जेएस विनय (JS Vinay)
“अत्त दीपो भव:– अपना दीपक खुद बनो” ~ बुद्ध
“आपको अपनी गुलामी खुद ही खत्म करनी होगी. इसके उन्मूलन के लिए भगवान या सुपरमैन पर निर्भर न रहें। याद रखें कि यह पर्याप्त नहीं है कि लोग संख्यात्मक रूप से बहुमत में हैं. सफलता प्राप्त करने और बनाए रखने के लिए उन्हें हमेशा सतर्क, मजबूत और स्वाभिमानी होना चाहिए. हमें अपने मार्ग को स्वयं ही आकार देना है.” ~ डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर, Vol 1, Page 212, BAWS.
कुछ दिनों पहले तमिल फिल्म सारपट्टा परंबराई अमेज़न प्राइम पर रिलीज़ हुई थी. पा रंजीत द्वारा निर्देशित और आर्य, पसुपति, जॉन विजय, जॉन विजय, दशहरा विजयन, कलैयारासन, शबीर कल्लारक्कल, आदि जैसे अभिनेताओं द्वारा अभिनीत यह फिल्म दुनिया के महानतम खिलाड़ी मुक्केबाज मोहम्मद अली को एक श्रद्धांजलि है.
मुझे फिल्म देखने का मौक़ा मिला और मैंने इसे कई बार देखा. फिल्म अनिवार्य रूप से 1970 के दशक में उत्तरी मद्रास की बॉक्सिंग परंपरा पर आधारित है. यह कबिलन (आर्या) की कहानी है जो रंगन (पसुपति) द्वारा प्रशिक्षित अपने कबीले के लिए बॉक्सिंग करता है. कई मायनों में यह फिल्म असाधारण है. हालांकि मेरी पृष्ठभूमि तमिल नहीं है न ही यह भाषा मुझे आती है, तो अपनी इन सीमाओं के बावजूद आपके सामने वह सब रखने का प्रयास करूंगा जिन्हें मैं सारपट्टा परंबराई फिल्म देखते हुए महसूस किया. मैं फिल्म के कथानक में नहीं जाऊंगा, लेकिन फिल्म में दिखाए गए कई विषयों के बारे में अपनी समझ को निम्नलिखित बिन्दुओं के ज़रिये रखना चाहूँगा.
1. आत्म जागरूकता की प्राप्ति
पूरी फिल्म अपना खुद का मार्ग/अस्तित्व खोजने के इर्द-गिर्द घूमती है. जैसा कि बुद्ध कहते हैं, “अत्त दीपो भव”, जिसका अर्थ है अपना स्वयं का प्रकाश बनो. किसी भी इंसान के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होती है कि वह वास्तव में कौन है और वे जो कुछ भी करते हैं वह किसी और को नहीं बल्कि खुद को साबित करने के लिए करते हैं. यह अंतर्निहित संदेश है. दुनिया में तहलका मचाने वाले हिट गाने नी ओली के बोल बिल्कुल उसी दर्शन को समर्पित हैं.
2 . दर्शकों से जुड़ाव
आम दर्शकों के लिए मुक्केबाजी कभी-कभी एक आसान खेल है लेकिन साथ में ही कभी-कभी अंक प्रणाली के चलते जटिल हो जाता है. सारपट्टा परंबरई में पा रंजीत ऐसा करते हैं कि वह सामान्य दर्शकों को नियमों के बारे में सहज बनाते हैं. वह अंक प्रणाली को फिल्म में लाते ही नहीं, बल्कि सारे मैच हमेशा एक साधारण नॉकआउट प्रणाली से होते हैं ताकि जो परिणाम निकले वह दर्शकों को आसानी से समझ में आ जाये और वे फिल्म की कहानी के साथ आगे बढ़ते जाएँ.
