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डॉ. अमृतपाल कौर (Dr. Amritpal Kaur)

मनुष्य में यौन भावनाओं की क्षमता को लैंगिकता (Sexuality) का नाम दिया गया है. लैंगिकता को विचारों, कल्पनाओं, अरमानों, विश्वासों, रवैयौं, मूल्यों, व्यवहारों, आचरणों अथवा संबंधों के माध्यम से अनुभव और व्यक्त किया जाता है. सामंजस्यपूर्ण समाजिक और पारस्परिक संबंधों के निर्माण के लिए लैंगिकता का एक साकारात्मक अथवा रचनात्मक ढंग से विकसित होना अनिवार्य है. यौन संबंधी भावनाओं और विचारों का प्रबंधित होना मनुष्य की नैतिकता पर निर्भर करता है, जिसका संबंध धार्मिक विश्वास और मूल्यों से जुड़ा होता है. धर्मों में नैतिकता की परिभाषा का प्रबंध लिंग या यौन आधारित भावनाओं को सही यां गलत दृष्टि प्रदान करता है.

लैंगिकता और यौन अभिविन्यास (sexual orientation) मनुष्य के व्यक्तित्व का एक आंतरिक और अविभाज्य अंग होता है. लैंगिकता और प्रजनन इंसानों के बीच की परस्पर क्रिया का एक मौलिक अंग है. किसी भी समाज के लैंगिक अथवा यौन आचरण के मापदंड उस समाज की धार्मिक धारणाओं के साथ जुड़े होते हैं. लगभग सभी धर्मों ने निजी नैतिक आचरण संहिता को विकसित किया है जो लैंगिकता के साथ जुड़े मुद्दों को आदेशपूरवक ढंग से निपटाते हैं जिनमें विवाह, आचार-विचार, नैतिकता, पाप-पुण्य, यौन साथी का चुनाव, यौन व्यवहार का प्रतिरूप, गर्भावस्था के प्रति रवैया, गर्भनिरोधक का इस्तेमाल, विवाहपूर्ण यौन संबंध प्रमुख हैं. धर्मों की लैंगिकता के प्रति सीमाओं में बंधी सोच उनके अनुयायियों का यौन आचरण परिभाषित करती है.

सभी धर्मों की सार्वभौमिक विशेषता है उनका लैंगिकता के प्रति रूढ़ीवादी और अपरिवर्तनवादी नज़रिया. धार्मिक नैतिकता यौन संबंधों को प्रजनन और परिवार के पालन-पोषण तक सीमित करके लैंगिक अभिव्यंजन का दायरा धार्मिक स्वीकृति प्राप्त संबंधों तक सीमाबद्ध करती है. लैंगिकता को लेकर जितनी भी रोक टोक है वह औरतों पर मढ़ी गई है जबकि पुरुषों के हिस्से में यौन स्वतंत्रता अधिकार के रूप में मौजूद है.

अधिकांश धर्म नारीत्व और दिव्य/ पवित्रता के टकराव में उलझकर सीमित रह गए हैं जिस वजह से हर धर्म औरत के स्त्रीत्व से खौफ खाता है और औरत को पर्दे में ढक कर, चारदीवारी में कैद कर के रखता है अथवा नारीत्व को नीचा दिखाकर अपमानित करता है. सार्वजनिक स्थानों पर औरत की लैंगिकता के प्रति एक सामान्यीकृत भयग्रस्त रवैया है जिसके तहत औरतों के पहरावे, व्यवहार, आदि पर कड़ी नजर रखी जाती है.

