन-दौलत लूट कर अपने देश लेजा रहे हैं. ऐसी सोच को किसी हद तक सीमित भाव में देशभक्ति तो कहा जा सकता है लेकिन राष्ट्रवाद बिलकुल नहीं. अंग्रेजों को आखिर देश छोड़ना पड़ा और हुकूमत भारतीय लोगों के हाथ में आ गई. आज़ादी के संग्राम की बागडोर मुख्य तौर पर कांग्रेस पार्टी के हाथ होने के चलते पहली हुकूमत बनाने और चलाने का नंबर भी उसी का बनता था. जिस ने अपनी सिद्धांतों के अनुसार देश को मिले जुले सभ्याचार संस्कृति पर आधारित हुकूमत स्थापित की. पंडित नेहरु के नेतृत्व में जो पहला मंडल गठित किया गया उसमें कांग्रेस के नेताओं के इलावा डॉ. आंबेडकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, के.सी. नियोगी जैसे मंत्री शामिल किये गए. जिनकी आपस में बुनियादी विचारधारा की और से ज़मीन आसमान का अंतर था. ऐसे भिन्न-भिन्न तरह के मंत्रियों के गठन का मकसद भी केवल एक ही था कि नए नए आज़ाद हुए देश को मजबूत और एकजुट बनाये रखने के लिए बुद्धिमान व्यक्तियों के ज्ञान, बुद्धिमत्ता और तजुर्बे से लाभ लिया जा सके. इस तरह इस हुकूमत को सब तबकों की नुमयिन्दगी करने वाली राष्ट्रिय हुकूमत के रूप में दिखाने की कोशिश की गई. लेकिन ये कोशिश सतही ही साबित हुई. राष्ट्रवाद का जज़्बा न पहले था न ही बाद में पैदा हो सका.
इसका कारण हुकूमतों की स्थापना या अदला बदली से भी कहीं अलग और गहरा था. जैसा की इंदिरा गाँधी की हुकूमत का तख्ता पलटने के बाद बनी मोरार जी देसाई की हुकूमत में देखने को मिला. जब थोड़े समय बाद अटल बिहारी वाजपाई और लाल कृष्ण अडवाणी के संघ यानि आर.एस.एस. के साथ जुड़े रहने के सवाल पर मोरार जी की हुकूमत टूट कर गिर गई थी. एक के बाद एक घटती घटनाओं ने साबित कर दिया कि संघ के बुनियादी एजंडे के मुताबिक विचारधारा की पूर्ती के लिए हुकूमत केवल साधन मात्र ही है. आखिरी मंजिल नहीं.
आज़ादी के पश्चात् बाबा साहेब आंबेडकर की प्रधानगी तले देश का सविधान बना जो अलग अलग धर्मों जातियों, क्षेत्रों और भाषाओं में बंटे हुए देश को एकजुट बनाने वाला बेहतरीन आदर्श कानूनी दस्तावेज़ के रूप में चलता आ रहा है. संविधान का एक-एक प्रावधान एक-एक वाक्य देश के प्रति वफादारी, नागरिक-अधिकार, भाईचारा भाव जैसे सद्गुणों के साथ भरा पड़ा है. लेकिन दुःख की बात यह है कि जहाँ संविधान देश और समाज को तरक्की और विकास के शीर्ष की और ले जाने की दिशा देता है वहीँ पुरातन पंथियों ने इसको दिल से कभी भी मान्यता नहीं दी. हर कदम पर इसका विरोध किया. संविधान के विरोध और उलंघन को वह अपना फ़र्ज़ और अधिकार समझते हैं. इसका स्पष्ट और मूल कारण उनका अपने धर्म शास्त्रों के प्रति अटूट विश्वास, श्रधा और आस्था है. जिनको वह अपने प्राणों से भी प्रिय समझते हैं. ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत जो इंसानों और इंसानों के दरम्यान ऊंच-नीच पवित्र-अपवित्र, छुआछूत और शुद्र-अछूत, पाप योनी जैसे धारणाएं प्रचलित थीं. वह स्पष्ट रूप में किसी तरह भी नए संविधान के साथ मेल नहीं खाती. धारा 13 ने तो हिन्दू ग्रंथों स्मृतियों आदि के उन सभी आदेशों व् निर्देशों और अन्य कानूनों और रीती-रिवाजों की धार्मिकता को ही रद्द कर दिया जो संविधान की मूल धारा के उलट और बेमेल हो. संविधान में दिए गए अधिकार समानता (धारा 14) मत प्रकट करने की (धारा 19), प्रतिष्ठा सहित जीने की आजादी (धारा 25) दलित आरक्षण (धारा 16) के सिद्धांत उनके गले के नीचे कैसे उतर सकते हैं. जिनके दिमागों में दलित को नीच और भार ढोने वाले जानवर समझने का कूड़ा भरा हुआ है.