इसके अलावा, फिल्म सामान्य दर्शक के स्तर पर बनी रहती है और कोई शब्दजाल का उपयोग नहीं होता है. भारत जैसे देश में जहाँ लोग कई गैर क्रिकेट/फुटबॉल/हॉकी खेलों को नहीं समझते हैं, उस दृष्टिकोण से यह महत्वपूर्ण है. यहां तक कि फिल्म में बॉक्सिंग कमेंटेटर भी ऐसी भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिसे दर्शक आसानी से समझ सकते हैं. फिल्म की वास्तविकता कई बार हास्य के रंग में लिपटी दर्शकों को हंसाती है, लेकिन इस बात का भी ख्याल रखती है कि दर्शक इतिहास और खेल को समझ पाएं.
दरअसल यह फिल्म बॉक्सिंग की भाषा का उपयोग करके वैश्विक दर्शकों से जुड़ने की क्षमता रखती है, जिसका अर्थ है कि फिल्म में न केवल स्थानीय अपील है, बल्कि वैश्विक अपील और दर्शक भी हैं.
3. काम करने वाले श्रमिक शोषित वर्ग की मूल संस्कृति की समझ
फिल्म से पता चलता है कि निर्देशक रंजीत को उत्तरी चेन्नई के श्रमिक वर्ग की संस्कृति, लोगों और उनके मुक्केबाजी के प्रति प्रेम की अपार समझ है. यहां तक कि फिल्म में इस्तेमाल की गई बोली भी उत्तरी चेन्नई की बोली है. फिल्म आपको आसानी से 70 के दशक में वापस ले जाती है. उस समय की वेशभूषा, रोशनी, हेयरस्टाइल, कपड़े आदि को कुछ यूं दिखाया गया है कि देखते ही भाता है और बहुत विश्वसनीय लगता है.
4. सामाजिक राजनीतिक समझ
फिल्म 1970 के दशक के भारत में आपातकाल के समय की स्थिति को भी स्पष्ट रूप से दिखाती है. उस समय की सत्ताधारी पार्टी द्रमुक इसका कड़ा विरोध कर रही थी. परिस्थितियों को बखूबी दिखाया गया है. जब कोच रंगन की गिरफ्तारी होती है तब एमजी रामचंद्रन (एमजीआर) बनाम दिवंगत करुणानिधि जैसे लोगों की अलग सोच को दर्शाता है. एमजीआर के शासन के दौरान जुआ और शराब के व्यापार जैसी चीजों को बढ़ावा दिया गया था जिसे इस फिल्म में दिखाया गया है. जब कोच जेल से छूटता है, तो बैंड द्वारा बजाया गया संगीत AIADMK का होता है.
5. शोषित समूह का मानवीकरण
यहां शोषित समूह को पीड़ित के रूप में नहीं बल्कि विजेता के रूप में दिखाया जा रहा है. वे कैसे रहते हैं, इसमें एक निश्चित गरिमा दिखाई जा रही है. यह दिखाया गया है कि वे कैसे गाते हैं, नृत्य करते हैं, खाते हैं, एक साथ काम करते हैं. एक ऐसी जगह है जहां दलित, मुस्लिम (सबसे अधिक संभावना निम्न कही जाने वाली जाति वाले, यानि पसमांदा मुस्लमान), ईसाई (यहां पहली बार एंग्लो इंडियन समुदाय दिखाया गया है) एक ही इलाके में एक साथ ख़ुशी ख़ुशी रहते हैं.
यहाँ सफलता सामूहिक रूप में मनाई जाती है. यहां तक कि मुख्य किरदारों के बीच की शादी भी बेहद अनोखी दिखाई है. यह कोच द्वारा मनाई गई है. इसमें कोई ब्राह्मण पुजारी नहीं है. साथ ही बहुत सारे स्थानीय देवी-देवताओं के नाम लिए जाते हैं और वह भी सभी धर्मों से। एकदम गैर ब्राह्मण पद्दति इस्तेमाल की गयी है.
बॉक्सिंग मैचों के दौरान भी समुदाय द्वारा जीत और हार को कैसे महसूस किया जाता है, उसका महत्व दिखाया गया है. लोगों के दैनिक जीवन को खूबसूरती से पेश किया गया है. उदाहरण के लिए, काबिलन और उसकी पत्नी मरियम्मा के बीच रोमांस और झगड़ा.
