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दीपशिखा इंन्द्रा (Deepshikha Indra)

एक रोज़ मैंने एक छोटा सा लेख (प्रेम के सही मायने) प्रेम के विषय पर लिखा था. प्रेम/प्यार को सभी अपने हिसाब और अनुभव से बयाँ करते हैं. मैंने भी इसे समझने का प्रयास किया. प्रेम की आवश्यकता तो हर जगह ही है लेकिन सामाजिक रिश्तों खासतौर पर वैवाहिक जीवन में इसका अभाव जिंदगी को पीड़ा से भर सकता है. इस बात को समझने की ज़रुरत है. जीवन आज चुनौतियों से भर गया है जिसका एक बड़ा कारण जीवन में प्रेम का अभाव भी है. मैं भी इन्हीं सब विचारों से गुज़र रही थी कि एक रोज़ मुझे एक पत्र पढ़ने को मिला जो बाबा साहेब डॉ. भीम राव आंबेडकर जी ने अपनी पत्नी रमाबाई को तब लिखा था जब वे लंदन में थे. इस पत्र ने जैसे प्रेम के प्रति सोच को ज़मीन दे दी हो! दरअसल, प्रेम के असली अर्थ मुझे राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब के पत्र में देखने को मिले. पत्र को पढ़ते हुए मेरी आँखें नम हो गईं. बाबा साहेब का पत्र मानो शब्द-दर-शब्द प्रेम को प्रभाषित कर रहा था.

माता रमाबाई जी के प्रति उनकी भावनात्मक समझ बाबा साहेब को बिल्कुल अलग स्थापित करती है. राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब और माता रमाबाई के प्रेम में एक-दूसरे के प्रति समर्पण की भावना, सच्चा प्रेम, एक दूसरों को समझना हर कदम पर चाहे दुख हो या खुशी  हमेशा एक दूसरे की ताकत बनकर  खड़े रहना  यही सच्चे प्रेम की छवि को दर्शाता है 

पत्र पढ़कर यह बात और अधिक उभरकर सामने आती है कि बाबासाहेब को बाबासाहेब बनाने में सबसे बड़ा योगदान माता रमाबाई जी का हैं. जिस तरह दीया और बाती एक साथ जलकर रोशनी देते हैं उसी तरह से माता रमाबाई और बाबा साहेब ने अपने निजी दुख-दर्द भूल कर हम सभी के अधिकारों, न्याय और स्वाभिमान के लिए अपना सब कुछ बलिदान कर दिया ताकि हम लोग इस मनुवादी समाज में अपना सिर उठा के जी सकें और अपने हक के लिए लड़ सके. 

जो लोग प्रेम को लेकर जिज्ञासु हैं कि यह रिश्तों में कैसे उतारा जाए, मैं उन लोगों से कहना चाहती हूँ कि वह बाबा साहेब के इस पत्र को अवश्य पढ़ें. बाबा साहेब और माता रमाबाई के प्रेम को शब्दों में बयाँ कर नहीं सकते हैं. इसे केवल मन द्वारा समझा जा सकता है. उनके प्रेम, त्याग और बलिदान को जितना शुक्रिया करें उतना ही कम है.

तो आइये पढ़ते हैं बाबासाहेब द्वारा माता रमाबाई जी को लिखा उनका यह पत्र.

लंदन
30 दिसंबर 1930
प्रिय रामू,

तू कैसी है? यशवंत कैसा है? क्या मुझे याद करता है? उसका बहुत ध्यान रख रमा! हमारे चार बच्चे हमें छोड़ गए. अब यशवंत ही तेरे मातृत्व का आधार है. उसका ध्यान हमें रखना ही होगा. पढ़ाना होगा. विकसित करना होगा. खूब बड़ा करना होगा. उसे निमोनिया की बीमारी है. 

