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जे. एस. विनय (J. S. Vinay)

नागराज मंजुले वापस आ गए हैं और इस बार वह हमें अपनी पहली हिंदी फिल्म झुंड (जो 4 मार्च, 2022 को रिलीज़ हुई थी) के माध्यम से साहस की अज्ञात कहानियाँ बता रहे हैं। नागराज लोगों को सबसे संवेदनशील तरीके से चित्रित करने के लिए जाने जाते हैं और उनकी फिल्मों में उच्च श्रेणी का छायांकन, संगीत होता है। इस बार की कहानी नागपुर की एक झुग्गी-बस्ती में रहने वाले लोगों पर आधारित है, जिन्होंने नागपुर के प्रसिद्ध फुटबॉल कोच विजय बरसे के माध्यम से फुटबॉल का खेल सीखा।

कई बार फिल्म देखने के बाद, मैं कुछ अवलोकन साझा करना चाहूँगा. नागराज की सुंदरता यह है कि अलग-अलग लोगों के लिए इसके अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं. वह इस तरह से इंद्रियों और कल्पनाओं को जगाते हैं। फिल्म के बारे में एक लेख में लिखना मुश्किल है, हालांकि मैं इसे छोटा रखने की कोशिश करूँगा और नीचे लिखे गए लेख में कुछ छोटे-छोटे स्पॉइलर (spoiler) हैं।

1. लोगों के बारे में कहानी और फुटबॉल के बारे में नहीं
खेल के पीछे के लोगों की कहानियों के बारे में फिल्म हैं। दिखाए गए लोग सभी धर्मों के लोगों का मिश्रण हैं। मुस्लिम पात्र हैं, सिख पात्र हैं (शायद सब निचली जाति से)। हरियाणा से, पश्चिम बंगाल से, केरल से, उत्तर पूर्व से आदि के पात्र हैं। लोगों को निहित अच्छाई, सम्मान दिखाया जा रहा है। मोहल्ले में महिलाओं का सम्मान होता है। उदाहरण के लिए उस क्रम में जहाँ डॉन रजिया का समर्थन करता है जब उसका पति उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। वास्तव में कहानी में कई परतें हैं और कई विषय पृष्ठभूमि में घुमते रहते हैं

2. नो सेवियर सिंड्रोम
फिल्म में भले ही विजय बरसे कोच के किरदार में अमिताभ बच्चन हैं, लेकिन कहीं भी उन्हें उद्धारकर्ता के रूप में नहीं दिखाया गया है। वह अधिक उत्प्रेरक है। वह कहीं भी लोगों को कोई नैतिकता नहीं सिखाते। वास्तव में फिल्म अमिताभ के चरित्र को फिल्म पर हावी होने का मौका नहीं देती है, जो की एक सराहनीय कदम है। उन्हें लोगों को ‘सुधारने’ की कहीं जरूरत नहीं पड़ती है। जबकि इसके विपरीत एहसास होता है जब आप आर्टिकल 15 जैसी सेवियर सिंड्रोम से ग्रसित फिल्म देखते हैं।

3. बन्धुत्
वहाँ के लोगों के बीच काफी सौहार्द दिखाई देता है। वे एक दूसरे के साथ मतभेद रखते हैं, वे लड़ते हैं, वे बहस करते हैं लेकिन वे सभी मतभेदों के बावजूद एक साथ रहते हैं। फ़ुटबॉल मैच में, सारी बस्ती के लोग एक साथ आते हैं जबकी सभी लोग खेल भी नहीं रहे हैं, समुदाय साथ आता है और जब वे गोल करते हैं या गोल होने से बचाते हैं तो पूरी बस्ती टीम का समर्थन करती है और साथ में आनंद लेती है। लोगों के संघर्ष की यात्रा में वास्तविक समर्थन और आनंद है। चाहे पासपोर्ट को हासिल करने का सफर हो या टीम में जगह न मिल पाने का दर्द। चूंकि यह साझा दुख और खुशी है, जो कि बिरादरी के बारे में है। अम्बेडकर जयंती (वर्षगांठ) पर पुरुषों, महिलाओं, सभी उम्र के बच्चों व् सभी धर्मों के लोगों ने हर्षोल्लास के साथ नाचते गाते मनाई है। यहाँ तक कि इस्तेमाल किए गए चुटकुले, हास्य वास्तविक, स्वाभाविक और कभी भी अश्लील नहीं लगते हैं।

