जातीय वर्चस्व और लोकतंत्र
विनोद कुमार (Vinod Kumar)
उत्तर प्रदेश सामाजिक रूप से एक ऐसा राज्य है जहाँ सामंतवाद, और सवर्ण वर्चस्व का बोलबाला है. एक तरफ जहाँ राज्य के संसाधनों (जमीन, व्यवसाय, उद्योग) पर इन्ही सामंती जातियों का कब्ज़ा है तो दूसरी तरफ एक बहुसंख्यक बहुजन समाज मात्र श्रमिक बने रहकर ही सदियों से अपनी आजीविका चलाता आया है. यह आर्थिक असमानता मात्र आर्थिक असमानता तक सीमित नही है, यह निम्न कहे जाने वाले वर्ग व जातियों की राजनीतिक स्वंत्रता को भी प्रभावित करती है. देश की आजादी के समय बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर ने संविधान निर्मात्री सभा में भी इस बात का जिक्र करते हुए कहा था कि आर्थिक समानता के बगैर राजनीतिक समानता का कोई मूल्य नहीं है. ये वक्तव्य को ध्यान में रखकर यदि हम भारतीय चुनावी राजनीति का आंकलन करें तो स्वंत्रता के बावजूद भी दलित और दूसरी निम्न कही जाने वाली जातियां वास्तविक रूप से राजनीतिक स्वतंत्रता पाने में अभी भी कुछ हद तक विफल रही हैं. लोकतंत्र में यह माना जाता है कि राजनीतिक रूप से सभी व्यक्ति समान हैं और स्वतंत्र होकर वह अपने मत निर्धारित करते हैं. भारतीय ग्रामीण समाज जातिवाद, जातीय उत्पीड़न तथा अस्पर्श्यता की प्रयोगशाला है. सामाजिक असमानता उच्च जातियों के वर्चस्व और निम्न जातियों की पराधीनता को सामान्य बनाती है. इस तरह के बने समाजिक, और आर्थिक ताने-बाने में दलित व अन्य निम्न कही जाने वाली जातियों की राजनीतिक स्वतंत्रता और समानता संभवता दम तोड़ देती है. इस परिस्थिति में मुख्यतः निम्न जातियां राजनीतिक रूप से इन्ही सवर्ण/सामन्ती जातियों के हाँथ की कठपुतलियाँ बनकर रह जाती हैं.
अशिक्षा, गरीबी की वजह से राजनीतिक चेतना के आभाव के साथ-साथ यह सवर्ण/सामंती चक्रव्यूह ग्रामीण इलाकों में लोकतंत्र में भी एक प्रकार का अभिजात्य वर्ग का लौह नियम (Iron law of oligarchy) को सुनिश्चित करता है. इस सिद्धांत के बाहर जाने की यदि कोई कोशिश करता है तो वह विभिन्न प्रकार की जातीय प्रताडनाओं का शिकार संभवतः होता है. दलित उत्पीड़न इस जातिवादी समाज की एक पुरानी परम्परा रही है. पंचायती राज व्यवस्था जिसको महात्मा गाँधी का सपना और ग्रास रूट डेमोक्रेसी कहा जाता है, वास्तव में इस पंचायती व्यवस्था के द्वारा जातीय आधारित सवर्ण वर्चस्व और अवर्ण पराधीनता की संरचना और उसका स्वरूप और ज्यादा बेहतर तरीके से प्रस्तुत करता है. इसका बेहतर उदाहरण यह है कि पंचायती व्यवस्था में जो पद अनुसूचित जाति, और कुछ हद तक अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित पद होते हुए भी, बहुत हद तक उन पर भी वास्तविक शक्ति का संचालन यही सवर्ण/सामंती जातियां करती हैं. आरक्षित ग्राम प्रधान होने के बावजूद भी पंचायत किस तरह काम करेगी, पंचायत द्वारा दिए गए आवास, शौचालय, बी पी एल व अन्त्योदय कार्ड किसको मिलेंगे और किसको नहीं, नालियाँ व सड़कें किस मोहल्ले की बनेंगी किस मोहल्ले की नहीं, इन सब के अलावा सबसे अहम इन तमाम पंचायती कार्यक्रम व नीतियों द्वारा जो भ्रष्टाचार होता है उसमें किसका कितना हिस्सा होगा ये सब गावों के सबसे बड़े सवर्ण/सामंत द्वारा निर्धारित किया जाता है. मुख्यतः गावों में आरक्षित पद पर आने वाले प्रत्याशी किसी न किसी सवर्ण/सामंती समूह द्वारा समर्थित होते हैं जिसके कारण व हमेशा उनके प्रति आज्ञाकारी बने रहते हैं अंततः ये आरक्षित पद से चुने गए ग्राम प्रधान मात्र/सवर्ण सामंती जतियों के चंगुल में दबे रहते हैं. यदि सीट अनारक्षित है तो उसपर एससी उम्मीदवार नामांकन नही करते हैं. यदि नामांकन हुआ तो वह हो सकता है कि किसी सवर्ण सामंत उम्मीदवार की राजनीतिक हथकंडे का एक पार्ट होगा. यदि कोई एससी वास्तविक चुनौती प्रस्तुत करता है तो जातीय हिंसा होना लगभग तय होता है. मुख्यतः इन अनारक्षित पदों पर हमेशा सवर्ण सामंत ही जीतते हैं.