बहुत ही भद्दे और बेहूदा किस्म के शब्द नारीत्व के लिए कई धर्मों में इस्तेमाल किए गए हैं जैसे कि नारी नरक का द्वार है, नारी की योनी एक गंदे नाले के ऊपर मंदिर बनाने जैसा है, आदि. सभी धर्मों ने औरत को किसी न किसी रूप में शापित किया है. मनुस्मृति में पुरोहित वर्ग का नारीत्व के लिए जूनून साफ़ नज़र आता है. सभी पौराणिक कथाएं औरत के अस्तित्व को एक दायरे में परिभाषित करती हैं जिनमें वह एक तरफ मर्दों को लुभाती अप्सराएं, उग्र कामुकता से लैस सुंदरीयां दिखाई जाती हैं और दूसरी तरफ आज्ञाकारी बीवी और कुंवारी बेटीयां. कहीं भी औरत की लैंगिकता को औरत के अस्तित्व का एक स्वाभाविक अंग नहीं बताया गया है. पुरुषों को लुभाती मनमोहक अप्सराओं का धार्मिक ग्रंथों में पुरुष समकक्ष कहीं भी देखने को नहीं मिलता.

बुद्ध ने औरत को कभी यह कह कर शापित नहीं किया वह एक भोग-विलास की वस्तु है यां उसमें कोई ऐसी शक्ति है जिसके इस्तेमाल से वह मर्दों को अनैतिक कर्म करने के लिए उकसाती है, न ही औरत एक कुदरती शैतान है. वह कहते हैं कि यदि आपको कोई अवक्षेप के बारे में चेतावनी देता है तो इसका अर्थ यह हरगिज़ नहीं है कि वह अवक्षेप में कुछ बुराई है. इसी तरह अगर कोई पुरुष महिला को बिना शैतानी ख्यालों के उत्पन हुए नहीं देख सकता तो इसका मतलब यह नहीं है कि महिलाओं में कुछ बुराई है. पुरुषों के अनैतिक व्यव्हार की ज़िम्मेदार महिला का अस्तित्व नहीं है अथवा पुरुष को अपने किरदार में नैतिकता और संयम पैदा करना चाहिए. जबकि बाकी धर्म कहते हैं कि औरत को खुद को काबू में रखना आना चाहिए ताकि पुरुष खुद को काबू में रख सकें.

सभी धर्म औरतों को यह सिखाते हैं कि ईश्वर यौन संबंधों और औरत की लैंगिकता को नाकारात्मक नज़रिए से देखता है. धर्मों के ऐसे व्यवहार की वजह से औरतों में अपनी लैंगिकता को लेकर शर्म और संकोच रहता है जिसकी वजह से वह अक्सर आत्मग्लानि में रहती हैं. धार्मिकता और नैतिकता के बीच औरत का अस्तित्व कैद है और इस वजह से वह न तो अपनी लैंगिकता का तर्कसंगत अनुभव कर पाती है और न ही स्वाभिमान के साथ स्वीकार कर पाती है. धार्मिक-नैतिकता की परिभाषा इस तथ्य को अनदेखा कर देती है कि यौन संबंध और लैंगिकता इस बात का संकेत हैं कि भाईचारा, दोस्ती और नज़दीकी रिश्ते इन्सानियत को विकसित करने के लिए अनिवार्य हैं, और न ही धार्मिक नैतिकता यह बात समझने में सक्षम है कि यौन संबंध और लैंगिकता का प्रतिकात्मक अर्थ साथी मानवता में मानव अस्तित्व का वाचक होना है.

बुद्धिज़म में पाप-पुण्य और आत्मग्लानि के सिद्धांतों को कोई दार्शनिक मान्यता नहीं है इसलिए लैंगिकता और यौन संबंधों को पाप न मानकर एक उदारवादी नज़र से देखा जाता है. पाप को अन्य सभी धर्मों में ईश्वर की तौहीन समझा जाता है. ईश्वर जो हमसे उम्मीद रखता है उसकी उल्लंघना करना एक धार्मिक व्यक्ति के लिए ईश्वर की तौहीन करना है और यह वैचारिक और मानसिक स्तर पर सबसे बड़ा जुर्म होता है. पाप-पुण्य का सिद्धांत अनुयायियों की मानसिकता में डर को बढ़ावा देकर काम करता है कि ईश्वर की तौहीन करोगे तो वह तुम्हें सज़ा देगा. इस डर का सबसे ज़्यादा असर औरतों की मानसिकता पर होता है क्योंकि वह हर स्तर पर पुरुषों पर निर्भर होती हैं.