4. पात्रों की गरिमा
फिल्म में अलग-अलग तरह के लोगों को दिखाया जा रहा है। लेकिन सभी को बेहद गरिमापूर्ण तरीके से दिखाया गया है। ऐसे कुछ पात्र हैं जो शारीरिक रूप से विकलांग हैं लेकिन नागराज कहीं भी उन्हें इस तरह नहीं दिखाते हैं कि यह उनके प्रति “सहानुभूति” या हंसी पैदा करता है। वे फिल्म के साथ-साथ कहानी के साथ सहज एकीकृत हैं। नशे में धुत चरित्र के मामले में भी, जो उनके साथ फुटबॉल का अभ्यास करना शुरू कर देता है और एकीकृत हो जाता है। रिंकू राजगुरु का एक प्यारा सीक्वेंस है, जिसे राज्य के एक दूरस्थ कोने से दिखाया गया है, उसके पिता के साथ कुछ ऐसा है जिससे हम में से कई संबंधित हो सकते हैं. उनकी पूरी बातचीत बिना सबटाइटल के की जाती है। यह दर्शाता है कि भाषा भावनाएं समझने के लिए रूकावट नहीं हैं और हम कैसे एक समाज के रूप में उनके अस्तित्व से अवगत नहीं हैं।

एक अद्भुत दृश्य है जहाँ हरियाणा की लड़की की दादी परिवार को पैसे की व्यवस्था करने या कुछ बेचने के लिए कहती है ताकि लड़की ‘बॉबी’ टूर्नामेंट के लिए यात्रा कर सके।
दिखाए जा रहे लोगों में स्वाभाविक वृद्धि होती है। यह लोगों के आत्म-साक्षात्कार की तरह है जब वे जीवन में उद्देश्य पाते हैं।

कोई स्पष्ट नकारात्मक चरित्र नहीं है। यहाँ तक कि सरकारी अधिकारी, पुलिस जो शुरू में समर्थन नहीं करते – वे अंततः समर्थन करते हैं। लोगों में निहित अच्छाई दिखाई जा रही है। कुछ महत्वपूर्ण दृश्यों में कहीं भी कोई यौन पक्ष नहीं पूछा गया है। वास्तव में यह प्रणाली और संरचनाएं हैं जहाँ प्रश्नचिह्न उठाया जाता है।

5. मुख्य अभिनेताओं और सहायक पात्रों का प्रदर्शन
अंकुश गेडम (डॉन) और विजय बरसे (अमिताभ) जैसे प्रमुख कलाकार फिल्म में चमकते हैं।
सहायक कलाकारों से कुछ शानदार प्रदर्शन हैं। बाबू, इमरान, रिंकू राजगुरु, रज़िया, कार्तिक (बच्चा जो पूछता है कि भारत का क्या मतलब है?), जेरी, किशोर कदम, लाल बालों वाले चाचा (बूढ़े आदमी), यहाँ तक कि खुद नागराज मंजुले का भी विशेष उल्लेख है।
यहाँ तक कि जिन किरदारों को 1-2 सीन के लिए स्क्रीन पर स्पेस मिलता है, वे भी अपनी छाप छोड़ते हैं।