स्वतंत्रता के पश्चात मुख्य राष्ट्रीय दलों ने इन्ही ग्रामीण सवर्ण/सामंती जातियों के भरोसे अपनी सत्ता कायम करने का हमेशा एक सहज रास्ता अपनाया है. उत्तर भारत मुख्यतः उत्तर प्रदेश और बिहार में सवर्ण/सामंत मनी, मसल्स, और अन्य उपकरणों द्वारा लोकतान्त्रिक जनमत प्रणाली को मात्र एक खाना पूर्ति की प्रणाली बनाकर रखा है. जो दल इन सामंती समूहों को अपने अधीन कर पाता है उसके चुनाव जीतने की दर शत-प्रतिशत बढ़ जाती है. चाहे वो आम चुनाव हों या राज्य की विधान सभा चुनाव, गाँव में जनमत की खरीद-फ़रोख्त का एक बाजार स्वतः सज जाता है. मुख्य प्रभावशाली दल हर गावं से किसी न किसी सामंत को एक प्रकार का ठेका दे देते हैं जिसमे एक मोटी रकम इन सामंतों को मिलती है जिसके एवज में ये सवर्ण/सामंत साम-दाम-दंड-भेद की नीति अपनाकर इन पार्टियों के लिए पूरे गाँव का सौदा करते हैं. शराब और मांस की सामूहिक दावतें, हर परिवार के लिए कुछ पैसे एक आसान तरीका है वोटों को खरीदने का, इसके आलावा यदि कोई बगावत कर रहा है तो उसको डराना या धमकाना एक दूसरा तरीका है, इसके बावजूद भी बात नहीं बनी तो बल प्रयोग एक आम बात है जिसमे बगावत करने वाला निम्न जाति का कोई न कोई गाँव में अवश्य पीटा जायेगा, और वह दूसरे बागी प्रवृत्ति के लोगों के लिए एक सबक भी बन जाता है, ताकि भविष्य में कोई और ऐसी कोशिश न करे. इन प्रभावशाली जातियों के द्वारा ये जो रोल निभाया जाता है इससे क्षणिक आर्थिक लाभ के साथ-साथ इनको राजनीतिक संरक्षण तथा अपने क्षेत्र में कुछ भी करने का एक सर्टिफिकेट मिल जाता है. पुलिस प्रशासन से लेकर मंत्रालयों तक इनकी पहुँच आसानी से बन जाती है. अब यदि इनके द्वारा चाहे वैधानिक कार्य किये जायें या गैर वैधानिक कार्य, आसानी से ये राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करने में सक्षम होते हैं. सत्ता की यही संरचना दलित और अन्य निम्न जातियों के उत्पीड़न और उनकी पराधीनता को बनाये रखने में प्रभावी बनी रहती है और इस तरह यहाँ कमजोर वर्ग की मुक्ति का रास्ता लगभग बंद हो जाता है. इन सवर्ण जातियों का कोई न कोई सदस्य लगभग हर प्रमुख दल में अपनी पहुँच बनाकर रखता है जिसका सीधा सम्बन्ध यह है कि सत्ता में कोई भी दल आये पर गाँव की राजनीति में इन्ही की सत्ता सदैव कायम रहेगी. इस तरह भारतीय लोकतंत्र लोगों द्वारा संचालित तंत्र न बनकर महज सवर्ण/सामंत संचालित लोकतंत्र (savarna/feudal ridden democracy) या फिर कहा जाये तो सवर्ण/ सामंतों का लौह नियम (Iron Law of Savarna/feudals) बनकर रह जाता है.