मेरे सामने बहुत बड़े उलझे गणित हैं. सामाजिक पहेलियॉं हैं. मनुष्य की धार्मिक ग़ुलामी का, आर्थिक और सामाजिक असमानता के कारणों की परख करना है. गोलमेज़ परिषद की अपनी भूमिका पर मैं विचार करता हूँ और मेरी ऑंखों के सामने देश के सारे पीड़ितों का संसार बना रहता है. दुखों के पहाड़ के नीचे इन लोगों को हज़ारों वर्षों से गाड़ा गया है. उनको उस पहाड़ के नीचे से निकालने के मार्ग की तलाश कर रहा हूँ. ऐसे समय में मुझे मेरे लक्ष्य से विचलित करने वाला कुछ भी होता है तो मेरा मन सुलग जाता है. ऐसी ही सुलगन से भरकर मैंने यशवंत को निर्दयतापूर्वक मारा था.

उसे मारो मत! मासूम है वह! उसे क्या समझता है? व्याकुल होकर तूने ऐसा कहा था. और यशवंत को गोद में भर लिया था. पर रमा मैं निर्दयी नहीं हूँ. मैं क्रांति से बाँधा गया हूँ. आग से लड़ रहा हूँ. अग्नि से लड़ते-लड़ते मैं खुद अग्नि बन गया हूँ. इसी अग्नि की चिंगारियॉं मुझे पता ही नहीं चलता कि कब तुझे और हमारे यशवंत को झुलसाने लगती हैं. रमा! मेरी शुष्कता को ध्यान में रख. यही तेरी चिंता का एकमात्र कारण है.

तू ग़रीब की संतान है. तूने मायके में भी दुख झेला. ग़रीबी से लिथड़ी रही. वहॉं भी तू भर पेट खाना न खा सकी. वहॉं भी तू काम करती रही और मेरे संसार में भी तुझे काम में ही लगना पड़ा, झिजना पड़ा. तू त्यागी है, स्वाभिमानी है. सूबेदार की बहु जैसे ही रही. किसी की भी दया पर जीना तुझे रुचा ही नहीं. रुचता ही नहीं. देना तू अपने मायके से सीखकर आई. लेना तूने सीखा ही नहीं. इसलिए रमा तेरे स्वाभिमान पर मुझे गर्व होता है.

पोयबाबाड़ी के घर में मैं एक बार उदास होकर बैठा हुआ था. घर की समस्या से मैं बदहवास हो गया था. उस वक़्त तूने मुझे धैर्य प्रदान किया. बोली, ‘मैं हूँ न संभालने के लिए. घर की परेशानियों को दूर करूँगी. घर के दुखों को आपकी राह में अवरोध बनने नहीं दूँगी. मैं ग़रीब की बेटी हूँ. परेशानियों के साथ जीने की आदत है. आप चिंता न करें, मन को कमजोर न करें. 

संसार का काँटों भरा मुकुट जान में जान रहने तक उतारकर नहीं रखना चाहिए. 

रामू! कभी-कभी लगता है कि यदि तू मेरे जीवन में नहीं आती तो क्या होता. संसार केवल सुखों के लिए है- ऐसा माननेवाली स्त्री यदि मुझे मिली होती तो वह कब का मुझे छोड़कर जा चुकी होती. मुंबई जैसी जगह में रहकर आधा पेट रहकर उपले बेचने जाना या फिर गोबर बीनकर उपले थापना भला किसे पसंद आता? वकील की पत्नी कपड़े सिलती रही. अपने फटे हुए संसार को थिगड़े लगाना भला किसे पसंद है? पर तूने ये सारी परेशानियॉं उठाई, पति के संसार को पूरे सामर्थ्य के साथ आगे बढ़ाया.

मेरे पति को अच्छे वेतन की नौकरी मिली, अब हमारे सारे दर्द दूर होंगे, इस ख़ुशी में ही मैंने तुझे ये दो लकड़ियों की पेटी, इतना ही अनाज, इतना ही तेल-नमक और आटा और इन सबके बाद हम सबकी देखभाल करते हुए गुज़ारा करना है- ऐसा बोला था. तूने ज़रा भी ना-नुकूर किए सारा कुछ संभाला. रामू! मेरी उपस्थिति में और मेरे पीछे जो तूने किया वह कोई और कर सके, ऐसा सामर्थ्य किसी में नहीं है.

रामू! तेरे जैसी जीवनसंगिनी मुझे मिली इसलिए मुझे शक्ति मिलती रही. मेरे सपनों को पंख मिले. मेरी उड़ान निर्भय हुई. मन दृढ़ हुआ. मन बहुत दिनों से भर भर रहा था. 