6. ध्वनि और छायांकन
सिनेमैटोग्राफी और साउंड के लिए क्रमशः सुधाकर यकांति और अविनाश सोनवणे का विशेष उल्लेख। यह फ्लिम को असाधारण रूप से ऊपर उठाता है। फ्लाइट टेक ऑफ के आखिरी सीक्वेंस का फ्रेम हो या फुटबॉल मैच के सीक्वेंस हों या एयरपोर्ट में सिक्योरिटी शॉट तक के सीक्वेंस देखना एक लाजवाब अनुभव है।

7. चरित्रचित्रण
झुंड फिल्म में कहीं भी नागराज पात्रों की जाति को नहीं बताते हैं। केवल 3 लोगों के उपनाम (surname) बताए गए हैं।  डॉन, इमरान और रिंकू के किरदारों का खुलासा किया गया है।
डॉन का उपनाम मसराम है। अब विदर्भ क्षेत्र में मसराम अनुसूचित जनजाति में अधिकतर आते हैं न कि अनुसूचित जाति यानि दलित में।

तो यह जाति पर बहुत अधिक जोर दिए बिना लोगों का एक बहुत ही विषम समूह है.. डॉन जय भीम कहते हैं, वैसे ही नागराज (हिटलर) करते हैं, हालांकि वे दलित या अम्बेडकरवादी नहीं हैं। अन्य पात्रों (गैर सिख/ मुस्लिम) के उपनाम या धार्मिक संबद्धता कभी ज्ञात नहीं होती हैं। नागराज इसे व्याख्या के लिए दर्शकों की कल्पना पर छोड़ते हैं।

अब यह सब महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है चूंकि नागराज इसे केवल समुदाय में दलितों के बारे में नहीं बनाना चाहते हैं, बल्कि शोषित तबके का सामूहिक विकास करना चाहते हैं तो यह भावना की जीत है, और न ही वह चाहते हैं कि लोग कहें कि “एक दलित समुदाय हमेशा झुग्गियों में ऐसा ही होता है”। वास्तव में कहीं भी यह नहीं दिखाया गया है कि लोग “आम्बेडकरवादी” हैं, यह सिर्फ इतना है कि वे जश्न मनाने के लिए एक साथ आते हैं व् आंबेडकर जयंती मानते हैं और खुशियाँ बाँटते हैं । इसलिए यह लोगों पर किसी भी तरह का आम्बेडकरवादी लेंस/नज़रिया लगाने से बचता है। सोशल मीडिया में यह देखकर आश्चर्य होता है कि कुछ लोगों को अपनी मूल बातें सही नहीं मिल रही हैं जब वे फिल्म को गंभीर रूप से देख रहे हैं और कह रहे हैं कि इसमें अम्बेडकरवादियों को नहीं दिखाया जा रहा है सही तरीके से !

कहानी सिर्फ एक झुग्गी बस्ती की है न कि नागपुर की सभी झुग्गी बस्तियों की। यह अखिलेश पॉल (जिस व्यक्ति पर डॉन का चरित्र आधारित है) जैसे लोगों की कहानी है। विदर्भ, नागपुर के बाहर के लोग इस क्षेत्र की गतिशीलता को नहीं जानते होंगे। नागराज कहीं भी यह दावा नहीं करते कि यह फिल्म दलितों या अम्बेडकरवादियों के बारे में है

8. अंतर्निहित संदेश और मानवता पर डॉ. अम्बेडकर के शब्दों से तालमेल
विमान के उड़ान भरने के बाद झुंड समाप्त होता है। बस इतना ही। यह कहीं नहीं दिखते कि बाद में क्या होता है। यहाँ तक कि आयोजित राष्ट्रीय फुटबॉल टूर्नामेंट में भी, स्कोर या तकनीकी विवरण के संदर्भ में बहुत कुछ नहीं दिखाया गया है। निगाह हमेशा विभिन्न टीमों के खेल खेलने वाले लोगों पर रहती है. विमान के उड़ान भरने के बाद भी फ़ुटबॉल मैदान पर कैमरा बस्ती के फुटबॉल मैदान पर जारी रहता है.