लोकतांत्रीकरण में बहुजन समाज पार्टी का योगदान
यदि उत्तर प्रदेश की राजनीति का विश्लेषण करें तो ऐसा नहीं है कि कभी सवर्ण वर्चस्व को चुनौती नही मिली है, बहुजन समाज पार्टी द्वारा संचालित सरकार में दलित और अन्य पिछड़ी जातियों ने कुछ हद तक एक आत्म-विश्वाश का अनुभव किया. ऐसा समाज जहाँ जातीय हिंसा और उत्पीड़न सामान्य है वहां निम्न जातियों की सुरक्षा और उनका संरक्षण सिर्फ उनकी सुरक्षा का सवाल बनकर नहीं रह जाता बल्कि यह लोकतंत्र को मजबूत करने का व निम्न जातियों की राजनीतिक स्वतंत्रता का भी सवाल बन जाता है. अमूल चूल सामाजिक व आर्थिक बदलाव न होने के बावजूद भी बी.एस.पी. की राजनीति ने इन निम्न तबकों को एक राजनीतीक शक्ति का एहसास दिलाने में बहुत हद तक सक्षम रही है. बी.एस.पी. की राजनीति का लोकतंत्र को मजबूत करने में दो अहम पहलुओं का विश्लेषण किया जा सकता है: एक मनोवैज्ञानिक और दूसरा व्यवहारिक.
मनोवैज्ञानिक तौर पर यदि देखा जाये तो बी.एस.पी. एक दलित/बहुजन पार्टी की छवि लेकर भारतीय चुनावी राजनीति में उभरी, जिसको समझा गया की यह दलित/बहुजनों की सुरक्षा व उनके उत्थान के लिए एक सक्रीय भूमिका निभाएगी और कुछ हद तक इसमें यह पार्टी सफल भी रही. जब देश के सबसे बड़े सूबे में इस पार्टी की सरकार बनी तो इसका असर वास्तव में मनोवैज्ञानिक तौर पर पूरे समाज पर पड़ा. एक तरफ जहाँ निम्न कही जाने वाली जातियां सुरक्षित वातावरण में खुद को सशक्त महसूस करने लगीं, वहीं सवर्ण सामंती जातियां हिंसा करने से कुछ हद तक इसलिए बचने लगीं कि इस सरकार में उचित कार्यवाही हो सकती है. इस तरह मनोवैज्ञानिक तौर पर उत्तर प्रदेश के सवर्ण/सामंती समाज में बहुत हद तक बदलाव को वास्तविक रूप से महसूस किया गया.
व्यवहारिकता में जब कभी प्रशासन और कानून व्यवस्था की बात ईमानदारी के साथ की जाएगी तो उसमे उत्तर प्रदेश की मायावती के नेतृत्व की बी.एस.पी. सरकार सबसे बेहतर उदाहरण पेश करती है. जातीय तथा सांप्रदायिक हिंसा के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे अग्रिम राज्यों में से एक है, बी.एस.पी. सरकार इन दंगो व हिंसाओं पर बहुत हद तक नियंत्रण करने में सक्षम रही, वहीं जातीय प्रताड़ना के मामलों पर प्रभावी नियंत्रण रहा. जातीय हिंसा के लगभग सभी मामलों पर उचित कार्यवाही होना लगभग तय होता था. स्वतंत्रता के बाद दलित उत्पीड़न को नियंत्रित करने के संवैधानिक व वैधानिक नियम बनाये गए हैं परन्तु इन नियमों व कानूनों का पालन मुख्यतः एससी/एसटी पी.ओ. एक्ट प्रभावी ढंग से मायावती सरकार में किया गया. इसका उदाहरण यह है कि दलित उत्पीड़न के मामलो पर कन्विक्शन रेट अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा होते थे. मायावती सरकार में अपराधिक मामले मुख्यतः दलित उत्पीड़न का मामला दर्ज होना और उस पर उचित कार्यवाही सुनिश्चित होता था. अतः इन आंकड़ों का दस्तावेज बनना स्वाभाविक है. नेशनल क्राइम ब्यूरो की रिपोर्ट के हिसाब से 2009 में उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा दलित उत्पीड़न के मामले सामने आये (23.6%) वहीँ बिहार में मात्र 1.5% और तमिलनाडू में 0.8 % ही मामले सामने आये. बिहार में इन मामलों का कन्विक्शन रेट मात्र 11.6 % और तमिलनाडू में 12.5% रहा और ये रेट उत्तर प्रदेश में 52.6% रहा (NCRB 2010, QTD. in ए. रमैया 2011). दलित उत्पीड़न भारतीय समाज में एक आम बात बना हुआ है, अधिकतम मामले बिना किसी ऍफ़.