ऐसा कई बार लगा कि तेरे साथ आमने सामने बात करना चाहिए. पर दौड़-भाग, लिखना-पढ़ना, आना-जाना, भेंट-मुलाक़ात में से समय निकाल ही नहीं पाया. मन की बातें मन में ही छुपाकर रखना पड़ा. मन भर-भर आया पर तेरे सामने कुछ कह नहीं सका. 

आज शांतिपूर्ण समय मिला और सारे विचार एकमेक हो रहे हैं. मन बेचैन हुआ. इसलिए बुझे हुए मन को मना रहा हूँ. मेरे मन के सारे परिसर में तू ही समाई हुई है. तेरे कष्ट याद आ रहे हैं. तेरी बातें याद आ रही हैं. तेरी बेचैनी याद आ रही है. तेरी सारी घुटन याद आई और जैसे मेरी सांसें ख़त्म होने लगीं, इसलिए क़लम हाथ में लेकर मन को मना रहा हूँ.

रामू! सच्ची कहता हूँ तू मेरी चिंता करना छोड़ दे. तेरे त्याग और तेरी झेली हुई तकलीफ़ों का बल मेरा संबल है. भारत का ही नहीं परंतु इस गोलमेज़ परिषद के कारण सारे विश्व के शोषितों की शक्ति मुझे बल प्रदान कर रही है. तू अब अपनी चिंता कर.

तू बहुत घुटन में रही है रामू! मुझ पर तेरे कभी न मिटनेवाले उपकार हैं. तू झिजती रही, तू कमजोर होती रही, तू गलती रही, जलती रही, तड़पती रही और मुझे खड़ा किया. तू बीमारी से तंग आ चुकी है. स्वयं के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखना चाहिए इसकी तूने चिंता ही नहीं की. तुझे अब अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना ही होगा. यशवंत को मॉं की और मुझे तेरे साथ की ज़रूरत है. और क्या बताऊँ? 

मेरी चिंता मत कर, यह मैंने कितनी बार कहा तुझसे पर तू सुनती ही नहीं. मैं परिषद के समाप्त होते ही आऊँगा. 

सब मंगल हो. 
तुम्हारा
भीमराव

जैसा प्रेम बाबा साहेब और माता रमाबाई जी के बीच था वह अनुकरणीय है, प्रेम का प्रतीक है. बाबा साहेब और माता रमाबाई दोनों ही त्याग के राही रहे लेकिन वह एक-दूजे का किस कद्र सच्चे मन से मान-सम्मान करते थे वह इस ख़त के ज़रिये समझा जा सकता है. प्रेम में दिया जाता है, बल्कि माँगने के संकल्प को मान्यता नहीं है. त्याग के बिना प्रेम खोखला होता है या दिखावे पर ही टिका होता है. बाबा साहेब और रमाबाई के मध्य रिश्तों में त्याग और स्नेह का अनूठा संगम है. ऐसा ही कुछ रिश्ता सावित्रीबाई फुले और ज्योतिबा फुले का था. बाबा साहेब ज्योतिबा फुले के दर्शन व् संघर्ष का बहुत आदर करते थे. फुले दंपति के रिश्तों में प्रेम का विस्तार जैसे कि बाबा साहेब के जीवन से आ जुड़ा हो. पति पत्नी कैसे प्रेमपूर्वक रहें, इसका इशारा बाबा साहेब करते हुए कहते हैं- पति-पत्नी का रिश्ता  सबसे करीबी दोस्त का होना चाहिए.

इस पत्र के जरिए हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है. ये पत्र हमारे लिए प्रेरणा का प्रतीक है.

लेकिन क्या सही मायने में लोग बाबा साहब के विचारों और माता रमाबाई के त्याग और संघर्ष को समझते हैं और अपने जीवन अनुसरण कर रहें हैं? यह प्रश्न हम सभी के सामने है जिसका उत्तर हमें इमानदारी से देना होगा.

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दीपशिखा इन्द्रा ने सिविल इंजीनियरिंग (बी.टेक.) हैं व् मास्टर्स इन सोशल वर्क हैं. वह बहुजन समाज पार्टी की सक्रिय कार्यकर्ता हैं.

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