बुद्धिज़म के मौलिक सिद्धांतों की जड़ें मज़बूत और स्पष्ट नैतिक आचरण में हैं और इस विषय को बारीकी से समझने के बाद ही हम बुद्धिज़म में लैंगिकता और यौन संबंधों की परिभाषा का स्पष्टीकरण कर सकते हैं. बुद्धिस्ट नैतिक आचरण दो अवधारणाओं पर टिका है – पहिला हानिरहित और कुशल, दूसरा हानिकारक और अकुशल. मनुष्य द्वारा की गई कुछ क्रियाएं हानिकारक होती हैं जो दूसरों को हानि पहुंचाती हैं और कुछ हानिरहित होती हैं जो न सिर्फ दूसरों के लिए खुशी लातीं हैं बल्कि पूरे समाज के लिए लाभकारी होती हैं. मनुष्य द्वारा किये कार्यों का हानिकारक यां हानिरहित होना उसके विचारों पर निर्भर करता है. अगर आप अच्छे विचारों को पैदा करने में कुशल हैं तो आपकी कार्यशैली आपके और समाज के लिए फायदेमंद साबित होगी. कुशलता मनुष्य का इच्छानुरुप या आंतरिक दृष्टिकोण होता है और अकुशलता बाहरी रूप. बुद्धिस्ट नैतिकता मनुष्य की विचार प्रणाली को बदलना सिखाता है, ईश्वर के प्रति फ़र्ज़ तक सीमित नहीं करता.

बुद्धिज़म के पांच उपदेश सही दृष्टिकोण उत्पन करने में सहायता करते हैं :-

  1. जीव हत्या न करना
  2. चोरी न करना
  3. व्यभिचार न करना (यौन दुराचार)
  4. झूठ न बोलना
  5. नशा न करना

बुद्ध कहते हैं, “सभी बुराइयों से बचो, अच्छे कर्म करो, मन को शुद्ध करो.” बुराइयों से बचने का अर्थ है अच्छे कर्म करना जो सबकी खुशहाली के लिए फायदेमंद हों. यह जीवन शैली मनुष्य की मानसिकता को धीरे धीरे गलत और अकुशल विचारों से शुद्ध करता है. समय के साथ साथ हमारी विचार प्रणाली में निपुणता आती है तो हमारी विचार क्षमता कुशल होने लगती है और क्रिया प्रणाली हानिरहित बन जाती है.

बुद्धिज़म में स्वेच्छाचारी निषेध नहीं है. समलैंगिकता यां आत्म-संतोषजनक क्रियाओं पर पाबन्दी नहीं है क्योंकि यह पीड़ित-रहित क्रियाओं की श्रेणी में आते हैं. यौन दुराचार जैसे बलात्कार, व्यभिचार, बच्चों के साथ यौन संबंध बनाना, आदि की बुद्धिज़म में कड़ी मनाही है क्योंकि यह दुराचार इन्सानी रिश्तों के भरोसे पर चोट करते हैं और इनके परिणाम व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर हानिकारक होते हैं. समस्या यह है कि यौन और लैंगिकता को बहुत सारी अकुशल विचारों की परतों में लपेट कर अनैतिक तरीके से इस्तेमाल किया जाता है. बुद्धिज़म हमें सही और ग़लत दृष्टिकोण में फर्क करना सिखाता है ताकि इनके हानिकारक परिणामों से बचा और बचाया जा सके.

