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अरविंद शेष (Arvind Shesh)

हिंदी जगत के वरिष्ठ पत्रकार अरविंद शेष के इस संक्षिप्त आलेख में कई इशारे छुपे हुए हैं. अभावों में जीवन गुज़ारते और आत्मसम्मान की निरंतर लड़ाई लड़ते बहुजन समाज के कदम दर कदम आगे बढ़कर हासिल के बरक्स ब्राह्मणवाद के षड्यंत्र जिसने जाने किन किन बहानों से आगे बढ़ने के मुहानों को बंद कर दिया है. पत्रकार होने के चलते वे महीन तौर पर बदलते माहौल को रोज़ महसूस करते हैं. इस आलेख में उसी सोच का सार बयाँ होता है – संपादक  

 

पेट की फिक्र में पीढ़ियां गुज़र गईं और गुज़र चुके उन तमाम अजीजों का जो वक्त गुज़रा, वह दुनिया से गुज़र जाने से बेहतर नहीं था..! आखिरकार गुज़र चुके उन लोगों ने गुज़रते हर एक पल में यही सोचा होगा कि यह वक्त गुज़र जाए… यह दौर गुज़र जाए कि कम-अज़-कम आने वाली नस्ल ही सहर की रोशनी को महसूस सके… उसकी कोई तो शाम सुबह के खयाल के साथ… अगली सुबह के इंतजार में खुशनुमा गुज़र सके..!

उन तमाम पीढ़ियों की तमाम हसरतों की कुर्बानियों के बाद अब जाके तो कोई सुबह सुहानी होने का ख़्याल देने लगी थी… अब जाके सुबह के सूरज की रोशनी के रंग दिल में एहसास भरने लगे थे… अब जाके आसमान के बेदायरा फैलाव को भी उफ़क पर छूने की तमन्नाओं ने मचलना शुरू किया था… अब जाके दरिया की लहरों का झूमना दिल के लहराने का सबब बनने लगा था… अब जाके पहाड़ों की ऊंचाई के साथ बादलों को थामने के खयाल जीने की उम्मीद भरने लगे थे… अब जाके दुनियावी झंझटों से फुर्सत के कुछ पल अपने लिए मिलने लगे थे… अब जाके कुदरत के तमाम रंगों को अपने दिल में भर कर उसमें रंग जाने की भूख पैदा हुई थी… अब जाके सुबहो-शाम… शबो-रोज को बांहों में थाम लेने की हसरत ने खिलना शुरू किया था…!

अब तक तो ज़मीन और आबोहवा के एहसास जिंदगी बचा लेने की भूख में गुम होते रहे थे… फसलों की उम्मीद की ज़मीन साथी थी… पहाड़ कदमों तले थे… तूफानों के थपेड़े थकान में सुकून का जरिया थे..! अब जाके ज़मीन की घास पर टिके ओस की बूंदों ने नज़ाकत के सुकून का एहसास देना शुरू किया था…! गुलों के रंग और खुशबू एहसासों में भरने लगे थे… तितलियों की लहर आंखों में बसने लगी थी..! अब जाके पहाड़, नदियां, समंदर और कुदरत के तमाम रंग अच्छे लगने लगे थे… सुकून का खुशनुमा एहसास लगने लगे थे…! दर्द की धुनों में गुम दुनिया की दरो-दीवार के दायरे में कभी-कभार मुहब्बत के सुर भी लहराने लगे थे..! उम्मीदों के परिंदे आसमान में यों परवाज़ भरने लगे थे, गोया अनजान सुबहो-शाम के फ़लक पर हमारी भी हसरतों की इबारत लिखी जाने वाली हो..!

अब तक अंधेरों में गुम अपनी दुनिया से दूर दिखने वाली चकाचौंध सिर्फ दूसरी दुनिया के करतब लगते रहे थे…! अब तक चमकते सजीले साफ-शफ्फ़ाक शीशे के पार की दुनिया की दीवारें इतनी ऊंची लगती रहीं कि कभी पार न पाया जाए..! अब तक किसी ऊंची पायदान वाले बाज़ार के दरवाजे को पार करके उसमें जा पाना ख़्वाब में भी नहीं आता था..! अब तक किसी ज़रूरी सामान पर नज़र पड़ने से पहले खाली जेब का खयाल आता रहा था..! अब तक आधी-अधूरी या फिर ख़ाली थाली के बरक्स दूसरी दुनिया-सी दिखने वाली दुकानों में सजी खाने-पीने की चीजें बस ख़्वाबों में ही आती रहीं..! मगर अब जाके इन दीवारों को पार करने का हौसला जागा था..! अब जाके हासिल दम के बूते दूसरी दुनिया में दखल देकर बैठ कर कुछ सुनते-गुनते, खाते-पीते या खरीदते हुए यह एहसास होने लगा था कि यह हमारा भी हक था..!

मगर कितनी चालबाज़ी और सफाई से छीन लिए तुमने ये सारे नए एहसास..! जिन खयालों को हकीकत बनाने का हौसला उमंगों के साथ लहराने लगा था, कुदरत के हर रंग को समझने और उसमें डूबने-उतराने के ख़्वाब अब नींद से बाहर उतरने लगे थे… वह सब झटके से छीन लिया तुमने…! साजिशों के सबसे ऊंचे दीवान पर सज कर तुमने मेरे सवाल उठाने तक को साजिश करार दिया और मेरी गर्दन रेते जाने को मेरा इत्तिफाक बता कर जश्न मनाया..!

…और इस तरह सारे ख़्वाबों को हकीकत बनाने के हौसले से वापस लौटा कर एक बार फिर पेट की फिक्र में इस पीढ़ी को भी झोंक दिया… और इस तरह एक बार फिर तुम्हारा राज कायम रहा… और एक बार फिर अंधेरे के बरक्स रोशनी की उम्मीद-सी ज़िन्दगी की हसरत पालने वाली तमाम पीढ़ियों के ख़्वाब खिलने से पहले ही दफन हो गए..!

मगर याद रखना… उफ़क पर आसमां को छूने की मेरी ये हसरतें नींद से जाग कर अपने कदमों से आगे बढ़ीं और जहां तक चलीं अपने कदमों के बूते ही आगे बढ़ीं! तुम्हें अगर नहीं हिचक हुई कि एक अबूझ पर्दा टांग कर हमारी हसरतों पर हमला किया जाए तो हम भी अब तुम्हारा पर्दा कबूल करने से खारिज़ करते हैं…! हम अपनी गढ़ी हुई शक्ल और शख्सियत के साथ मैदान में हैं और अब अगर तुम्हारा चेहरा पहचान सकने की सलाहियत हासिल हो गई है तो आगे उस चेहरे का सामना करने का रास्ता भी तैयार कर लेंगे हम..! फिलहाल हमारे कदम भले रोक दिए गए हों, मगर उठ चुके कदमों के रास्ते कभी वापस नहीं होते… अब रास्ते में खड़े पहाड़ भी पार किए जाएंगे..! फिर ख़्वाब देखे जाएंगे… फिर दीवारों के पार की दुनिया पर दावा ठोंका जाएगा… फिर ख़्वाबों के सितारों को जमीन पर उतारा जाएगा… फिर कुदरत से मोहब्बत की जाएगी… फिर से जीने के सारे अपने सलीके तैयार किए जाएंगे..!

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अरविन्द शेष हिंदी जगत के वरिष्ठ पत्रकार हैं.

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