ऐसे कई उदाहरण हैं जहां जातीय-कोण को बारीकी से दिखाया गया है. जैसे, जब खलनायक कबिलन को वही काम करने के लिए कहता है जो उसकी जाति के लोग शवों के अंतिम संस्कार और सीवरों की सफाई के लिए करते हैं.
6. सामजिक बुराइयों के खतरे और नतीजे
शराब पीने के खतरों को फिल्म में बहुत स्पष्ट रूप से दिखाया गया है जब कबिलन जीवन में खो जाता है और शराब के नशे में लगभग अपनी जान गंवा देता है. यह कई समुदायों में एक बड़ी समस्या है और इसका खामियाजा अक्सर घरों की महिलाओं को भुगतना पड़ता है. रंजीत ने अपनी पिछली ब्लॉकबस्टर फिल्म काला से भी यही संदेश दिया है, जहां मुख्य नायक भी गलती से शराब पीने के लिए पछताता है क्यूंकि उसका सबकुछ तबाह हो जाता है.
7. चिन्हों का प्रयोग
पा रंजीत बहुजन विचारधारा को जानते हुए, फिल्म में विभिन्न क्षेत्रों में सामजिक नायकों के चित्रों, फ्रेम, आदि का चतुराई से उपयोग करते हैं. जब भी अपने अधिकारों के लिए लड़ने की बात आती है, उन्होंने पृष्ठभूमि में डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर की छवि का इस्तेमाल किया. जहां कहीं भी अपना रास्ता और आशय खोजने की बात आती है, उन्होंने बुद्ध की छवियों का इस्तेमाल किया है. कारखाने, घरों जैसे कई स्थानों पर आम्बेडकर के चित्रों को सूक्ष्मता से दिखाया गया है. रंजीत सुनिश्चित करते हैं कि यह ओवरपावर न हो लेकिन साथ ही दर्शकों के साथ जुड़ाव बनाता रहे. पेरियार और करुणानिधि की तस्वीरें भी कई बार दिखाई जाती हैं.
8. सहायक कलाकारों का प्रदर्शन
सहायक कलाकारों से कुछ शानदार प्रदर्शन देखने को मिलता है. वास्तव में यह कहना उचित होगा कि सहायक कलाकारों का प्रदर्शन मुख्य अभिनेता आर्या से भी बेहतर है. जो अपनी छाप छोड़ जाते हैं वे हैं डैडी, कोच रंगन, डांसिंग रोज़, वेम्बुली, मरियम्मा, दोस्त गौतम, बीड़ी ताता, थानिगा, पुजारी, आदि की भूमिकाएँ.
कुल मिलाकर, यह एक अत्यधिक अनुशंसित फिल्म है और नीलम प्रोडक्शंस का एक और रत्न है और पा रंजीत के लिए टोपी में एक और पंख है जो अपने करियर में अपनी विचारधारा के साथ-साथ स्मार्ट और कुशल होते जा रहे हैं. यह फिल्म की रिपीट वैल्यू है और इसे कई बार देख सकते हैं.
मैं ये मानता हूँ कि अभी भी कुछ बारीक पहलु मुझसे छूट गए होंगे क्योंकि मैं स्थानीय तमिल संस्कृति और घटनाओं से पूरी तरह परिचित नहीं हूं. लेकिन मेरी यह छोटी सी कोशिश लोगों के प्रति उस प्रेम को दर्शाती है, जैसा प्रेम पा रंजीत के पास है जिन्होंने 70 के दशक में चेन्नई (तत्कालीन मद्रास) में शोषित-श्रमिक वर्ग के सूक्ष्म उत्थान के साथ एक खेल को, सामाजिक वास्तविकताओं को एक फिल्म के ज़रिये पूरी कामयाबी के साथ दिखाया है.
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जेएस विनय जाति विरोधी आंदोलन के सिद्धांतों में विश्वास रखते हैं और कॉर्पोरेट जगत में काम करते हैं.
छवियाँ साभार: अमेज़न प्राइम और इंटरनेट.
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