अधिकांश धार्मिक लोग यह सवाल उठाते हैं कि ईश्वर की अनुपस्थिति में नैतिकता का क्या फ़ायदा है. अगर उनके व्यवहार का कोई शक्ति निरीक्षण नहीं करती है तो उन्हें प्रोत्साहन और प्रलोभन कौन देगा. नैतिकता का पूरा सिद्धांत प्रलोभन और प्रोत्साहन पर निर्भर करता है न कि इन्सान और इंसानियत की बेहतरी के लिए. बौद्ध धम्म में नैतिकता को ईश्वर के साथ न जोड़कर इन्सान से इन्सान का रिश्ता बेहतर और लयबद्ध बनाने के सिद्धांत पर टिका है जिसका फ़ल इन्सान को इसी जीवन में मिलता है.

नैतिक व्यवहार बुद्धिज़म में मनुष्य की निजी ज़िम्मेदारी है न कि किसी दिव्य शक्ति द्वारा ठहराया गया आदेश. बुद्धिज़म आपको न सिर्फ विकल्प देता है बल्कि इन विकल्पों पर पूरी तरह से किन्तु-परन्तु और छानबीन करने का मौलिक अधिकार भी देता है जो दूसरे धर्म नहीं देते. आपको सवाल उठाने पर दंडित नहीं किया जाता बल्कि प्रेरित किया जाता है कि आप सवालों के जवाब खुद ढूंढीए. बौद्ध धम्म मनुष्य की विचार प्रणाली को नैतिकता की सही और तर्कसंगत परिभाषा के ज़रिए पुनरावर्तित करता है ताकि उसकी विचार प्रणाली और क्रिया प्रणाली में लयबद्धता पैदा हो जो मनुष्य का कर्म निर्धारित कर सके. बौद्ध धम्म में कर्म का अर्थ इच्छानुरुप क्रिया प्रणाली है जो विचारों की शुद्धि-अशुद्धि पर निर्भर करता है, न कि किस्मत या नसीब से.

जैसे जैसे हम धम्म का अभियास करते जाते हैं हमारा मन वन के तालाब की तरह साफ़ और शुद्ध होने लगता है जिसमें उठती हर छोटी-बड़ी लहर और हलचल का आभास देने लगती है. समय के साथ साथ हमारी बुद्धिमत्ता विकसित और गहरी होने लगती है और हम हर आभास का निरीक्षण कर उसे हानिरहित क्रिया में तब्दील करने में सक्षम हो जाते हैं. हमें समझ आने लगता है कि अकुशलता दरअसल अहंवाद (अहंकारवाद) के साथ जुड़ी है जो हमारे अंदर आत्मकेंद्रितता का स्थाई भ्रम बनाए रखती है जिसकी पूर्ति करना हम अपना लक्ष्य समझने लगते हैं. यहां बुद्ध का ‘अनाता’ का सिद्धांत उपयोगी है जो अहम को यह कह कर नाकार देता है कि अहम मनुष्य के अस्तित्व से जुदा कोई ईकाई नहीं है जिसे खुश रहने के लिए लुभाना अनिवार्य है. अहम को बौद्ध धम्म में एक अकुशल विचार माना जाता है जो हमारे अंदर लोभ पैदा कर हमें कुशलता के रास्ते पर चलने से रोकता है.

बौद्ध धम्म में कुशलता स्वेच्छाचारी निर्णयों और सामाजिक मानदंडों को दूसरों पर थोपना नहीं है न ही किसी व्यक्ति में उसके अकुशल विचारों की वजह से आत्मग्लानि पैदा करना है. कुशलता के ज़रिए मनुष्य अपने मन की कार्य प्रणाली को समझने में सक्षम बनता है ताकि वह तर्कसंगत विकल्पों के ज़रिए अपने और समाज की बहाली में योगदान दे सके. बौद्ध धम्म कुशल अकुशल को याद रखना नहीं सिखाता बल्कि निजी स्तर पर महसूस करना सिखाता है.