आई.आर. और सुनवाई के बगैर लोकल पुलिस और ग्रामीण सवर्ण/सामंतो द्वारा रफा-दफा करवा दिए जाते हैं/ इसीलिए अधिकतर बिना दर्ज किये गए मामले आंकडे नहीं बन पाते. अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के हाथरस घटना एक ज्वलंत उदाहरण जिसमे सवर्ण/सामंती वर्चस्व और शासन तंत्र द्वारा किस तरह एक अमानवीय घटना को दबाने की कोशिश गयी.
जातीय हिंसा और दलित उत्पीड़न को ध्यान में रखते हुए बी.एस.पी. सरकार ने दलित जातियों की आत्म-रक्षा के लिए शस्त्र रखने के लाइसेंस जारी करवाने का एक तरीका भी अपनाया. यदि उत्तर प्रदेश की जातीय हिंसा को ध्यान में रखा जाये तो इसको एक महत्वपूर्ण नीति के अंतर्गत रखा जा सकता है. इसके आलावा एक महत्वपूर्ण कार्य सरकारी ग्राम सभा की जमीन के पट्टे एक बड़े दलित तबके को मुहैया करवाना है. मुख्यतः ग्राम सभा की जमीन/सवर्ण सामंती जातीय के कब्जे में रहती थी जिस पर दलित मात्र खेतिहर मजदूर की तरह काम करते थे. दलितों के नाम इन जमीनों का पट्टा होने के बावजूद भी कब्ज़ा करना एक बड़ी चुनौती थी. लेकिन बी.एस.पी. सरकार होने के कारण इस तरह के मामले सुलझना नामुमकिन नही था. बी.एस.पी. सरकार द्वारा किये गए ये कुछ कार्यों से दबी-कुचली कही जानी वाली जातियां बहुद हद तक सुरक्षित महसूस कर पायीं और उनमे एक आत्म विश्वाश जगा.
वास्तविक रूप में भारतीय समाज एक जटिल सामाजिक संरचना का स्वरूप है जिसमे स्वतंत्रता के बाद हमने संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाया और फर्स्ट पास्ट पोस्ट सिस्टम (first past of the post system) मतदान प्रणाली अपनाई जिसकी अपनी सीमायें व समस्याएं हैं. उस लिहाज से बी.एस.पी. की आलोचना भी की जा सकती है परन्तु भारतीय राजनीति व समाज का लोकतान्त्रीकरण की प्रक्रिया में बी.एस.पी. जैसे दलों का एक भिन्न प्रकार का महत्व है. इन दलों के द्वारा जिस राजनीति को बढ़ावा मिलता है उसमें एक कमजोर जातीय तबका राजनीतिक आधार के साथ साथ सामाजिक रूप से भी सबल होता है जो कि दोनों राजनीतिक और सामाजिक लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लिए आर्थिक समानता हो सकती है एक लम्बी प्रक्रिया हो, परन्तु सामाजिक सुरक्षा और निम्न कही जाने वाली जातियों की सवर्ण सामंती हिंसा से सुरक्षा तत्काल प्रभावी लोकतंत्र के लिए अति आवश्यक उपाय है जिसमे की बी.एस.पी. जैसे दल एक अहम भूमिका निभा चुके हैं और निभा सकते हैं.
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विनोद कुमार सेण्टर फॉर वेस्ट एशियन स्टडीज, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में पी.एच.डी. कर रहे हैं.
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