गाँवों और शहरों में दलित कमज़ोर वर्गों पर जुल्म अत्याचार दलित औरतों का गैंग रैप और क़त्ल की दिल को दहलाने वाली वारदातें उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुई. दलित लड़की मनीषा की गैंग रेप और क़त्ल की घटना दिल्ली की निर्भय वाले रेप से किसी भी तरह कम दुखदायक नहीं है बल्कि अमानवीय व् बर्बरता के हिसाब से, उससे भी कहीं अधिक अधिक संगीन है. वहां के महंत योगी सरकार के इन्साफ की धार और रफ्तार देखिये! लड़की की लाश को बिना माँ-बाप या बहन-भाई को दिखाए आधी रात को पेट्रोल द्वारा जला दिया जाता है. इस तरह सबूत मिटा कर और परिवार को डरा धमका कर केस को ही मिटटी में मिलाने की कोशिश की जाती है. क्या यही वह हिन्दू राष्ट्रवाद की तस्वीर है जिसका ढिंढोरा यह लोग अपने आज्ञाकारी मीडिया के ज़रिये रात-दिन पीट रहे हैं?
राष्ट्रवाद या नेशन नाम की कोई भी चीज़ है भी या नहीं? देश का यह गंभीर सवाल और स्पष्ट होना क्यूँ ज़रूरी है उसका महत्त्व बाबा साहेब के उस एतिहासिक भाषण से भी समझा जा सकता है जो उन्होंने संविधान सभा में पच्चीस नवम्बर 1949 में दिया था. उस भाषण में जहाँ उन्होंने देश के सामने मजूद खतरों के बारे में अपने अंदेशों और सावधानियों का ज़िक्र किया था वहीँ उन्होंने देश के लिए सही राष्ट्रवाद की रूपरेखा की भी व्याख्या खुलकर की. शुरू शुरू में कांग्रेस के ठप्पे वाले राष्ट्रवाद की चर्चा थी जिसने बाद में अब आर.एस.एस. के प्रभाव में भगवा रंग धारण कर लिया है जबकि यह दोनों रंग असल राष्ट्रवाद के कहीं नज़दीक भी नहीं ठहरते. बाबा साहेब ने आदर्श राष्ट्रवाद की व्याख्या करते हुए कहा था- यदि हम भारतीय लोग अपने आप को एक नेशन, कौम या राष्ट्र समझते हैं तो हम बहुत बड़ा भ्रम पाल रहे हैं. हज़ारों जातियों में बंटे हुए लोग एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? इसलिए जितनी जल्द हम यह समझ लेंगे कि अभी हम सामाजिक और मनोवैज्ञानिक मायनों में एक राष्ट्र नहीं हैं उतना ही यह हमारे हित में होगा. इसके पश्चात् ही एक राष्ट्र बनने की ज़रुरत और उस के लिए ज़रूरी साधन और रास्ते बनाने के उपाय ढूंढ पायेंगे. जातियों के अस्तित्व को रस्ते का सबसे बड़ा रोड़ा करार देते हुए वह कहते हैं कि जातियां राष्ट्र विरोधी ‘एंटी नेशन’ हैं. क्यूंकि वह पहले तो सामाजिक जीवन में अलहदगी (separation) का कारण बनती हैं और फिर एक जाति और दूसरी जाति के बीच इर्ष्या व् दुश्मनी और नफरत पैदा करती हैं. क्या इस व्याख्या की रौशनी में आर.एस.एस. का हिदू राष्ट्रवाद असली राष्ट्रवाद के साथ कैसे भी मेल खाता है? जिस में सांप्रदायिक नफरत व् अलहदगी और द्वेष के इलावा और कुछ भी नहीं… ना ही सामाजिक एकता का जज़्बा न मनोवैज्ञानिक नज़दीकी के लक्षण. यदि देश के दूरदर्शी बुद्धिमान महापुरुषों ने देशवासियों के दिलों में नए संविधान के ज़रिये देश-प्रेम और भारतीय भाव के सूक्षम जज़्बात पैदा करने की कोशिश की तो इस कानूनी राष्ट्रवाद के झंडाबरदारों ने उसी संविधान की हड्डी पसली तोड़ने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी. कहीं गाय-रक्षा के नाम पर, कहीं लव जेहाद के नाम पर लिंचिंग कहीं रोमिओ दस्ते तो कहीं जातीय नफरत के कारण गरीब तबकों के ऊपर ज़ुल्म और अत्याचार! जो देश का हर तबका, हर वर्ग संविधान की मान-मर्यादा और बंदिशों को तोड़ कर बहुमत या मीडिया-माफिया और धन-दौलत जोर पर हुकूमत करनी चाहे तो फिर अराजकता या अनार्की किसे कहते हैं? अराजकता का दूसरा नाम अशांति और विनाश है. क्या देश और समाज ऐसे राष्ट्रवाद का स्वागत करने के लिए तैयार है?
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के.सी. सुलेख पंजाबी और अंग्रेजी भाषा के लेखक हैं, जिन्होंने बाबा साहेब आंबेडकर के साथ काम किया. वे अब 93 वर्ष के हैं और लेखन और अध्यन का काम जारी है.
पंजाबी से हिंदी भाषा में अनुवाद – गुरिंदर आज़ाद
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