बौद्ध धम्म में कुशल-अकुशल के सिद्धांत को समझ कर हम वासना और प्रेम के बीच की अंतर कड़ी को समझ सकते हैं. प्रेम का आनंद सुखद है जबकि वासना का आनंद अल्पकालिक और दर्दनाक है, हालांकि दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. दोनों में फर्क केवल मात्रा का है. हवस जबतक आनंद की हद तक रहती है तब तक उसे हानिकारक नहीं कह सकते. प्रेम और हवस एक चक्र बना कर काम करते हैं और एक-दूसरे को वातानुकूलित कर अपने दरमियान एक अंतरंग संबंध बनाए रखते हैं. अकुशल विचारों की वजह से जब इस चक्र का घुमाव ज़रूरत से अधिक होने लगता है तो वह पथभ्रष्ट हवस का रूप ले लेता है. यह यौन दुराचार को जन्म देता है. बौद्ध धम्म का निरंतर अभ्यास हमें मध्य मार्ग पर चलना सिखाता है ताकि हम अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर उत्तेजित होने से बच सकें. समय के साथ हमें समझ आने लगती है कि कौन सी भावना कितनी मात्रा में हमारे और दूसरों के लिए लाभकारी है.

बौद्ध धम्म में लैंगिकता और यौन संबंधों के समर्थन का विस्तार समझने के लिए बौद्ध धम्म में नैतिकता के दायरे को समझना अति अनिवार्य है. बौद्ध धम्म में नैतिकता केवल व्यक्तिगत और धार्मिक भाई बंधुता तक सीमित नहीं है बल्कि सार्वभौमिक है. इसलिए बुद्धिज़म में लैंगिकता और यौन विषयों की स्वीकार्यता और दायरा बाकी धर्मों के मुकाबले विशाल है. यह देखा गया है कि बुद्धिस्ट देशों में लैंगिक अलगाववाद कम होने की वजह से यौन अपराध कम होते हैं.

सार्वभौमिक नैतिकता समाज में फैली कुरीतियां जैसे बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, विवाह के दायरे में यौन शोषण, घरेलू हिंसा, बाल उत्पीड़न, छेड़छाड़, जाति सूचक यौन उत्पीड़न, आदि को सही करने में न केवल पर्याप्त अवसर प्रदान करती है बल्कि व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर अनुकूल परिस्थितियाँ भी पैदा करने में सहायता करती है. बौद्ध धम्म महिलाओं की लैंगिकता और प्रजनन क्षमता को सख़्त पितृसत्तात्मक और प्रतिगामी कर्मकांड संहिता से मुक्त कर उन्हें यौन स्वतंत्रता मौलिक अधिकार के रूप में देता है. जीवन विकल्पों के कारण आत्मग्लानि की भावना को पैदा होने से रोकता है.

यौन क्रांति के लिए मन क्रांतिनुमा परिवर्तन होना लाज़मी होता है. मौलिक रूप में पुनरूद्धारक और परिवर्तनकारी होने की वजह से बौद्ध धम्म यौन क्रांति की शुरुआत करने के लिए उपयुक्त धर्म है, खासकर दलित महिलाओं के लिए क्यों कि उनका यौन उत्पीड़न केवल लैंगिकता के दायरे तक सीमित नहीं है बल्कि जातिगत भी है. यौन क्रांति को दलित क्रांति का आंतरिक अंग बनाना दलित क्रांति की रफ्तार और प्रगति के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जिसे अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता.

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References:

1. The Essence of Buddhism by P. Lakshmi Narasu

2. Sex, Sin and Zen by Brad Warner

3. Headscarves and Hymens by Mona Eltahawy

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डॉ अमृतपाल कौर एक लेखक हैं व् पेशे से एक ‘ओरल और डेंटल सर्जन’ (oral and dental surgeon) हैं जो कि जालंधर (पंजाब) में प्रैक्टिस कर रही हैं.  

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