अब विमान के उड़ान भरने के बाद नागराज इस फिल्म को क्यों ख़तम कर देते हैं? क्योंकि उनके लिए वह पूरा सफर, फ्लाइट में सवार होने की कहानी उन लोगों के लिए अपने आप में एक जीत है। इसमें शामिल लोगों के लिए उस तक पहुँचना एक बहुत बड़ा कार्य है। यह कई हाशिए के वर्गों के संघर्षों के समान है। आरक्षण प्राप्त करना और नौकरी पाना, प्रवेश अपने आप में एक उल्लेखनीय उपलब्धि है। क्योंकि इस संघर्ष के पीछे बहुत कुछ है। इसके पीछे कई लोग शामिल हैं। नागराज आपको महसून करवाते हैं कि इस फिल्म में रिंकू के पिता की तरह आपके अपने पिता/माता हो सकते हैं जो संसाधनों की कमी या असफलताओं के बावजूद आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े थे।

कई बहुजनों के लिए, एक दिन जीवित रहना, अपनी रोटी और रोज़ी कमाना और अपने परिवार का समर्थन करना अपने आप में एक क्रांति है। तो इसे कम मत समझिये। कई बार हम आरक्षण का लाभ उठाने के अपराधबोध में फंस जाते हैं और फिर मन में बाहरी दुनिया के सामने अपने अस्तित्व को साबित करने की कोशिश करते हैं। मंजुले यह सुनिश्चित करने के लिए फिल्म के ज़रिये कहते हैं कि हम यह महसूस करें कि वहाँ तक पहुँचना उल्लेखनीय है क्योंकि वो रास्ता अलग है। नागराज जो कर रहे हैं वह सबसे पहले मानव अस्तित्व को सम्मान दे रहे हैं।

यह फिल्म डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के शब्दों का सबसे निकटतम उदाहरण है “हमारा युद्ध धन या सत्ता के लिए नहीं है। यह आज़ादी की लड़ाई है। यह मानव व्यक्तित्व के पुनरुद्धार की लड़ाई है।”

यह मानव व्यक्तित्व है जिसका दावा यहाँ किया गया है। यह मेरे लिए एक अहसास के पल की तरह था। अपनी कहानियों, अपने लोगों को कम मत समझो, जबकि आपको सीमित अवसर मिले हैं। कभी-कभी हर दिन जीवित रहना एक चमत्कार होता है जब आप मछुआरे, मज़दूर या अपने अस्तित्व का समर्थन करने के लिए किसी भी भूमिका के रूप में अथक परिश्रम करके अपनी रोटी कमाते हैं। मनुष्य के रूप में आपके अस्तित्व पर दैनिक आधार पर प्रश्नचिह्न लगाया जाता है। तो अपने अस्तित्व का दावा करना और प्राप्त करना भी बाबासाहेब का अनुसरण करना है। उत्पादन की इस जाति पद्धति में यह मानवीय गरिमा का मार्ग है।

‘झुंड’ के बारे में मेरा सबसे गहरा व्यक्तिगत अवलोकन रहा है। सभी गीतों से परे, नृत्य, फुटबॉल, कोच, झुग्गी-झोपड़ी से परे। और मैं इसके लिए नागराज को धन्यवाद देना चाहता हूँ। ऐसा करते रहिये नागराज क्योंकि यही हमारी यात्रा है।

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जे. एस. विनय द्वारा लिखित जो जाति विरोधी आंदोलन, व्यंजन और फिल्मों में रुचि रखते हैं।

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One thought on “झुंड- मानव अस्तित्व की लड़ाई

  1. i also liked the movie; article is brilliant. just needs some corrections (gedam, not geda). the movie is not about football or neither about those folks going into a foreign country but experience & feelings which only the marginalised can feel. author is right, to avail benefits of reservation is a victory in itself. best thing is; at some point one can wonder if this is a film or a reality being depicted.

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